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उपासकों को आकर्षित करते हैं माता के मंदिर

शक्ति आराधना के विख्यात स्थान है असम के मंदिर

Webdunia
- श्याम बाला राय
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असम के कामाख्या क्षेत्र से कश्मीर के श्रीनगर तथा हिमालय की शुभ्र घाटियों से सुदूर दक्षिण कन्याकुमारी तक समस्त भू-भाग में महाशक्ति यथावसर अवतीर्ण होकर असुर संहार की अनेक लीलाएं लोकमानस को स्फूर्ति तथा बल प्रदान करती रही हैं। विंध्य क्षेत्र की देवी विंध्यवासिनी ने शुम्भ-निशुम्भ का वध कर इस क्षेत्र को शक्ति उपासना का केंद्र बना दिया है।

दक्षिण का मीनाक्षी मंदिर वैभवपूर्ण शक्ति आराधना का विख्यात स्थान है। श्री रामकृष्ण परमहंस की आराध्या दक्षिणेश्वर की काली, आल्हा द्वारा पूजिता मैहर की शारदा तथा राजा सुरथ एवं समाधि वैश्य द्वारा तपस्या से प्रसन्न की गई महिमामयी देवी के धाम देवी उपासकों को विशेष आकर्षित करते हैं। काशी में राजा सुबाहु की आराधना से प्रसन्न भगवती दुर्गा आज भी निवास करती हैं।

वाराणसी की नव गौरी यात्रा में विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित नव गौरियों के मंदिरों में श्रद्धालु देवीभक्त दर्शन करते हैं। नवरात्र में यहां नौ दिनों में कमशः शैलपुत्री, बह्मचरिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी तथा सिद्धिदाशी के दर्शन की प्रथा प्राचीन काल से ही है।

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देवी उपनिषद के अनुसार ब्रह्मादि देवता देवी के समीप जाकर पूछने लगे, हे देवी, तुम्हारा स्वरूप क्या है? 'साव्रवीदहं ब्रह्मस्वरूपिणी। अजाहमनजाहम्‌ अधश्चोर्ध्वश्च तिर्यक चाहम्‌'। देवी ने कहा-मैं परब्रह्म स्वरूपिणी हूं। तत्वतः अजन्मा होते हुए भी व्यवहारतः नाना रूप ग्रहण करती हूं। मैं ही ऊपर, नीचे, पास में सर्वत्र व्याप्त हूं।

मार्कंडेय पुराण में महर्षि मेधस ने राजा सुरथ को इसी तथ्य को इस प्रकार समझाया था-

नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तयासर्वमिदंततम्‌।/तथापि तत्समुत्पति बंहुधा श्रूयतां मम॥
देवानां कार्यसिद्धयर्थमाविर्भवति सा यदा।/उत्पन्नेति तदा लोके सा नित्याप्यभिधीपते॥

महाशक्ति ने देवों की स्तुति से प्रसन्न होकर कहा भी था-'जब-जब दानवों की पीड़ा से विश्व संकटग्रस्त होगा, तब-तब उत्पन्न होकर मैं शत्रु संहार करूंगी।

शाक्त महाशक्ति को तत्त्वातीत, प्रपंचातीत तथा व्यवहारातीत मानते हैं। ब्रह्म, विष्णु तथा शिव उसकी कृपा के प्रसाद से सृष्टि रक्षा तथा जगत का संहार करते हैं। शैव शिव की आद्यस्पंदरूपा अव्यक्त शक्ति को ही शक्ति कहते हैं।

उनके मत में देवी भक्तों के भावानुसार अनेक दुर्गा, महाकाली, राधा, ललिता, त्रिपुरा, महालक्ष्मी, महासरस्वती, अन्नपूर्णा आदि व्यक्त रूप धारण करती हैं।

शिवपुराण में उसको शिव की विभूति माना गया है।
यथा-यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसासह।/अप्राकृती परा सैषा विभूतिः परमेष्ठिनः॥

श्रीकृष्ण ने गीता में इसी शक्ति तथा ब्रह्म से जगत की उत्पत्ति का संकेत अर्जुन से किया था-
मम योनिर्महद, ब्रह्म तस्मिन्‌ गर्भ दधाम्यहम्‌।/सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।

योगी इस शक्ति को अव्यक्त रूपा मानते हैं। यही सब शरीरों में कुल कुंडलिनी नाम से स्थित है। सब इंद्रियों की अधिष्ठात्री है। इसी शक्ति को वे षट्चक्रों के भेदन क्रम से जागृत करते हैं। इसके जागृत होने से ब्रह्मज्ञान सुलभ हो जाता है। मूलाधार चक्र में यह त्रिकोणाकार अस्थि में सर्पाकार में स्थित है। शिव भाव प्राप्त कर शवरूप में परिणत हो शवासन परिग्रह करने पर साधक के अंत में महाशक्ति का उन्मेष होता है।

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वेदांत भावना के उपासक जन्माधस्थतः की भावना से कहते हैं-

यत्किंचित क्वचिद्वस्तु सदसद्वाविलात्मके।
तस्य सर्वस्य पा शक्तिः सत्वकि स्तूपसेमया॥

आदिशंकराचार्य ने शक्ति पूजा पर सौंदर्य लहरी की रचना की। जिसमें उच्च कोटि के साधक 'स्वियः समस्तास्तव देवि भेदाः' की उदात्त भावना से सभी स्त्रियों को देवी रूप में देखते हैं। कुमारी पूजा का इसी दृष्टि से देवी या शक्ति अर्चना में विशेष महत्व है।

स्वर, व्यंजन तथा उनसे निर्मित अनेक ध्वनियों में अव्यक्त पराशक्ति - पश्यंती-मध्यमा तथा बैसरी रूप में व्यक्त होकर वाक्‌ नाम ग्रहण करती है।

शक्ति के रूपों में दया, क्षमा, निद्रा, स्मृति, क्षुधा, तृष्णा, तृप्ति, श्रद्धा, शक्ति, धृति, मति, पुष्टि, शांति, कांति तथा लज्जा जैसी स्वाभाविक प्रवृत्तियों की गणना है। यही गोलोक में राधा, साकेत में सीता, क्षीरसागर में लक्ष्मी, दक्ष कन्या सती, दुर्गतिनाशिनी दुर्ग, वानी सावित्री तथा गायत्री नाम से पूजा ग्रहण करती हैं।

सूर्य में प्रभा, चंद्रमा में शोभा, अग्नि में दाहकता, वायु में प्रवहण, जल में शीतलता, पृथ्वी में धारण तथा शस्य में प्रसूति, शक्ति के रूप में शक्ति ही प्रतिष्ठित है। इसके रूपों का विस्तार अनिर्णचनीय है। उदारता, शौर्य, भक्ति, वात्सल्य, चातुरी, प्रीति, शोभा, लक्ष्मी, प्रतिभा, बुद्धि विविध रूपों में व्याप्त शक्ति ही जगत के उपकार तथा संचालन का कार्य कर रही है। बुद्धियोग संपन्न 'चक्षुष्मन्तोनुपश्यन्ति विचारशील महान पुरुष ही देवी के यथार्थ रूप को जान सकते हैं।

शक्ति के विविध रूपों के क्रम से उनके उपासकों की संख्या अत्यधिक है। सरस्वती बीज के अशुद्ध रूप के उच्चारण मात्र से सत्यव्रत को वाक्‌सिद्धि प्राप्त हो गई थी। कामबीज के जय से सुदर्शन को खोया राज्य प्राप्त हुआ था। मेधरा ऋषि के परामर्श से देवी की आराधना कर राजा सुरथ ने राज्य तथा जन्मांतर में मनुपद प्राप्त किया था।

समाधि वैश्य ने ज्ञान प्राप्त कर मृण्मयी देवी की उपासना कर मुक्ति पाई थी। ऋषियों, राजाओं, मानवों, असुरों ने भी देवी की भक्ति से सुख और यश प्राप्त किए ।

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