सात्विक हो आजीविका के साधन

ईमानदारी की कमाई में है आनंद

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भगवान श्रीकृष्ण ईमानदारी की कमाई से बना हुआ भोजन ही स्वीकारते हैं, इसका एक बड़ा उदाहरण है- विदुर। विदुर के यहाँ पके हुए उबले साग-पात खाना। इससे यह बात भी रेखांकित होती है कि व्यक्ति को नैतिक साधनों से कमाए गए धन पर ही निर्भर रहना चाहिए।

नैतिक साधनों से कमाया गया धन तुलसी के उस पौधे की तरह है जो पवित्रता का प्रतीक तो है ही, श्रद्धा का प्रतिमान भी है। लेकिन पाप की कमाई वाला दुर्योधन का पाखंडपूर्ण आतिथ्य वे नकार देते हैं। श्रीकृष्ण का यह व्यवहार इस बात का संकेत देता है कि ईमानदारी की कमाई में आनंद भी है और तृप्ति भी, संतोष भी है और सुकून भी।

दुर्जनों के लिए वज्र की तरह कठोर और सज्जनों के लिए पुष्प के समान कोमल हैं नीतिराज श्रीकृष्ण। योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्णावतार हैं। वे पुरुषार्थ के प्रवक्ता और प्रज्ञा के पर्याय हैं। गायों की सेवा करना जहाँ मूक पशुओं के प्रति श्रीकृष्ण की संवेदनशीलता का प्रतीक है, वहीं कालिया नाग के प्रदूषण से यमुना नदी को मुक्त करना श्रीकृष्ण के पर्यावरण प्रेम का द्योतक है। दरअसल अन्याय को नष्ट और आतंक को नेस्तनाबूद करते हैं भगवान श्रीकृष्ण।

श्रीकृष्ण कंस की क्रूरता और जरासंध के जुल्म से त्रस्त लोगों की रक्षा करते हैं। श्रीकृष्ण उँगली पर गोवर्धन पर्वत उठाकर नागरिकों की रक्षा करके इंद्र का दंभ दलन करते हैं तो अहंकारी शिशुपाल का वध करके आतंक का अंधकार समाप्त करते हैं। वे विचारशीलता, विवेकशीलता, विनम्रता के समन्वय हैं।

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द्वारिका में अपने गरीब मित्र सुदामा की न केवल आवभगत करते हैं, अपितु सुदामा के दो मुट्ठी सत्तू या चावल के बदले चुपचाप उन्हें राजसी सुविधाएँ दे देते हैं।

प्रकृति जब दंड देती है तो यह दंड बिना आवाज की लाठी की तरह होता है, जिसकी मार तो भयानक होती है पर दिखाई नहीं देती। वैसे भी कहा जाता है जैसी करनी वैसी भरनी। देर से ही सही किंतु दुष्कर्मों का परिणाम भोगना पड़ता है।

कभी-कभी तो ऐसा होता है कि पिता के द्वारा अनैतिक साधनों से कमाए गए धन के कारण संतान को दुष्परिणाम भुगतना पड़ते हैं। तात्पर्य यह है कि विदुर के यहाँ भोजन करके श्रीकृष्ण इस सत्य से साक्षात्कार कराते हैं कि आजीविका के साधन सात्विक होने चाहिए।

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