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गोविषाण टीला

काशीपुर में स्वर्णिम इतिहास समेटे

Webdunia
- महेश पाण्डे
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उधमसिंह नगर की तराई में स्थित काशीपुर में नगर से आधे मील की दूरी पर गोविषाण टीला अपने भीतर कई इतिहास समेटे हुए है। कहा जाता है कि यहाँ चीनी यात्री ह्वेनसांग और फाहियान आए थे। फाहियान गुप्तकाल के दौरान (399 ई. से 414 ई.) यहाँ पहुँचे। यायावर फाहियान ने यहाँ बौद्ध स्तूप होने की बात अपने यात्रा वृतांत्त में लिखी थी। इसके बाद चीनी यात्री ह्वेनसांग (621 ई. से 645 ई.) जब इस स्थान पर पहुँचा तो उसने भी इस स्थान का पूरा विवरण अपने वृतांत्त में दिया।

ह्वेनसांग के अनुसार वह मादीपुर से चलकर 66 मील की यात्रा पूरी कर गोविषाण नामक स्थान पर पहुँचा। यहाँ ऊँची भूमि पर ढाई मील की गोलाई लिए एक स्थान था। इसमें बगीचे, तालाब एवं मछली कुंडों के अलावा दो मठ थे, जिनमें सौ बौद्ध धर्मानुयायी रहते थे। यहाँ 30 ब्राह्मण धर्म के मंदिर थे। शहर के बाहर एक बड़े मठ में 200 फुट ऊँचा अशोक का स्तूप था। इसके अलावा दो छोटे-छोटे स्तूप थे, जिनमें भगवान बुद्ध के नख एवं बाल रखे गए थे। इन मठों में भगवान बुद्ध ने लोगों को धर्म उपदेश दिए थे।

ND
1868 में भारत के तत्कालीन पुरातत्व सर्वेक्षक सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने इस स्थान का दौरा किया लेकिन इनमें उन्हें ये वस्तुएँ खासकर भगवान बुद्ध के नख एवं बाल नहीं मिले। कनिंघम को इस टीले की सबसे ऊंचाई पर स्थित भीमगोड़ा स्थल पर एक पुरातात्विक निर्माण का पता चला। यहाँ पर भारत के तत्कालीन मुख्य पुरातत्व सर्वेक्षक डॉ. वाई.डी. शर्मा के नेतृत्व में सीमित खुदाई का कार्य आरंभ किया गया, जिसका उद्देश्य यह जानना था कि इस टीले के अंदर के भवनों की आकृति क्या है। 1966 में सीमित खुदाई करके यह कहा गया कि पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के कारण इसका संरक्षण जरूरी है।

इसमें 596 वीं शताब्दी की किलेनुमा दीवारें मिली थीं। आकर्षक रूप से उकेरी गई ईंटों से बनी दीवारों की शिल्पकला भी अनूठी थी। इसके अलावा ताँबे के सिक्के बर्तन समेत ताँबे पर नक्काशी करने वाली कखानी भी यहाँ मिली। चॉकलेटी रंग का दो छिद्रों वाला सुरक्षा ताबीज यहाँ मिला। इसके अलावा भूरे-लाल रंग लिए मिट्टी के बने हुए दीये और अलग-अलग आकृति के अगरबत्ती रखने के खाँचे और तीरों की नोंक, लोहे की छड़ें और चाकू भी इसकी खुदाई से प्राप्त हुआ।

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1969 में एक बार फिर यहाँ खुदाई कर 140 फुट लंबे, 82 फुट चौड़े और साढ़े उन्नीस फुट ऊँचे विशाल चैत्य के अवशेष मिले। एक प्रदक्षिणा पथ भी मिला, जिसका काफी हिस्सा मंदिर की मुख्य दीवार के निर्माण से मेल खाता था। मिट्टी से बने पतले पहिए के आकार के बर्तन को एक क्रम से पाया गया। इस अभियान की विशेषता यह थी कि जो चीजें यहाँ मिलीं, वह अन्य स्थानों की खुदाई में कहीं नहीं मिली।

गोविषाण की खुदाई में शुंग और कुषाण काल (ईसा पूर्व 200 से लेकर 130 ईसा पूर्व) तक (राजपुर काल) के मनके, मृदभांड, सिक्के मिले हैं। इसके अलावा अनाज रखने के बर्तन एवं गेहूँ के दाने भी प्राप्त हुए हैं। जो इसी काल के समझे जाते हैं। इस साल की पूरी खुदाई में कत्यूर काल से पहले 2900 ईसा पूर्व तक जानकारी मिलने की संभावना है।

ईसा पूर्व 15 वीं सदी से ईसा पूर्व 200 ई. तक के दौर की ऐसी वस्तुएँ यहाँ से प्राप्त हुईं जो इतिहास के दुर्लभ अवशेष माने गए। पुरातत्वविदों को आशा है कि गोविषाण टीले पर उत्खनन से ह्वेनसांग के यात्रा विवरण में वर्णित बौद्ध स्तूप के अलावा यहाँ पर ताम्रयुगीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हो सकेंगे।
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गोविषाण के बाबत कहा जाता है कि इसे भगवान बुद्ध ने लगभग 2,600 वर्ष पूर्व बसाया था। काशीपुर का पुराना किला उज्जैन कहलाता है। जिसके निकट द्रोण सागर है। यह सागर किले से पहले बना है। यह सागर पांडवों ने अपने गुरु द्रोणाचार्य के लिए बनाया था, ऐसी मान्यता है। इसका चौकोर क्षेत्रफल 600 वर्ग फुट है। यहाँ गंगोत्री जाने वाले यात्री आते हैं। इसके किनारे सती नारियों के स्मारक हैं।

इस उज्जैन किले की दीवारें 60 फुट ऊँची हैं। इस दीवार की लंबाई-चौड़ाई तथा ऊँचाई क्रमशः 15 फुट × 10 फुट × 21/2 फुट है। 600 फुट ऊँचे किले में ज्वाला दे 600 फुट ऊँचे किले में ज्वाला देवी, जिन्हें उज्जैनी देवी कहा जाता है, की मूर्त्ति स्थापित है। यहाँ चैत माह में एक विशाल मेला लगता है । चैती मेले के नाम से प्रसिद्ध इस मेले में दूर-दूर से लोग आते हैं। यहाँ कई मंदिर बाद में बने, उनमें मुख्यतः भूतेश्वर, मुक्तेश्वर, नागनाथ, जागीश्वर प्रमुख हैं।

गोविषाण नगर उस प्राचीन रेशम मार्ग के बीच में स्थित है जो प्राचीनकाल में उत्तर पथ अफगानिस्तान के बामियान नामक स्थान से आरंभ होता था और तक्षशिला से होकर पांडवों की राजधानी हस्तिनापुर तक पहुँचता था। गोविषाण तीन मार्गों के बीच में स्थित था, जिनमें से एक मार्ग यहाँ से पाटलिपुत्र को दूसरा अहिच्‌छत्र और तीसरा कौशांबी को जाता था। इस स्थल पर पहले खुदाइयों में ताम्रयुगीन सभ्यता के दौर की गेरूए रंग के मृदभांड मिल चुके हैं।

गोविषाण में पिछले कुछ वर्षों पूर्व जो खुदाई हुई उसके तहत डॉ. धर्मवीर शर्मा ने ठाकुरद्वारा के मदारपुर गाँव के पास ताम्र मानवाकृतियाँ पाईं। काफी बड़ी मात्रा में पाई गईं यह ताम्र मानवाकृतियां हड़प्पाकाल के बाद मिलती हैं। इन्हें हड़प्पा व ताम्रयुगीन सभ्यता के बीच का सेतु माना जाता है।

गोविषाण की खुदाई से हड़प्पा सभ्यता के आस-पास रहने वाले शुद्ध ताँबे की वस्तुएँ बनाने वाले लोगों के बारे में जानकारी मिल सकती है। कुमाऊँ में आज भी ताँबे के कारीगर रहते हैं। टम्टा नाम से पहचाने जाने वाले ये कारीगर ताँबे के बर्तन उपयोग में लाते रहे हैं। इस स्थल से प्राप्त चिकनी मिट्टी की कलाकृतियों वाले मृदभांडों के अध्ययन से पुरातत्वविद् इन्हें ई. पूर्व 1,100 से लेकर ई.पूर्व 1,500 तक का बताते हैं।

जो इस बात का संकेत है कि इस क्षेत्र का संबंध महाभारत काल से भी हो सकता है। इस क्षेत्र को उत्तर व दक्षिण पांचाल के रूप में महाभारत के योद्धा द्रोणाचार्य ने विभाजित किया और इसे अपने राज्य का हिस्सा बनाया। इसी गोविषाण के उत्तर के ब्रह्मपुर में कत्यूरी-राजाओं का राज्य रहा होगा। ह्वेनसांग लखनपुर आया जो ब्रह्मपुर की राजधानी थी। ह्वेनसांग सातवीं शताब्दी में आया था और 16 वर्ष रहकर चीन लौट गया था।

यह नगरी काशीपुर कहलाई जो चंद राजाओं के राजकर्मियों की निवास स्थली रही। उनके वंशजों में कूर्मांचली ब्राह्मणों में पंत, पाण्डे, जोशी, भट्ट, लोहनी आदि रहे थे। इनमें से कुछ राजा लालचंद के वंशजों के कारिंदे भी थे जो आज भी अच्छे पदों पर हैं। यहाँ का चौबे खानदान पुराना है। अग्रवाल खत्री वैश्य भी यहाँ के तिजारतदाँ रहे हैं। कहा जाता है कि बाद में इसी काशीपुर नगर को 1918 में नए सिरे से कुमाऊं के राजा काशीनाथ ने बसाया था। काशीपुर का किला शिवदेव जोशी ने 1745 में बनवाया था। कूर्मांचल के प्रसिद्ध कवि गुमानी की पैदाइश भी काशीपुर की ही है।

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