श्री लक्ष्मीनृसिंह चंदनोत्सव

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अक्षय तृतीया के पवित्र दिन (वैशाख मास) सिंहाचल पर्वत की छटा ही निराली होती है। इस पवित्र दिन यहाँ विराजमान श्री लक्ष्मीनृसिंह भगवान का चंदन से श्रृंगार किया जाता है। माना जाता है कि भगवान की प्रतिमा का वास्तविक स्वरूप केवल इसी दिन देखा जा सकता है। सिंहाचल क्षेत्र ग्यारहवीं सदी में बने विश्व के गिने-चुने प्राचीन मंदिरों में से एक माना जाता है।

‘सिंहाचल’ शब्द का अर्थ है सिंह का पर्वत। यह पर्वत भगवान विष्णु के चौथे अवतार प्रभु नृसिंह का निवास स्थान माना जाता है। माना जाता है कि इस स्थान पर भगवान नृसिंह अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा के लिए अवतरित हुए थे।

स्थल पुराण के अनुसार भक्त प्रहलाद ने ही इस स्थान पर नृसिंह भगवान का पहला मंदिर बनवाया था। भक्त प्रहलाद ने यह मंदिर नृसिंह भगवान द्वारा उनके पिता के संहार के पश्चात बनवाया था। परंतु कृतयुग के पश्चात इस मंदिर का रखरखाव नहीं हो सका और यह मंदिर गर्त में समा गया। कालांतर में लुनार वंश के पुरुरवा ने एक बार फिर इस मंदिर की खोज की और इसका पुनर्निर्माण करवाया।

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माना जाता है ऋषि पुरुरवा एक बार अपनी पत्नी उर्वशी के साथ वायु मार्ग से भ्रमण कर रहे थे। यात्रा के दौरान उनका विमान किसी नैसर्गिक शक्ति से प्रभावित होकर दक्षिण के सिंहाचल क्षेत्र में जा पहुँचा। उन्होंने देखा कि प्रभु की प्रतिमा धरती के गर्भ में समाहित है। उन्होंने इस प्रतिमा को निकाला और उस पर जमी धूल साफ की। इस दौरान एक आकाशवाणी हुई कि इस प्रतिमा को साफ करने के बजाय इसे चंदन के लेप से ढाँककर रखा जाए।

इस आकाशवाणी में उन्हें यह भी आदेश मिला कि इस प्रतिमा के शरीर से साल में केवल एक बार, वैशाख माह के तीसरे दिन चंदन का यह लेप हटाया जाएगा और वास्तविक प्रतिमा के दर्शन प्राप्त हो सकेंगे। आकाशवाणी का अनुसरण करते हुए इस प्रतिमा पर चंदन का लेप किया गया और साल में केवल एक बार ही इस प्रतिमा से लेप हटाया जाता है। तब से श्री लक्ष्मीनृसिंह स्वामी भगवान की प्रतिमा को सिंहाचल में ही स्थापित कर दिया गया।

मंदिर का महत्व -
आंध्रप्रदेश के विशाखापट्‍टनम में स्थित यह मंदिर विश्व के प्राचीन मंदिरों में से एक माना जाता है जिसका निर्माण पूर्वी गंगायो में तेरहवीं सदी में करवाया गया था। यह समुद्री तट से 800 फुट ऊँचा है और उत्तरी विशाखापट्‍टनम से 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

मंदिर पहुँचने का मार्ग अनन्नास, आम आदि फलों के पेड़ों से सजा हुआ है। मार्ग में राहगीरों के विश्राम के लिए हजारों की संख्या में बड़े पत्थर इन पेड़ों की छाया में स्थापित हैं। मंदिर तक चढ़ने के लिए सीढ़ी का मार्ग है, जिसमें बीच-बीच में तोरण बने हुए हैं।

  आकाशवाणी का अनुसरण करते हुए इस प्रतिमा पर चंदन का लेप किया गया और साल में केवल एक बार ही इस प्रतिमा से लेप हटाया जाता है।      
शनिवार और रविवार के दिन इस मंदिर में हजारों की तादाद में श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं। साथ ही यहाँ दर्शन करने के लिए सबसे उपयुक्त समय अप्रैल से जून तक का होता है। यहाँ पर मनाए जाने वाले मुख्य पर्व हैं वार्षिक कल्याणम (चैत्र शुद्ध एकादशी) तथा चंदन यात्रा (वैशाख माह का तीसरा दिन)।

कैसे पहुँचें
स्थल मार्ग - विशाखापट्‍टनम हैदराबाद से 650 और विजयवाड़ा से 350 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस स्थान के लिए नियमित रूप से हैदराबाद, विजयवाड़ा, भुवनेश्वर, चेन्नई और तिरुपति से बस सेवा उपलब्ध है।

रेल मार्ग - विशाखापट्‍टनम चेन्नई-कोलकाता रेल लाइन का मुख्य स्टेशन माना जाता है। साथ ही यह नई दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता और हैदराबाद से भी सीधे जुड़ा हुआ है।

वायु मार्ग- यह स्थान हैदराबाद, चेन्नई, कोलकता, नई दिल्ली और भुवनेश्वर से वायु मार्ग द्वारा सीधे जुड़ा हुआ है। इंडियन एयरलाइन्स की फ्लाइट इस स्थान के लिए सप्ताह में पाँच दिन चेन्नई, नई दिल्ली और कोलकाता से उपलब्ध है।

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