भारत के 12 शापित स्थान, जानिए कौन से...

Webdunia
बुधवार, 16 सितम्बर 2015 (00:02 IST)
दुनियाभर में ऐसे कई स्थान है जिन्हें शापित माना जाता है। अर्थात किसी शाप के चलते अब यह या तो भुतहा है या फिर उजाड़ पड़े हैं। हालांकि ऐसे भी स्थान है जो किसी शाप के चलते अब एक तीर्थ बन गए हैं।
बहुत लोगों का मानना है कि इस जगह जाने से हमारा अहित हो सकता है और कुछ यहां अपने रोमांच के लिए जाते हैं। हालांकि कुछ ऐसे भी स्थान है जो शापित तो नहीं है, लेकिन किस न किसी शाप से जुड़े हैं और जहां जाकर व्यक्ति अपने पापों से मुक्त हो सकता है।
 
आओ जानते हैं कि भारत में कहां-कहां स्थित है ऐसे शापित स्थान जहां आज भी शाप का असर कायम है। शापित होने का मतलब यह नहीं की यह स्थान बुरे हैं। यहां आज भी हजारों की तादाद में लोग जाते हैं।
 
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जमीन में दफन शापित नगरी : मध्यप्रदेश के देवास जिले के गांव गंधर्वपुरी को शापित गांव माना जाता है। यह गांव प्राचीनकाल में राजा गंधर्वसेन के शाप से पूरा पाषाण में बदल गया था। यहां का हर व्यक्ति, पशु और पक्षी सभी शाप से पत्थर के हो गए थे। फिर एक 'धूकोट' (धूलभरी आंधी) चला, जिससे यह पूरी नगरी जमीन में दफन हो गई।
 
देवास की सोनकच्छ तहसील में स्थित है एक ऐसा गांव जो भारत के बौद्धकालीन इतिहास का गवाह है। इस गांव का नाम पहले चंपावती था। चंपावती के पुत्र गंधर्वसेन के नाम पर बाद में गंधर्वपुरी हो गया। आज भी इसका नाम गंधर्वपुरी है।
 
जनश्रुति के अनुसार यहां मालव क्षत्रप गंधर्वसेन, जिन्हें गर्धभिल्ल भी कहते थे, के शाप से पूरी गंधर्व नगरी पाषाण की हो गई थी। राजा गंधर्वसेन के बारे में अनेकानेक किस्से प्रचलित हैं, लेकिन इस स्थान से जुड़ी कहानी कुछ अजीब ही है। कहते हैं कि गंधर्वसेन ने चार विवाह किए थे। उनकी पत्नियां चारों वर्णों से थीं। क्षत्राणी से उनके तीन पुत्र हुए सेनापति शंख, राजा विक्रमादित्य तथा ऋषि भर्तृहरि।
 
यहां के स्थानीय निवासी कमल सोनी बताते हैं कि यह बहुत ही प्राचीन नगरी है। यहां आज भी जिस जगह पर भी खुदाई होती है वहां से मूर्ति निकलती है।
 
बताते हैं कि इस नगरी के राजा की पुत्री ने राजा की मर्जी के खिलाफ गधे के मुख के गंधर्वसेन से विवाह रचाया था। गंधर्वसेन दिन में गधे और रात में गधे की खोल उतारकर राजकुमार बन जाते थे। जब एक दिन राजा को इस बात का पता चला तो उन्होंने रात को उस चमत्कारिक खोल को जलवा दिया, जिससे गंधर्वसेन भी जलने लगे तब जलते-जलते उन्होंने राजा सहित पूरी नगरी को शाप दे दिया कि जो भी इस नगर में रहते हैं, वे पत्थर के हो जाएं।
 
गंधर्वसेन गधे क्यों हुए और वे कौन थे यह एक लम्बी दास्तान है। इस संबंध में हमने गांव के सरपंच विक्रमसिंह चौहान से बात की, तो उन्होंने कहा कि यह सही है कि इस गांव के नीचे एक प्राचीन नगरी दबी हुई है। यहां हजारों मूर्तियां हैं।
 
यहां पर 1966 में एक संग्रहालय का निर्माण किया गया, जहां कुछ खास मूर्तियां एकत्रित ‍कर ली गई हैं। संग्रहालय के केयर टेकर रामप्रसाद कुंडलिया बताते हैं कि उस खुले संग्रहालय में अब तक 300 मूर्तियों को संग्रहित किया गया। इसके अलावा अनेक मूर्तियां राजा गंधर्वसेन के मंदिर में हैं और अनेक नगर में यहां-वहां बिखरी पड़ी हैं।
 
जमीन की खुदाई के दौरान यहां आज भी बुद्ध, महावीर, विष्‍णु के अलावा ग्रामीणों की दिनचर्या के दृश्यों से सजी मोहक मूर्तियां मिलती रहती हैं। ग्रामीणों की सूचना के बाद उन्हें संग्रहालय में रख दिया जाता है। स्थानीय निवासी बताते हैं क‍ि यहां से सैकड़ों मूर्तियां लापता हो गई हैं। खैर, अब आप ही तय करें क‍ि आखिर इस ऐतिहासिक नगरी का सच क्या है। 
 
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शापित किराडु शहर : अब इसे आप चमत्कार कहें या अंधविश्‍वास, लेकिन एक शहर में एक ऐसा भी स्थान हैं, जहां जाकर लोग हमेशा-हमेशा के लिए पत्थर बन जाते हैं। कोई कहता है कि इस शहर पर किसी भूत का साया है तो कोई कहता है कि इस शहर पर एक साधु के शाप का असर है, यहां के सभी लोग उसके शाप के चलते पत्थर बन गए थे और यही वजह है कि आज भी उस शाप के डर के चलते लोग वहां नहीं जाते हैं। लोगों में अब वहम बैठ गया है। राजस्थान में बाड़मेर के पास किराडु शहर का आखिर सच क्या है?
 
कहते हैं कि राजस्थान के बाड़मेर के पास एक ऐसा गांव है, जहां के मंदिरों के खंडहरों में रात में कदम रखते ही लोग हमेशा-हमेशा के लिए पत्थर बन जाते हैं। यह कोई शाप है, जादू है, चमत्कार है या भूतों की हरकत- कोई नहीं जानता। हालांकि किसी ने यह जानने की हिम्मत भी नहीं की कि क्या सच में यहां रात रुकने पर वह पत्थर बन जाएगा? कौन ऐसी रिस्क ले सकता है? तभी तो आज तक इसका रहस्य बरकरार है। कैसे जान पाएगा कोई कि अगर ऐसा होता है तो इसके पीछे कारण क्या है? भारत में शोध और रिसर्च को न तो बढ़ावा दिया जाता और न ही सरकार इस पर कोई खर्च करती है, तो आज भी देश का इतिहास इसी तरह खंडहरों में दफन है।
 
बाड़मेर (राजस्थान) का किराडु शहर ऐसे ही किसी रहस्य को अपने भीतर दफन किए हुए है। कहते हैं कि एक समय था, जब यह स्थान भी आम जगहों की तरह चहल-पहल से भरा था और लोग यहां खुशहाल जीवन जी रहे थे। यहां हर तरह की सुख-सुविधाएं मौजूद थीं, लेकिन एक दिन अचानक इस शहर की किस्मत बदल गई। कहना चाहिए कि इस पर वज्रपात हुआ और सभी अपना जीवन खो बैठे।
 
मान्यता है कि इस शहर पर एक साधु का शाप लगा हुआ है। यह लगभग 900 साल पहले की बात है, जबकि यहां परमारों का शासन था। तब इस शहर में एक सिद्ध संत ने डेरा डाला। कुछ दिन रहने के बाद जब वे संत तीर्थ भ्रमण पर निकले तो उन्होंने अपने साथियों को स्थानीय लोगों के सहारे छोड़ दिया कि आप इनको भोजन-पानी देना और इनकी सुरक्षा करना।
 
संत के जाने के बाद उनके सारे शिष्य बीमार पड़ गए और बस एक कुम्हारिन को छोड़कर अन्य किसी भी व्यक्ति ने उनकी सहायता नहीं की। बहुत दिनों के बाद जब संत पुन: उस शहर में लौटे तो उन्होंने देखा कि मेरे सभी शिष्य भूख से तड़प रहे हैं और वे बहुत ही बीमार अवस्था में हैं। यह सब देखकर संत को बहुत क्रोध आया।
 
उस सिद्ध संत ने कहा कि जिस स्थान पर साधुओं के प्रति दयाभाव ही नहीं है, तो अन्य के साथ क्या दयाभाव होगा? ऐसे स्थान पर मानव जाति को नहीं रहना चाहिए। उन्होंने क्रोध में अपने कमंडल से जल निकाला और हाथ में लेकर कहा कि जो जहां जैसा है, शाम होते ही पत्‍थर बन जाएगा। उन्होंने संपूर्ण नगरवासियों को पत्थर बन जाने का शाप दे दिया
 
फिर उन्होंने जिस कुम्हारिन ने उनके शिष्यों की सेवा की थी, उसे बुलाया और कहा कि तू शाम होने से पहले इस शहर को छोड़ देना और जाते वक्त पीछे मुड़कर मत देखना। कुम्हारिन शाम होते ही वह शहर छोड़कर चलने लगी लेकिन जिज्ञासावश उसने पीछे मुड़कर देख लिया तो कुछ दूर चलकर वह भी पत्थर बन गई। इस शाप के चलते पूरा गांव आज पत्थर का बना हुआ है। जो जैसा काम कर रहा था, वह तुरंत ही पत्थर का बन गया।
 
इस शाप के कारण ही आस-पास के गांव के लोगों में दहशत फैल गई जिसके चलते आज भी लोगों में यह मान्यता है कि जो भी इस शहर में शाम को कदम रखेगा या रुकेगा, वह भी पत्थर का बन जाएगा।
 
किराडु के मंदिरों का निर्माण किसने कराया इस बारे में कोई तथ्य मौजूद नहीं है। यहां पर पर विक्रम शताब्दी 12 के तीन शिलालेख उपलब्ध हैं। पहला शिलालेख विक्रम संवत 1209 माघ वदी 14 तदनुसार 24 जनवरी 1153 का है जो कि गुजरात के चालुक्य कुमार पाल के समय का है। दूसरा विक्रम संवत 1218, ईस्वी 1161 का है जिसमें परमार सिंधुराज से लेकर सोमेश्वर तक की वंशावली दी गई है और तीसरा यह विक्रम संवत 1235 का है जो गुजरात के चालुक्य राजा भीमदेव द्वितीय के सामन्त चौहान मदन ब्रह्मदेव का है। इतिहासकारों का मत है कि किराडु के मंदिरों का निर्माण 11वीं शताब्दी में हुआ था तथा इनका निर्माण परमार वंश के राजा दुलशालराज और उनके वंशजों ने किया था।
 
यहां मुख्यत: पांच मंदिर है जिसमें से केवल विष्णु मंदिर और सोमेश्वर मंदिर ही ठीक हालत में है। बाकी तीन मंदिर खंडहरों में बदल चुके हैं।
 
खजुराहो के मंदिरों की शैली में बने इन मंदिरों की भव्यता देखते ही बनती है। हालांकि आज यह पूरा क्षेत्र विराने में बदल गया है लेकिन यह पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। इन मंदिरों को क्यों बनाया गया और इसके पीछे इनका इतिहास क्या रहा है इस सब पर शोध किए जाने की आवश्यकता है।
 
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भानगढ़ का किला : भानगढ़ : भानगढ़ राजस्थान के अलवर जिले में सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान के पास स्थित एक एक शहर है। हालांकि इस शहर में कोई नहीं रहता है क्योंकि अब यह शहर पूरा का पूरा खंडहर में बदल चुका है। यहां का एक किला और महल सबसे ज्याता शापित माने जाते हैं। भानगढ़ के किले को आमेर के राजा भगवानदास ने 1573 ई. में बनवाया था।

यहां बाजार, गलियां, हवेलियां, महल, कुएं और बावड़िया तथा बाग-बगीचे आदि सब कुछ हैं, लेकिन सब के सब खंडहर हैं। जैसे एक ही रात में सब कुछ उजड़ गया हो। पूरे शहर में एक भी घर या हवेली ऐसी नहीं है, जिस पर छत हो, लेकिन मंदिरों के शिखर आत्ममुग्ध खड़े दिखाई देते हैं।
 
गुरु बालू का शाप : कहते हैं कि भानगढ़ में एक गुरु बालूनाथ रहते थे। उन्होंने भानगढ़ के महल के मूल निर्माण की मंजूरी दी थी लेकिन साथ ही यह चेतावनी भी दी थी कि महल की ऊंचाई इतनी रखी जाए कि उसकी छाया उनके ध्यान स्थान से आगे न निकले अन्यथा पूरा नगर ध्वस्त हो जाएगा। बालूनाथ की ये चेतावनी किसी ने सुनी नहीं और राजवंश के राजा अजब सिंह ने उस महल की ऊंचाई बढ़ा दी जिससे की महल की छाया ने गुरु बालूनाथ के ध्यान स्थान को ढंक लिया और तभी से यह महल शापित हो गया।
 
तंत्रिक का शाप : एक अन्य किंवदंति के अनुसार अरावली की पहाडि़यों में सिंघिया नाम का तांत्रिक अपने तंत्र-मंत्र और टोटकों के लिए जाना जाता था। कहते हैं कि वह मन ही मन भानगढ़ की राजकुमारी रत्नावती को चाहने लगा था। राजकुमारी को पाने के लिए उसने सिर में लगाने वाले तेल को अभिमंत्रित कर दिया था। कहा जाता है कि रत्नावली भी तंत्र-मंत्र और टोटके की जानकार थी। उसने अपनी शक्ति से तेल के टोटके को पहचान लिया और तेल एक बड़ी शिला पर डाल दिया। इस प्रयोग के बाद शिला तांत्रिक की ओर उड़ चली। चट्टान को अपनी ओर आते देख तांत्रिक क्रोधित हो गया।
 
उसने शिला से कुचलकर मरने से पहले एक और तंत्र किया और शिला को समूचे भानगढ़ को बर्बाद करने का आदेश दिया। चट्टान ने रातों-रात भानगढ़ के महल, बाजारों और घरों को खंडहर में तब्दील कर दिया। लेकिन मंदिरों और धार्मिक स्थानों पर तांत्रिक का तंत्र नहीं चला और मंदिरों के शिखर ध्वस्त होने से बच गए।
 
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असीरगढ़ का किला : कहते हैं यहाँ स्थित शिव मंदिर में महाभारतकाल के अश्वत्थामा आज भी पूजा-अर्चना करने आते हैं। असीरगढ़ का किला मध्यप्रदेश के बुरहानपुर शहर से 20 किलोमीटर दूर है। कहते हैं कि जो एक बार अश्वत्थामा को देख लेता है, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है।
ब्रह्मास्त्र चलाने के बारण भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को कलियुग में एक निश्‍चित तिथि तक भटकते रहने का शाप दे दिया था। यही कारण है कि पिछले लगभग पांच हजार वर्षों से अश्वत्थामा आज भी भटक रहे हैं। उनके बारे में कई जगहों पर उनके देखे जाने की जनश्रुतियां प्रचलित है उसी में से एक असीरगढ़ का किला सबसे ज्यादा प्रचलित है। 
 
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शापित है कृष्ण का गोवर्धन पर्वत : गोवर्धन पर्वत को गिरिराज पर्वत भी कहा जाता है। पांच हजार साल पहले यह गोवर्धन पर्वत 30 हजार मीटर ऊंचा हुआ करता था और अब शायद 30 मीटर ही रह गया है। पुलस्त्य ऋषि के शाप के कारण यह पर्वत एक मुट्ठी रोज कम होता जा रहा है। इसी पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी चींटी अंगुली पर उठा लिया था। श्रीगोवर्धन पर्वत मथुरा से 22 किमी की दूरी पर स्थित है।
पौराणिक मान्यता अनुसार श्रीगिरिराजजी को पुलस्त्य ऋषि द्रौणाचल पर्वत से ब्रज में लाए थे। दूसरी मान्यता यह भी है कि जब रामसेतुबंध का कार्य चल रहा था तो हनुमानजी इस पर्वत को उत्तराखंड से ला रहे थे, लेकिन तभी देववाणी हुई की सेतुबंध का कार्य पूर्ण हो गया है, तो यह सुनकर हनुमानजी इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की ओर पुन: लौट गए।
 
क्यों उठाया गोवर्धन पर्वत : इस पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी चींटी अंगुली से उठा लिया था। कारण यह था कि मथुरा, गोकुल, वृंदावन आदि के लोगों को वह अति जलवृष्टि से बचाना चाहते थे। नगरवासियों ने इस पर्वत के नीचे इकठ्ठा होकर अपनी जान बचाई। अति जलवृष्टि इंद्र ने कराई थी। लोग इंद्र से डरते थे और डर के मारे सभी इंद्र की पूजा करते थे, तो कृष्ण ने कहा था कि आप डरना छोड़ दे...मैं हूं ना।
 
परिक्रमा का महत्व : सभी हिंदूजनों के लिए इस पर्वत की परिक्रमा का महत्व है। वल्लभ सम्प्रदाय के वैष्णवमार्गी लोग तो इसकी परिक्रमा अवश्य ही करते हैं क्योंकि वल्लभ संप्रदाय में भगवान कृष्ण के उस स्वरूप की आराधना की जाती है जिसमें उन्होंने बाएं हाथ से गोवर्धन पर्वत उठा रखा है और उनका दायां हाथ कमर पर है।
 
इस पर्वत की परिक्रमा के लिए समूचे विश्व से कृष्णभक्त, वैष्णवजन और वल्लभ संप्रदाय के लोग आते हैं। यह पूरी परिक्रमा 7 कोस अर्थात लगभग 21 किलोमीटर है।
 
परिक्रमा मार्ग में पड़ने वाले प्रमुख स्थल आन्यौर, जातिपुरा, मुखार्विद मंदिर, राधाकुंड, कुसुम सरोवर, मानसी गंगा, गोविन्द कुंड, पूंछरी का लौठा, दानघाटी इत्यादि हैं। गोवर्धन में सुरभि गाय, ऐरावत हाथी तथा एक शिला पर भगवान कृष्ण के चरण चिह्न हैं।
 
परिक्रमा की शुरुआत वैष्णवजन जातिपुरा से और सामान्यजन मानसी गंगा से करते हैं और पुन: वहीं पहुंच जाते हैं। पूंछरी का लौठा में दर्शन करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि यहां आने से इस बात की पुष्टि मानी जाती है कि आप यहां परिक्रमा करने आए हैं। यह अर्जी लगाने जैसा है। पूंछरी का लौठा क्षेत्र राजस्थान में आता है।
 
वैष्णवजन मानते हैं कि गिरिराज पर्वत के ऊपर गोविंदजी का मंदिर है। कहते हैं कि भगवान कृष्ण यहां शयन करते हैं। उक्त मंदिर में उनका शयनकक्ष है। यहीं मंदिर में स्थित गुफा है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह राजस्थान स्थित श्रीनाथद्वारा तक जाती है।
 
गोवर्धन की परिक्रमा का पौराणिक महत्व है। प्रत्येक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक लाखों भक्त यहां की सप्तकोसी परिक्रमा करते हैं। प्रतिवर्ष गुरु पूर्णिमा पर यहां की परिक्रमा लगाने का विशेष महत्व है। श्रीगिरिराज पर्वत की तलहटी समस्त गौड़ीय सम्प्रदाय, अष्टछाप कवि एवं अनेक वैष्णव रसिक संतों की साधाना स्थली रही है।
 
अब बात करते हैं पर्वत की स्थिति की। क्या सचमुच ही पिछले पांच हजार वर्ष से यह स्वत: ही रोज एक मुठ्ठी खत्म हो रहा है या कि शहरीकरण और मौसम की मार ने इसे लगभग खत्म कर दिया। आज यह कछुए की पीठ जैसा भर रह गया है।
 
हालांकि स्थानीय सरकार ने इसके चारों और तारबंदी कर रखी है फिर भी 21 किलोमीटर के अंडाकार इस पर्वत को देखने पर ऐसा लगता है कि मानो बड़े-बड़े पत्‍थरों के बीच भूरी मिट्टी और कुछ घास जबरन भर दी गई हो। छोटी-मोटी झाड़ियां भी दिखाई देती है।
 
पर्वत को चारों तरफ से गोवर्धन शहर और कुछ गांवों ने घेर रखा है। गौर से देखने पर पता चलता है कि पूरा शहर ही पर्वत पर बसा है, जिसमें दो हिस्से छूट गए है उसे ही गिर्राज (गिरिराज) पर्वत कहा जाता है। इसके पहले हिस्से में जातिपुरा, मुखार्विद मंदिर, पूंछरी का लौठा प्रमुख स्थान है तो दूसरे हिस्से में राधाकुंड, गोविंद कुंड और मानसी गंगा प्रमुख स्थान है।
 
बीच में शहर की मुख्य सड़क है उस सड़क पर एक भव्य मंदिर हैं, उस मंदिर में पर्वत की सिल्ला के दर्शन करने के बाद मंदिर के सामने के रास्ते से यात्रा प्रारंभ होती है और पुन: उसी मंदिर के पास आकर उसके पास पीछे के रास्ते से जाकर मानसी गंगा पर यात्रा समाप्त होती है।
 
मानसी गंगा के थोड़ा आगे चलो तो फिर से शहर की वही मुख्य सड़क दिखाई देती है। कुछ समझ में नहीं आता कि गोवर्धन के दोनों और सड़क है या कि सड़क के दोनों और गोवर्धन? ऐसा लगता है कि सड़क, आबादी और शासन की लापरवाही ने खत्म कर दिया है गोवर्धन पर्वत को। 
 
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राजा जगतपाल सिंह का शापित किला : झारखण्ड की राजधानी से 18 किलोमीटर की दुरी पर रांची-पतरातू मार्ग के पिठौरिया गांव में 2 शताब्दी पुराना राजा जगतपाल सिंह का किला स्थित है। यह 100 कमरों वाला विशाल महल अब खंडहर में परिवर्तित हो चुका है। इसके खंडहर में परिवर्तित होने का कारण इस किले पर हर साल बिजली गिरना है। 
 
आश्चर्य जनक रूप से इस किले पर दशकों से हर साल बिजली गिरती आ रही है जिससे की हर साल इसका कुछ हिस्सा टूट कर गिर जाता है। दशकों से ऐसा होते रहने के कारण यह किला अब बिलकुल खंडहर हो चुका है।
 
ग्रामिणों के अनुसार इस किले पर हर साल बिजली एक क्रांतिकारी द्वारा राजा जगतपाल सिंह को दिए गए शाप के कारण गिरती है।  वैसे तो बिजली गिरना एक प्राकृति घटना है, लेकिन एक ही जगह पर दशकों से लगातार बिजली गिरना अवश्य ही आश्चर्यजनक है।
 
कौन थे राजा जगतपाल सिंह? इतिहासकारों के अनुसार पिठौरिया प्रारम्भ से ही मुंडा और नागवंशी राजाओं का प्रमुख केंद्र रहा है। यह इलाका 1831-32 में हुए कौल विद्रोह के कारण इतिहास में जाना जाता है। पिठौरिया के राजा जगतपाल सिंह ने अपने क्षेत्र का विकास कर उसे व्यापार और संस्कृति का प्रमुख केंद्र बना दिया था। वो अपने क्षेत्र की जनता में काफी लोकप्रिय थे लेकिन उनकी कुछ गलतीयों ने उनका नाम इतिहास में खलनायकों और गद्दारों की सूचि में शामिल करवा दिया।
 
सबसे पहली गलती तो उन्होंने 1831 के विद्रोह के समय की। 1831 में सिंदराय और बिंदराय के नेतृत्व में आदिवासियों ने आंदोलन किया था लेकिन यहां की भौगोलिक परस्तिथियों से अनजान अंग्रेज विद्रोह को दबा नहीं पा रह थे। इसलिए अंग्रेज अधिकारी विलकिंगसन ने राजा जगतपाल सिंह के पास सहायता का संदेश भिजवाया जिसे की जगतपाल सिंह ने स्वीकार करते हुए अंग्रेजों की मदद की। उनकी इस मदद के बदले तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम वैंटिक ने उन्हें 313 रुपए प्रतिमाह आजीवन पेंशन दी। दूसरा और सबसे बड़ा गुनाह उन्होंने 1857 की क्रांति में किया।
 
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों को रोकने के लिए उन्होंने पिठौरिया घाटी की घेराबंदी की थी, ताकि क्रांतिकारी अपने मकसद में सफल न हो सके। इतना ही नहीं वे क्रांतिकारियों की हर गतिविधियों की जानकारी अंग्रेज तक पहुंचाते थे। इससे राज्य में राजा के प्रति नाराजगी अपने चरम पर पहुंच गई। उनकी गद्दारी के चलते ही उस समय क्रांतिकारी ठाकुर विश्वनाथ नाथ शाहदेव उन्हें सबक सिखाने पिठौरिया पहुंचे और उन पर आक्रमण किया। बाद में वे गिरफ्तार हो गए और जगतपाल सिंह की गवाही के कारण उन्हें 16 अप्रैल 1858 को रांची जिला स्कूल के सामने कदम्ब के वृक्ष पर फांसी पर लटका दिया गया। जानकार बताते हैं कि उनकी ही गवाही पर कई अन्य क्रांतिकारियों को भी फांसी पर लटकाने का काम किया गया। 
 
लोकमान्यता है कि विश्वनाथ शाहदेव ने जगतपाल सिंह को अंग्रेजों का साथ देने और देश के साथ गद्दारी करने पर यह शाप दिया कि आने वाले समय में जगतपाल सिंह का कोई नाम लेवा नहीं रहेगा और उसके किले पर हर साल उस समय तक वज्रपात होता रहेगा, जब तक यह किला पूरी तरह बर्बाद नहीं हो जाता। तब से हर साल पिठौरिया स्थित जगतपाल सिंह के किले पर वज्रपात हो रहा है।
 
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देवास का दुर्गा मंदिर : इस मंदिर के बारे लोगों की अलग-अलग मान्यताएं हैं। कोई कहता है यह मंदिर जाग्रत है तो कुछ का मानना है शापित। किसी का दावा है कि यहां की देवी भोग में बलि लेती हैं तो कुछ कहते हैं कि यहां एक महिला की आत्मा भटकती है। जी हां, जितने मुंह, उतनी बातें। मध्यप्रदेश के देवास जिले में स्थित इस ऐतिहासिक दुर्गा मंदिर से कई किंवदंतियां जुड़ी हुई हैं।
कहा जाता है कि देवास के महाराजा ने इस मंदिर का निर्माण कराया था लेकिन मंदिर निर्माण के बाद से ही राजघराने में अशुभ घटनाएं घटने लगीं। पारिवारिक कलह होने लगे। स्थानीय लोग बताते हैं कि यहां की राजकुमारी के राज्य के सेनापति से प्रेम संबंध थे जो राजा को नागवार गुजरे। उसके बाद रहस्यमय परिस्थितियों में राजकुमारी की मृत्यु हो गई वहीं सेनापति ने भी मंदिर परिसर में आत्महत्या कर ली।
 
इसके बाद राजपुरोहित ने राजा को सलाह दी कि मंदिर अपवित्र हो चुका है। मंदिर में प्रतिष्ठित मूर्ति को यहां से हटाकर कहीं और स्थापित कर दिया जाए। इसके बाद राजा ने मां की मूर्ति को पूरे सम्मान के साथ उज्जैन के बडे़ गणेश मंदिर में स्थापित करवा दिया और मां की एक प्रतिमूर्ति को रिक्त स्थान पर रख दिया गया। लेकिन इसके बाद भी इस मंदिर में होने वाली अजीबोगरीब घटनाओं में किसी तरह की कोई कमी नहीं आई।
 
यहां के स्थानीय रहवासियों का कहना है कि इस मंदिर से अजीबोगरीब तरह की आवाजें आती हैं। कभी शेर के दहाड़ने की आवाजें आती हैं तो कभी घंटों का नाद सुनाई देता है। कभी सफेद वस्त्रों में लिपटी महिला की परछाई यहां डोलती नजर आती है। यहां के लोग दिन ढलने के बाद इस मंदिर की ओर रुख करने से डरते हैं।
 
मंदिर में लगातार दर्शन करने आने वाले श्रद्धालुओं में से एक संजय शलगावकर ने हमें बताया कि इस मंदिर में गलत इरादे से आने वाले व्यक्तियों का हमेशा अहित होता है। कुछ लोगों ने मंदिर की जमीन को दूसरे उपयोग में लाने के लिए मंदिर को ध्वस्त करने की कोशिश की लेकिन वे कामयाब नहीं हो पाए। मंदिर को ध्वस्त करने में लगे सभी लोगों के साथ अजीबोगरीब घटनाएं हुईं। यहां काम कर रहे मजदूरों को गुंबद से आग निकलती दिखाई दी। इसके बाद मंदिर को तोड़ने का काम बीच में ही रोक दिया गया। अब यह मंदिर सुनसान पड़ा रहता है।
 
संजय बताते हैं कि मंदिर का एकांत देखकर यदि कोई व्यक्ति यहां अनैतिक कृत्य करने की कोशिश करता है तो उसे शारीरिक कष्ट उठाना ही पड़ता है। हमारे सामने ऐसे अनेक वाकये हुए हैं।
 
अब ये किस्से सच हैं या अफवाह! इस बारे में दावे से कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन मंदिर से जुड़े अजीबोगरीब किस्सों के कारण इस मंदिर की सुध कोई नहीं लेता। मंदिर के वास्तु को देखकर लगता है कि यह मंदिर कभी काफी खूबसूरत रहा होगा लेकिन अब यह खण्डहर में तब्दील होता जा रहा है।
 
कुछ लोग आस्थावश यहां दर्शन के लिए आते हैं लेकिन एक कल्पित डर के चलते वे भी दिन ढलने से पहले ही मंदिर परिसीमा से बाहर निकल जाते हैं। आप इस संबंध में क्या सोचते हैं, हमें बताइएगा?
 
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टौंस नदी : वैसे भारत सरकार और लोगों ने मिलकर भारत की लगभग सभी प्रमुख नदियों की हत्या कर दी है। नदियों पर पर डैम बनाकर, उसमें कचरा फैंककर और उससे रेत निकालकर जो कार्य भारत के लोग कर रहे हैं उससे एक दिन उनको पछताने का मौका भी नहीं मिलेगा और एक दिन सभी प्यासे ही मारे जाएंगे। खैर..
 
हम बात कर रहे हैं हिमाचल और उत्तराखंड में बहने वाली निर्मल टौंस नदी की। इस नदी पर 8 हजार करोड़ रुपए की लागत से एक डैम बनाया जा रहा है। जिसे किशाऊ बांध विद्युत परियोजना कहते हैं। इस परियोजना से 660 मैगावॉट बिजली का उत्पादन होना है। डैम के निर्माण से यह भी सपना देखा गया है कि इससे 97 हजार 76 हैक्टेयर भूमि सिंचित होगी। लेकिन सच्चाई यह है कि इस नदी के एक भी बूंद पानी से न तो सिंचाई हो पाई और न ही पेयजल उपलब्ध हो पाया। विद्युत उत्पादन का तो मालूम नहीं। हालांकि नदी की स्वाभाविक गति रुकने लगी है जिसके चलते कई जलचर जंतु की मौत हो चुकी है।
 
ऐसी धारणा है कि यह एक शापित नदी है। इसका पानी हिमाचल में इस्तेमाल आज तक नहीं हुआ है। उत्तराखंड की सीमा में यह नदी रूपन व शूपन खड्डों से मिल कर बनती है। त्यूणी नामक स्थान पर यह नदी पब्बर में मिल जाती है। लोकमान्यता अनुसार इस नदी को ‘तमसा’ नदी भी कहा जाता है। 
 
कहते हैं कि यमुना नदी ने टौंस को शाप दिया था कि उसका पानी कहीं पर भी इस्तेमाल नहीं होगा। टौंस नदी पहले डाकपत्थर में जलाशा पीर पहुंची थी, इसी से नाराज यमुना ने उसे शाप दिया था। इस नदी के इतिहास को महाभारत में पांडवों के वनवास से भी जोड़ा जाता है। 
 
सदियों से इस नदी को लेकर माना जाता है कि इसका पानी जन उपयोग के काम नहीं आ सकता। हालांकि केवल एक अवधारणा भी हो सकती है क्योंकि शिमला व सिरमौर जिलों के जिन हिस्सों को यह उत्तराखंड से बांटती है, वहां की भौगोलिक परिस्थितियां भी जटिल है। किशाऊ डैम की साइट रोहनाट उप तहसील में आती है। इसी क्षेत्र तक नदी का एक बूंद पानी भी कहीं इस्तेमाल नहीं हुआ है।
 
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पुष्कर : पुष्कर वैसे तो शापित स्थान नहीं है लेकिन यह एक शाप के चलते भारत में ब्रह्मा का एक मात्र स्थान बन गया। यह स्थान राजस्थान में स्थित है जहां दुनिया भर से लोग यहां की पुष्कर झील में स्नान करने आते हैं।
 
ऐतिहासिक तौर पर यह माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 14वीं शताब्दी में हुआ था, लेकिन पौराणिक मान्यता के अनुसार यह मंदिर लगभग 2000 वर्ष प्राचीन है। हालांकि पौराणिक मान्यता अनुसार पुष्कर नगर लगभग 7 हजार वर्ष पुराना है। 
 
यहां संगमरमर और पत्थर से बना यह ब्रह्मा मंदिर पुष्कर झील के पास स्थित है जिसका शिखर लाल रंग से रंग हुआ है। इस मंदिर के केंद्र में भगवान ब्रह्मा के साथ उनकी दूसरी पत्नी गायत्री कि प्रतिमा भी स्थापित है। इस मंदिर का यहां की स्थानीय गुर्जर समुदाय से विशेष लगाव है। मंदिर की देख-रेख में लगे पुरोहित वर्ग भी इसी समुदाय के लोग हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान ब्रह्मा की दूसरी पत्नी गायत्री भी गुर्जर समुदाय से थीं।
 
हिन्दू धर्मग्रन्थ पद्म पुराण के मुताबिक धरती पर वज्रनाश नामक राक्षस ने उत्पात मचा रखा था। ब्रह्माजी ने जब उसका वध किया तो उनके हाथों से तीन जगहों पर पुष्प गिरा, इन तीनों जगहों पर तीन झीलें बनी। इसी घटना के बाद इस स्थान का नाम पुष्कर पड़ा। इस घटना के बाद ब्रह्मा ने यज्ञ करने का फैसला किया। पूर्णाहुति के लिए उनके साथ उनकी पत्नी सरस्वती का साथ होना जरुरी था लेकिन उनके न मिलने की वजह से उन्होंने गुर्जर समुदाय की एक कन्या ‘गायत्री’ से विवाह कर इस यज्ञ को पूर्ण किया, लेकिन उसी दौरान देवी सरस्वती वहां पहुंची और ब्रह्मा के बगल में दूसरी कन्या को बैठा देख क्रोधित हो गईं।
 
उन्होंने ब्रह्माजी को शाप दिया कि देवता होने के बावजूद कभी भी उनकी पूजा नहीं होगी, हालांकि बाद में इस शाप के असर को कम करने के लिए उन्होंने यह वरदान दिया कि एक मात्र पुष्कर में उनकी उपासना संभव होगी।
 
एक दूसरी कथा के अनुसार भगवान शंकर ने एक स्तंभ खड़ा किया जिसके आदि और अंत को ढूंढने का जब प्रश्न खड़ा हुआ तो भगवान विष्णु उसके नीचे गए और ब्रह्मा ऊपर गए। जब विष्णु लौटे तो उन्होंने मार्ग में उन्होंने जो जो देखा उसे सच सच कहा और अंत में कहा कि इसका कोई प्रारंभ नजर नहीं आता। इस तरह जब शिवजी ने ब्रह्मा से पूछा तो उन्होंने झूठ कह दिया कि हां मैंने इसका अंत देखा है। इस झूठ के कारण ही उनको शाप मिला की दुनिया में कहीं भी आपकी पूजा नहीं होगी।
 
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शापित गांव कुलधारा : राजस्थान के जैसलमेर जिले का कुलधरा गांव आज भी शापित माना जाता है। यह गांव पिछले 170 सालों से वीरान पड़ा है। कहते हैं कि कुलधरा गांव के हजारों लोग एक ही रात में इस गांव को खाली कर के चले गए थे और जाते-जाते शाप दे गए थे कि यहां फिर कभी कोई नहीं बस पाएगा। तब से गांव वीरान पड़ा हैं।
मान्यता अनुसार कुलधरा गांव घूमने आने वालों के मुताबिक उन्हें यहां हरपल ऐसा अनुभव होता है कि कोई आसपास चल रहा है। बाजार के चहल-पहल की आवाजें आती हैं, महिलाओं के बात करने, उनकी चूड़ियों और पायलों की आवाज हमेशा ही वहां के माहौल को भयावह बनाती है। प्रशासन ने इस गांव की सरहद पर एक फाटक बनवा दिया है जिसके पार दिन में तो सैलानी घूमने आते रहते हैं लेकिन रात में इस फाटक को पार करने की कोई हिम्मत नहीं करता हैं।
 
कुलधरा, जैसलमेर से लगभग अठारह किलोमीटर की दूरी पर स्थिति है। पालीवाल समुदाय के इस इलाके में चौरासी गांव थे और कुलधरा उनमें से एक था। मेहनती पालीवाल समाज के लोगों ने सन 1291 में तकरीबन छह सौ घरों वाले इस गांव को बसाया था। ईंट-पत्थर से बने इस गांव की बनावट ऐसी थी कि यहां कभी गर्मी का अहसास नहीं होता था। कहते हैं कि इस कोण में घर बनाए गए थे कि हवाएं सीधे घर के भीतर होकर गुजरती थीं। कुलधरा के ये घर रेगिस्तान में भी वातानुकूलन का अहसास देते थे। इस जगह गर्मियों में तापमान 45 डिग्री रहता हैं पर आप यदि कभी भरी गर्मी में इन वीरान पड़े मकानों में जाएंगे तो आपको शीतलता का अनुभव होगा।
 
पालीवाल समाज के लोग मेहनती, ईमानदार, शांतिप्रिय और उद्यमी थे। अपनी बुद्धिमत्ता, कौशल और अटूट परिश्रम के रहते पालीवालों ने रेतीली धरती पर सोना उगाया था। पालीवाल समुदाय आमतौर पर खेती और मवेशी पालने पर निर्भर रहता था और सभी मिलजुल कर शांतिपूर्वक रहते थे। पालीवालों ने ऐसी तकनीक विकसित की थी कि बारिश का पानी रेत में गुम नहीं होता था बल्कि एक खास गहराई पर जमा हो जाता था, जो उनकी समृद्धि का कारक था। कुल मिलाकार वे उस दौर में खुद के बनाए गए अत्याधुनिक विकसित गांव में जी रहे थे।
 
कहते हैं कि इतना विकसित गांव रातों रात वीरान हो गया, इसकी वजह था गांव का अय्याश दीवान सालम सिंह जिसकी नजर गांव कि एक खूबसूरत लड़की पर पड़ गई थी। दीवान उस लड़की के पीछे इस कदर पागल था कि बस किसी तरह से उसे पा लेना चाहता था। उसने इसके लिए उस लड़की के परिवार और समुदाय पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। हद तो तब हो गई कि जब सत्ता के मद में चूर उस दीवान ने लड़की के घर संदेश भिजवाया कि यदि अगले पूर्णमासी तक उसे लड़की नहीं मिली तो वह गांव पर हमला करके लड़की को उठा ले जाएगा। गांववालों के लिए यह मुश्किल की घड़ी थी। उन्हें या तो गांव बचाना था या फिर अपनी बेटी। इस विषय पर निर्णय लेने के लिए सभी 84 गांव वाले एक मंदिर पर इकट्ठा हो गए और पंचायतों ने फैसला किया कि कुछ भी हो जाए अपनी लड़की उस दीवान को नहीं देंगे।
 
फिर क्या था, गांव वालों ने गांव खाली करने का निर्णय कर लिया और रातोंरात सभी उस गांव से ओझल हो गए। जाते-जाते उन्होंने शाप दिया कि आज के बाद इन घरों में कोई नहीं बस पाएगा। आज भी वहां की हालत वैसी ही है जैसी उस रात थी जब लोग इसे छोड़ कर गए थे।
 
जैसलमेर के स्थानीय निवासियों की मानें तो कुछ परिवारों ने इस जगह पर बसने की कोशिश की थी, लेकिन वह सफल नहीं हो सके। स्थानीय लोगों का तो यहां तक कहना है कि कुछ परिवार ऐसे भी हैं, जो वहां गए जरूर लेकिन लौटकर नहीं आए। उनका क्या हुआ, वे कहां गए कोई नहीं जानता।
 
भूत-प्रेत व आत्माओं पर रिसर्च करने वाली पेरानार्मल सोसायटी की टीम ने कुलधरा गांव में एक रात बिताई। टीम ने माना कि यहां कुछ न कुछ असामान्य जरूर है।
 
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शापित पहाड़ : उत्तरप्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड के बांदा जनपद के एक गांव में ऐसा भी पहाड़ है जिसे देवी 'विंध्यवासिनी' द्वारा शापित पहाड़ माना जाता है। लोक मान्यता है कि देवीजी का भार सहन करने में असमर्थता जताने पर उसे 'कोढ़ी' होने का शाप दिया गया था। तभी से इस पहाड़ का पत्थर सफेद है और देवी मां के भक्त नवमी तिथि को लाखों की तादाद में हाजिर होकर मां का आशीर्वाद लेते हैं। लोकमान्यता है कि पहाड़ के उद्धार के लिए मिर्जापुर के विंध्याचल पहाड़ से मां विंध्यवासिनी नवरात्र की नवमी तिथि को यहां आती हैं और भक्तों को दर्शन देती हैं।
 
बुंदेलखंड के बांदा जनपद में केन नदी के तट पर बसे शेरपुर स्योढ़ा गांव के खत्री पहाड़ की चोटी पर मां विंध्यवासिनी का मंदिर है। आम दिनों की अपेक्षा यहां नवरात्र में बड़ा मेला लगता है।
 
मां विंध्यवासिनी के बारे में यहां एक लोक मान्यता प्रचलित है कि मिर्जापुर में विराजमान होने से पूर्व देवी मां ने खत्री पहाड़ को चुना था। लेकिन इस पहाड़ ने देवी मां का भार सहन करने में असमर्थता जाहिर की थी। जिससे नाराज होकर मां पहाड़ को 'कोढ़ी' होने का शाप देकर मिर्जापुर चली गई। अपने उद्धार के लिए पहाड़ के प्रार्थना करने पर देवी मां ने नवरात्र की नवमी तिथि को पहाड़ पर आने का वचन दिया था। तभी से यहां अष्टमी की मध्यरात्रि से भारी भक्तों का मेला लगने लगा है।
 
अष्टमी और नवमी तिथि को बच्चों के मुंडन के लिए तथा अन्य भक्तों की भीड़ जुटती है। लोकमान्यता अनुसार अष्टमी की मध्यरात्रि के बाद देवी की मूर्ति में अनायास चमक आ जाती है जिससे भक्त देवी के आ जाने का कयास लगाते हैं।
 
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कुर्स‌ियांग : कुर्स‌ियांग दार्जल‌िंग का एक ह‌िल स्टेशन है। अंग्रेजी में 'कर्स' का मतलब होता है शाप। इसी कर्स शब्द से इस जगह नाम पड़ा है कुर्स‌ियांग यानी शाप‌ित जगह। दिन में यहां प्राकृतिक सौंदर्य बिखरा रहता है लेकिन रात में एक शैतान घुमता है। 
 
यहा की एक डाउ ह‌िल जाकर आपको लगेगा कि सच में यह बहुत खतरनाक जगह हो सकती है। जहां के बारे कहा जाता है क‌ि यहां के जंगल में एक स‌िर कटा व्यक्त‌ि घूमता है। रात के समय डाउ ह‌िल के जंगलों में जाना मौत को न‌िमंत्रण देना है। डाउ ह‌िल के अलावा यहां के कुछ और भी स्‍थान है जो हॉटेड माने जाते हैं। इसल‌िए जब कभी इस ह‌िल स्‍टेशन पर घूमने जाएं तो रात होने से पहले अपने रुकने के स्थान पर पहुंच जाएं।
 
(समाप्त)
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