भोजशाला में सरस्वती आराधना

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- प्रेमविजय पाटि ल
ऐतिहासिक भोजशाला में प्रतिवर्ष बासंती वातावरण में बसंत पंचमी पर सरस्वती के आराधकों का मेला लगता है। दरअसल यह ऐसा स्थान है, जहाँ माँ सरस्वती की विशेष रूप से इस दिन पूजा-अर्चना होती है। यहाँ यज्ञ वेदी में आहुति और अन्य अनुष्ठान इस स्थल के पुराने समय के वैभव का स्मरण कराते हैं। साथ ही इतिहास भी जीवंत हो उठता है। परमार काल का वास्तु शिल्प का यह अनुपम प्रतीक है।
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ग्रंथों के अनुसार राजा भोज माँ सरस्वती के उपासक थे। उनके काल में सरस्वती की आराधना का विशेष महत्व था। ऐसा कहा जाता है कि उनके काल में जनसाधारण तक संस्कृत का विद्वान हुआ करता था। इसलिए धार संस्कृत और संस्कृति का महत्वपूर्ण केंद्र रहा। भोज सरस्वती की कृपा से ही योग, सांख्य, न्याय, ज्योतिष, धर्म, वास्तुशास्त्र, राज-व्यवहार शास्त्र सहित कई शास्त्रों के ज्ञाता रहे।

उनके द्वारा लिखे गए ग्रंथ आज भी प्रासंगिक हैं। इतिहास के पन्नों में यह बात दर्ज है कि परमार वंश के सबसे महान अधिपति राजा भोज का धार में 1000 ईसवीं से 1055 ईसवीं तक प्रभाव रहा, जिससे कि यहाँ की कीर्ति दूर-दूर तक पहुँची। राजा भोज के विद्वानों के आश्रयदाता थे। उन्होंने धार में एक महाविद्यालय की स्थापना की थी, जो बाद में भोजशाला के नाम से विख्यात हुई। जहाँ सुंदर तथा निकट स्थानों से विद्यार्थी अपनी ज्ञान पिपासा शांत करने के लिए आते थे। उस काल के साहित्य में इस नगर का उल्लेख धार तथा उसके शासक का यशोगान ही किया गया है।
  राजा भोज के काल में सरस्वती की आराधना का विशेष महत्व था। जनसाधारण तक संस्कृत का विद्वान हुआ करता था। भोज सरस्वती की कृपा से ही योग, सांख्य, न्याय, ज्योतिष, धर्म, वास्तुशास्त्र, राज-व्यवहार शास्त्र सहित कई शास्त्रों के ज्ञाता रहे।      


स्थापत्य व वास्तु शिल्प
भोजशाला एक बड़े खुले प्रांगण में बनी है तथा सामने एक मुख्य मंडल और पार्श्व में स्तंभों की श्रंखला तथा पीछे की ओर एक विशाल प्रार्थना घर है। नक्काशीदार स्तंभ तथा प्रार्थना गृह की उत्कृष्ट नक्काशीदार छत भोजशाला की विशिष्ट पहचान है। दीवारों में लगे उत्कीर्णित शिला पट्टों से बहुमूल्य कृतियाँ प्राप्त हुई हैं। वास्तु के लिए बेजोड़ इस स्थान पर दो शिलालेख विशाल काले पत्थर के हैं। इन शिलालेखों पर क्लासिकी संस्कृत में नाटक उत्कीर्णित है। इसे अर्जुन वर्मा देव के शासनकाल में उत्कीर्णित किया गया था।

इस काव्यबद्घ नाटक की रचना राजगुरु मदन द्वारा की गई थी। जो विख्यात जैन विद्वान आशाधर का शिष्य था, जिन्होंने परमारों के राज दरबार को सुशोभित किया था और मदन को संस्कृत काव्य शिक्षा दी थी। इस नाटक का नायक पूर्रमंजरी है। यह धार के बसंतोत्सव में अभिनीत किए जाने के लिए लिखा गया था। भोजशाला में स्तंभों पर धातु प्रत्यय माला व वर्णमाला अंकित है। स्थापत्य कला के लिहाज से भोजशाला एक महत्वपूर्ण कृति मानी जाती है।

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वाग्देवी लंदन में
यहाँ पर कभी माँ सरस्वती यानी वाग्देवी का मंदिर था। जिसका कवि मदन ने अपने नाटक में उल्लेख किया है। यह प्रतिमा भव्य व विशाल थी। यहाँ की देवी प्रतिमा अंग्रेज अपने साथ लंदन ले गए, जो आज भी लंदन के संग्रहालय में मौजूद है। इस प्रतिमा की राजा भोज द्वारा आराधना की जाती थी। वर्ष में केवल एक बार बसंत पंचमी पर भोजशाला में माँ सरस्वती का तैलचित्र ले जाया जाता है, जिसकी आराधना होती है। बसंत पंचमी पर कई वर्षों से उत्सव आयोजित हो रहे हैं। इसके लिए एक समिति गठित है।

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केंद्रीय पुरातत्व विभाग के अधीन
भोजशाला ऐतिहासिक इमारत होने के नाते केंद्रीय पुरातत्व विभाग के अधीन होकर संरक्षित है। इस इमारत के लिए केंद्र सरकार के मंत्रालय ने विशेष निर्देश जारी कर रखे हैं, जिसके तहत यहाँ वर्ष में एक बार बसंत पंचमी के दिन हिंदू समाज को पूजा-अर्चना की अनुमति है। जबकि प्रति मंगलवार को हिंदू समाज के लोग अक्षत के कुछ दाने व पुष्प लेकर सूर्योदय से सूर्यास्त तक निःशुल्क प्रवेश कर प्रार्थना कर सकते हैं।

कैसे पहुँचें
मप्र के प्राचीन धार नगर में भोजशाला के अवलोकनार्थ बहुत ही आसानी से पहुँचा जा सकता है। प्रदेश की व्यापारिक राजधानी इंदौर से प्रति 15 मिनट में बस उपलब्ध है। 60 किमी दूर का यह सफर इंदौर से डेढ़ घंटे में पूरा हो जाता है। इंदौर-अहमदाबाद राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित धार नगरी पहुँचने के लिए रतलाम रेलवे जंक्शन से 92 किमी की दूरी है। मांडू आने वाले यात्रियों के लिए यह पहला पड़ाव होता है। जबकि गुजरात से इंदौर जाने वाले बस यात्रियों के लिए भी पूर्व का पड़ाव है। धार के बस स्टेंड से भोजशाला पैदल या ऑटो रिक्शा से बहुत आसानी से पहुँचा जा सकता है।
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