प्राचीन नृसिंह मंदिर

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नृसिंह मंदिर की वजह से पूरे क्षेत्र का नाम हुआ नृसिंह बाजार! इंदौर में स्थित यह मंदिर बेहद प्राचीन होने के बावजूद आज भी श्रद्धा के प्रमुख केंद्र के रूप में जाना जाता है। होलकर सेना के कुलदेवता मल्हारी मार्तंड की प्रतिमा के समान ही इस मंदिर की नृसिंह प्रतिमा को भी रणक्षेत्र में ले जाया जाता था। विजय पाने की आकांक्षा से इन इष्टदेवों की पूजा के बाद ही युद्ध का शंखनाद हुआ करता था।

युद्ध से लौटने के बाद यह प्रतिमा पुनः प्रतिष्ठित कर दी जाती थी। नृसिंह मंदिर उस जमाने में सरकारी लश्करी मंदिर के नाम से मशहूर था। यूँ इस मंदिर की स्थापना 17वीं शताब्दी में यहाँ छोटी-सी बस्ती के लोगों ने की थी, लेकिन 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में इसका जीर्णोद्धार यशवंतराव प्रथम, जो कि होलकर मदीना के नाम से अधिक विख्यात थे, ने करवाया। उन्होंने उसी समय मंदिर के स्वामी बिरदीचंदजी महाराज के नाम सनद जारी की और सारे अधिकार भी उन्हें ही सौंप दिए।

नृसिंह जयंती हर वर्ष वैशाख सुदी शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को नृसिंह बाजार स्थित प्राचीन नृसिंह मंदिर में धूमधाम से मनाई जाती है।

कैसे हुआ नृसिंह जयंती उत्सव का श्रीगणेश
दरअसल, नृसिंह जयंती उत्सव का श्रीगणेश कब हुआ और किसने किया तथा मंदिर की स्थापना कब व किसने की, यह जानना बड़ा रोचक है। बात उन दिनों की है, जब इंदौर शहर की आबादी बहुत कम हुआ करती थी। तब सड़कें भी ढंग की नहीं थीं। उस दौर में भी नृसिंह उत्सव का निखार गजब का था। तड़के 4 बजे से ही हजारों श्रद्धालु मंदिर में उमड़ा करते थे। इनमें बच्चों की भी अच्छी खासी तादाद होती थी।

भगवान के मुखौटे धारण करने वाले कलाकारों के पीछे दौड़ते-दौड़ते सुबह से शाम हो जाती थी, लेकिन आज भीषण गर्मी के नित-नए आयाम और यातायात की जटिलता ने इस उत्सव को काफी शिथिल कर दिया है। इसके बावजूद उत्सव की लोकप्रियता जस की तस बरकरार है।

नृसिंह जयंती कब व कैसे प्रारंभ हुई, इस बारे में क्षेत्र के बुजुर्गों का कहना है कि इसका सूत्रपात लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले हुआ। मंदिर की स्थापना के बाद पूजा-अर्चना का दायित्व जिन पुजारियों को सौंपा गया, संभवतः वे नागौर (राजस्थान) के थे। चूँकि नागौर में भगवान नृसिंह जयंती व्यापक पैमाने पर मनाई जाती है।

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अतः उसी से प्रेरणा लेकर पुजारियों ने भगवान नृसिंह का स्वर्ण परत वाले मुखौटे के साथ ही महाराजा हिरण्यकश्यप, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, हनुमान, गरूड़, सुग्रीव व होलिका के मुखौटे भी तैयार करवाए। यह सभी करीब ढाई सौ साल पुराने हैं। इनका निर्माण लुगदी, मिट्टी, इमली के बीज (चिंया) व सरेस से होता है, मगर अब फाइबर के मुखौटे भी तैयार कर लिए गए हैं, क्योंकि ये धारण करने में भी हल्के होते हैं। इस तरह शहर के पश्चिमी क्षेत्र में नृसिंह उत्सव का श्रीगणेश हुआ। वर्तमान में पुजारी परिवार की चौथी पीढ़ी मंदिर में सेवारत है।

मंदिर की स्थापना कैसे हुई?
मंदिर की स्थापना के बारे में किंवदंती है कि इसका निर्माण यशवंतराव होलकर चतुर्थ (एकाक्षी) ने तब करवाया था, जब एक बार वे महेश्वर के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे। जब कोई शिकार नहीं मिला तो वे बेहद हताश हो गए। भीषण गर्मी से अकुलाकर वे पेड़ की छाँव तले बैठ गए। इस बीच उन्हें नींद में लगा कि कोई अज्ञात शक्ति उन्हें बार-बार प्रेरित कर रही है।

नरेश उठे तो देखा जैसे कोई उनसे कह रहा हो कि "मैं तेरे राज्य में मैं स्थापित होना चाहता हूँ। उठ! ले चल मुझे अपने राज्य में।" नरेश तत्क्षण उठ बैठे। उनकी नजर अपनी पगड़ी पर जा ठहरी, जिस पर एक शालिग्रामनुमा आकृति थी, जिसके एक भाग में मुँह जैसा छिद्र भी बना हुआ था। नरेश को लगा कि हो न हो, ये कोई देव विग्रह है, जो बार-बार स्वप्न में चेतावनी देते रहते हैं।

नरेश श्रद्धाभाव से उन्हें नमन कर इंदौर ले आए और विधिवत मंत्रोच्चार के बीच प्राण प्रतिष्ठा करवाकर नृसिंह बाजार स्थित इसी नृसिंह मंदिर को बनवाया तथा उसमें प्रतिमा स्थापित की। यही वह विग्रह है, जो भगवान नृसिंह के रूप में पूजा जाता है।
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