मुस्लिम देश में सैकड़ों सालों से जल रही है देवी माँ की ज्योत...

Webdunia
गुरुवार, 22 सितम्बर 2016 (12:20 IST)
पूर्वी यूरोप और एशिया के मध्य में बसा हुआ अजरबैजान एक मुस्लिम देश हैं। लेकिन, आप यह जानकर हैरान रह जाएंगे की अजरबैजान के सुराखानी में स्थित मां दुर्गा का 300 साल पुराना प्राचीन मंदिर है जहां सैंकड़ों साल से देवी माँ की अखंड ज्योत जल रही है। इस मंदिर में बीते कई सालों से जल रही पवित्र अग्नि के कारण इस मंदिर का नाम 'टेम्पल ऑफ फायर' रखा गया है।

 
मंदिर का वास्तु : मंदिर के चारों ओर पत्थरों से बनी कोठरी या गुफानुमा दीवार है। दरअसल बाहरी दीवारों के साथ कमरे बने हुए हैं जिनमें कभी उपासक रहा करते थे। इसमें एक पंचभुजा (पेंटागोन) अकार के अहाते के बीच में एक मंदिर है। मंदिर के गुंबद पर त्रिशूल स्थापित है। मंदिर के बीचोबीच अग्निकुंड में माता की अखंड ज्योत जल रही है जो सात छिद्रों से निकलती है। एक अग्निकुंड मंदिर के बाहर भी स्थित है।
 
उल्लेखनीय है कि भारत के राज्य हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा से 30 किलो मीटर दूर स्थित है ज्वालादेवी का मंदिर। ज्वालामुखी मंदिर को जोता वाली का मंदिर और नगरकोट भी कहा जाता है। मान्यता है यहाँ देवी सती की जीभ गिरी थी। यह मंदिर माता के अन्य मंदिरों की तुलना में अनोखा है क्योंकि यहाँ पर किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती है बल्कि पृथ्वी के गर्भ से निकल रही नौ ज्वालाओं की पूजा होती है। इन ज्वालाओं को सम्राट अकबर ने बुझाने का अथक प्रयास किया था लेकिन वह नहीं बुझा पाया था।
 
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मंदिर का इतिहास : ऐसा माना जाता हैं कई सौ सालों पहले जब व्यापारी इस रास्ते से होकर गुजरते थे। तो उन्होंने इस मंदिर का निर्माण कराया था। इतिहासकारों के अनुसार, इस मंदिर का निर्माण बुद्धदेव नाम के किसी शख्स ने करवाया था। वह हरियाणा के माजदा गांव के रहने वाले थे जो कुरुक्षेत्र के पास है।

मंदिर में स्थापित एक अन्य शिलालेख के अनुसार, उत्तमराज और शोभराज ने भी मंदिर के निर्माण में अहम भूमिका निभाई थी। इस रास्ते से होकर गुजरने वाले अधिकतर व्यापारी इस मंदिर में अपना मत्था जरूर टेकते थे। मंदिर के पास में ही बनी कोठरियों में ये व्यापारी विश्राम करते थे।
 
यहां से पुजारी 1860 ई. में चले गए। उसके बाद यहां पर कोई भी पुजारी के आने का अभी तक कोई भी विवरण उपलब्ध नहीं है। 1975 में इसे एक संग्राहलय बना दिया गया और अब इसे देखने हर वर्ष लगभग 15 हजार सैलानी आते हैं। 2007 में अज़रबैजान के राष्ट्रपति के आदेश से इसे एक राष्ट्रीय ऐतिहासिक-वास्तुशिल्पीय आरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया।
 
मंदिर मध्यकाल का है : प्राचीन वास्तुकला के अनुसार बने इस मंदिर की दीवारों पर गुरुमुखी में लेख अंकित हैं। एक शिलालेख है जिस पर संवत 1783 का उल्लेख किया गया है। एक और शिलालेख के मुताबित उत्तमचंद व शोभराज ने ही मंदिर का निर्माण में एक महान भूमिका अदा की थी। बाकू आतेशगाह की दीवारों में जड़ा एक शिलालेख, जिसकी पहली पंक्ति 'श्री गणेसाय नमः' से शुरू होती है और दूसरी ज्वालाजी (जवालाजी) को स्मरण करती है। इस पर विक्रम संवत 1802 की तिथि है जो 1745-46 ईस्वी के बराबर है।
 
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मंदिर पर विवाद : बताया जाता हैं कि ईरान के पारसी लोग भी यहां पूजा करते थे। उन्हीं के कारण इसे आतेशगाह भी कहते हैं। उनके अनुसार यह एक पारसी मंदिर है। हालांकि इस मंदिर पर एक त्रिशुल होने के कारण पारसी विद्वानों ने इसकी जांच करके इसे एक हिन्दू स्थल बताया है।
जोनस हैनवे (1712-1786) नामक एक 18वीं सदी के यूरोपीय समीक्षक ने पारसियों और हिन्दुओं को एक ही श्रेणी का बताते हुए कहा कि 'यह मत बहुत ही कम बदलाव के साथ प्राचीन भारतीयों और ईरानियों में, जिन्हें गेबेर या गौर कहते हैं। 'गेबेर' पारसियों के लिए एक फारसी शब्द है जबकि गौड़ हिन्दू ब्राह्मणों की एक जाति होती है।

चित्र साभार : यूट्यूब
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