स्पष्ट है कि केवल बाह्य कार्यों के आधार पर कर्तव्य की व्याख्या करना असंभव है, परंतु आंतरिक दृष्टिकोण से कर्तव्य की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि यदि हम किसी कर्म द्वारा भगवान की ओर बढ़ते हैं, तो वह सत्कर्म है, और वही हमारा कर्तव्य है।
परंतु जिस कर्म द्वारा हम नीचे गिरते हैं, वह बुरा है। वह हमारा कर्तव्य नहीं है। सभी युगों में समस्त संप्रदायों और देशों के मनुष्यों द्वारा मान्य कर्तव्य का सार्वभौमिक भाव यही है- 'परोपकारः पुण्याय, पापाय, परपीड़नम् अर्थात परोपकार ही पुण्य है और दूसरों को दुख पहुंचाना पाप है।
अतः अपनी सामाजिक अवस्था के अनुरूप एवं हृदय तथा मन को उन्नत बनाने वाला कार्य ही हमारा कर्तव्य है। दूसरे शब्दों में कर्तव्यनिष्ठा हमारी आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होती है।