महाराजा शर्याति अपनी पत्नी के साथ उस स्थान पर पहुंचे और देखते हुए दुखी मन से बोले- 'बेटी! तुमने बड़ा पाप कर डाला। यह च्यवन ऋषि हैं जिनकी तुमने आंख फोड़ दी है।'
यह सुनते ही सुकन्या रो पड़ी। उसका शरीर कांपने लगा। टूटते हुए स्वर में उसने कहा- 'मेरी जानकारी में नहीं था कि यह महर्षि बैठे हुए हैं। मैंने बड़ा अनर्थ कर डाला।' यह कहकर वह फिर से फूट-फूटकर रो पड़ी।
' हां पुत्र ी' तुमसे अपराध हो गया है। महर्षि च्यवन यहां पर तपस्या कर रहे थे। आंधी-तूफान और वर्षा के कारण इनके चारों तरफ मिट्टी का टीला बन गया है। इसी कारण तुम्हारी दृष्टि को दोष हो गया। मात्र दो आंखें चमकती हुई दिखाई दीं। अब क्या होगा?'
इतने में च्यवन ऋषि के कराहने का स्वर भी सुनाई दिया। कातर स्वर सुनकर सुकन्या ने तय किया- 'मैं इस पाप का प्रायश्चित करके इस हानि की क्षतिपूर्ति करूंगी।'
' तुम्हारे प्रायश्चित से ऋषि की आंखें तो वापस नहीं आएंगी।' पिता राजा शर्याति ने कहा।
सुकन्या ब ोली- 'मैं इनकी आंखें बनूंगी।'
' क्या कह रही हो बेटी?'
' मैं उचित कह रही हूं पिताजी। मैं ऋषिदेव की आंख ही बनूंगी। मैं मात्र भूल व क्षमा का बहाना बनाकर अपराध मुक्त नहीं होना चाहती। न्याय-नीति के समान अधिकार को स्वीकार कर चलने में ही मेरा व विश्व का कल्याण है, मैंने यही सब तो सीखा है। मैं च्यवन ऋषि से विवाह करूंगी और अपने जीवनपर्यंत उनकी आंख बनकर सेवा करूंगी।'
' लेकिन बेटी! यह तो अत्यंत जर्जर व कृशकाय शरीर के हैं और तू युवा।' राजा शर्याति ने कहा।