श्रीकृष्ण की भक्त माता कर्मा का जन्म चैत्र कृष्ण पक्ष की पापमोचनी एकादशी को साहू परिवार में हुआ था। बाल्यकाल में ही वह श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहकर उनके भजन गाती थी। उसके मनोहर गीत सुनकर भक्तागण झूमने लगते थे। माता की कथा हमें कई रूप में मिलती है। उनकी कथा में कई विरोधाभास भी है। यहां प्रस्तुत है एक प्रचलित कथा।
उनके पिता का नाम जीवनराम डूडी या राम साहू था। बड़ी होने पर पिता ने कर्मा का विवाह प्रसिद्ध साहूकार के पुत्र पदमजी साहूकार के साथ कर दिया। एक दिन माता कर्मा गृह्कार्यों से निवृत हो श्री कृष्ण भगवान की भक्ति में आंखे बंद कर भजन गा रही थी कि तभी उनके पति ने आकर सिहांसन से भगवान की मूर्ति को हटा कर छिपा दिया और स्वयं भी वहां से हट गए।
कुछ समय पश्चात् जब कर्मा ने नेत्र खोले तो मूर्ति सिहांसन पर न देख बहुत घबराई और मूर्छित होकर गिर गई। जब उसे होश आया तो उसके पास ही बैठे पति को देख कर उठ खड़ी हुई और पति के चरणों में गिरकर अत्यन्त विनम्रतापूर्वक बोली- "प्राणनाथ! उस कृपालु भगवान, जो सबकी रक्षा करते हैं, की मूर्ति सिहांसन से गायब हो गई हैं। कर्मा की यह दशा देखकर उनके पति को अपने किए कृत्य पर पछतावा हुआ और उन्होंने क्षमा मांगी और मूर्ति को पुन: स्थापित करते हुए बोले कि ये लो मूर्ति, किन्तु प्रिय मैं यह जानना चाहता हूं कि तुम दिन रात भगवान की भक्ति करती हो, भजन गया करती हो। क्या तुम्हें उनके प्रत्यक्ष दर्शन मिले हैं?
पति की बातों को ध्यान से सुनकर कर्मा ने समझाते हुए कहा- "नाथ! ईश्वर बड़ा दयालू है। उसकी कृपा से ही संसार के सभी प्राणी भर पेट भोजन पाते हैं। वह अपने भक्तों कभी निराश नहीं करते और दर्शन भी अवश्य देते हैं। किन्तु परीक्षा करने के पश्चात्। अभी मेरी तपस्या पूर्ण नहीं हुई है। मुझे विश्वास है की भगवान दर्शन अवश्य देंगे।
कर्मा की इस प्रकार विनम्र और भक्ति पूर्ण बातों से अत्यधिक प्रभावित होकर उनके पति बोले- "प्रिये! आज से तुम्हें भगवान् की सेवा कराने के लिए पुरी स्वतंत्रता है। मेरी सेवा मैं तुम व्यर्थ ही अपना अमूल्य समय नष्ट करती हो। अब तुम सारा समय भगवान् की पूजा और भक्ति मैं ही लगाया करो, जिससे तुम्हारे साथ ही मुझे भी मुक्ति मिल जाय।
कर्मा की भक्ति से समाज के पाखंडी लोग जलने लगे तो उन्होंने षड़यंत्र रचा। एक दिन नरवर के राजा का हाथी असाध्य रोग से पीड़ित हो गया तो उन्होंने राज वैद्यों के माध्यम से राजा को सलाह दी की इस हाथी को तेल से भरे तालाब कुंड में डूबोया जाएगा तो इसका रोग ठीक हो जाएगा। राजा ने सभी तेलकारों अर्थात तेल बेचने वालों को आदेश दिया की इस तालाब कुंड में अपना-अपना तेल तब तक डालो जब तक की यह भर नहीं जाता है।
कर्मा के पति भी तैरकाल थे उन्हें भी तेलकुंड में तेल डालने का आदेश हुआ। राज्य के सभी तेलियों ने अपना अपना तेल डाला और उसके उन्हें दाम भी नहीं मिले। तैलकार भूखे मरने लगे, तभी आदेश दिया गया कि और तेल डालो अभी कुंड भरा नहीं है। कर्मा के पति भी इसी विषम आर्थिक परिस्थिति को देखकर अत्यधिक चिंतित और दु:खी रहने लगे।
लगभग एक माह बित गया लेकिन कुंड तेल से न भरा जा सका। कर्मा के पति की चिंता भी बढ़ती जा रही थी। एक दिन जब कर्मा को पता चला कि उनकी श्रीकृष्ण भक्ति के कारण यह सब हो रहा है तो वह दौड़कर भगवान् श्री कृष्ण के चरणों में गयी और गिरकर कहने लगी- "भगवान् यह सब क्या हो रहा है? मेरे कारण आज राज्य के कितने ही निर्धन तैलकर भूखे मर रहे हैं।'
तब भगवान ने बालरूप में प्रकट होकर कहा कि आप चिंता न करें। आप राजा से कहिये कि आपके घर के कोल्हू से कुंड तक पक्की नाली बनवा दें, कुंड तेल से भर जाएगा। सुबह मां कर्मा ने अपने पति द्वारा राजा को यह संदेशा भिजवाया दिया। राजा ने पक्की नाली बनवा दी। मां कर्मा और उनके पति ने श्रीकृष्ण का ध्यान किया और सारी रात कोल्हू चलाया। सुबह देखा तो तालाब कुंड तेल से भर गया। यह घटना सारे नरवर में आग की तरह फैल गयी और कर्मा माता की जय-जयकार होने लगी।
इस घटना के बाद एक दिन कर्मा के पति अचानक बीमार होकर मरणासन्न हो गए। जीवन की कोई आशा न देख माता कर्मा अत्यन्त दु:खी होकर बेहोश हो गई। होश आने पर देखा की पति मर चुके हैं। माता पिता व अन्य कुटुम्बियों ने मृत शरीर को नीचे उतरकर रख दिया था। कर्मा दौड़कर भगवान् श्रीकृष्ण के सम्मुख गई और चरणों में गिर कर फुट-फुट कर कहने लगी -"भगवान्! तुमने मेरा सुहाग क्यों छीन लिया? मुझे विधवा क्यों बना दिया? तुम्हें अपने भक्तों पर तो दया करनी चाहिए।
भक्त कर्मा के करुण क्रंदन को सुनकर भगवान् श्री कृष्णजी स्वयं को रोक न सके और तुरंत ही दौड़ पड़े। कर्मा को एक अभूतपूर्व मधुरवानी सुनाई दी- "भक्त कर्मा तू इतनी दुखी न हो। आना जाना तो इस संसार का क्रम है। इसे रोका जाना उचित नहीं। इस संसार में जो भी आता है, एक न एक दीन उसे जाना ही अवश्य होता है। यही संसार है। जाओ, अपने पति का क्रिया कर्म करो। अब तुम्हारा पति के प्रति यही धर्म है।
माता कर्मा अपने पति के साथ ही सती होना चाहती थी परंतु श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाया और बोले, 'कर्मा तू अभी गर्भवती है और गर्भवती नारी का सती होना महान पाप है। जाओ अपने पति का क्रिया-कर्म करो और शेष जीवन भक्ति भाव से धैर्यपूर्वक व्यतीत करो। मैं तुम्हें जगन्नाथपुरी में साक्षात् दर्शन दूंगा।
भगवान् की यह आकाशवाणी सुनकर कर्मा ने अपने पति के साथ सती होने का विचार त्याग दिया। पति के देवहासन के लगभग तीन माह पश्चात् कर्मा को पुत्र रत्न प्राप्त हुआ। किन्तु कर्मा को इससे कोई विशेष प्रसन्नता नहीं हुई। वह अपने पति की स्मृति अभी तक भूली न थी और वह उनके वियोग में रोती तथा विलाप करती रहती थी। फिर एक राता माता कर्मा अपने परिवार को छोड़कर चुपचाप घर से निकल गई।
वह श्रीकृष्ण के आदेशानुसार जगन्नाथपुरी के मार्ग पर चल पड़ी। रात भर वह कितनी दूर निकल गई, उसे कुछ ज्ञात नहीं। दूसरे दिन प्रात: काल कर्मा नित्यकर्म से निवृत हो भगवान् का भजन कर पुनः आगे ही और चल दी। मार्ग में वह क्षुधा से पीड़ित होने लगी किन्तु खाने को उनकी पोटली में कुछ न था। केवल थोड़ीसी खिचड़ी पुरी में भगवान् का भोग लगाने के उद्देश्य से उसकी पोटली में बंधी थी। अंत में जब भूख असह्य हो गई तो उन्होंने वृक्षों की पत्तियां तोड़कर खायीं और फिर आगे जगन्नाथपुरी की और भगवान् के दर्शन हेतु चल दी।
पैदल चलते चलते कर्मा को रात हो गई वह एक पेड़ के निचे लेट गई। वह लेते हुए सोचने लगी, भगवान्! आपने जगन्नाथपुरी में दर्शन देने का विश्वास दिलाया था किन्तु पुरी तो यहां से न जाने कितनी दूर है और मुझे मार्ग भी ठीक से मालूम नहीं है। ऐसी दशा में वहां कब और कैसे पहूचुंगी। प्रभु! अब तो बस आपका ही सहारा है। कुछ भी हो जाए अब मैं लौटूंगी नहीं।
इस प्रकार भगवान् के दर्शन हेतु दृढ़ प्रतिज्ञा करते हुए कर्मा सो गई। यह भगवान का चमत्कार ही था कि जब उसकी आंख खुली तो जगन्नाथपुरी था। उसने आश्चर्य चकित हो अपने चारों और देखा और सोचने लगी कि मैं यहां कैसे आ गई हूं? मुझे यहां कौन लाया है और यह कौनसा स्थान है? उसने वहां के निवासियों से पूछा। वहां के लागों के बताने पर जब उसे यह पता चला की यह जगन्नाथपुरी है तो उसे भगवान् की माया समझते देर न लगी और उसकी आंखों से आंसू बहने लगे।
भगवान् के भजन गाती हुई कर्मा भगवान् जगन्नाथजी के विराट मंदिर में जा पहुंची। उस समय मंदिर में भगवान् की आरती चल रही थी। पुजारियों की टोलियां और सेठजन मंदिर में प्रवेश कर रहे थे। कर्म भी मंदिर में जाना चाहती थी, परंतु उसके फटे पुराने वस्त्र देख द्वारपाल ने उसे मंदिर में जाने से रोक दिया।
द्वारपाल के व्यवहार से कर्मा को बड़ी निराशा हुई। वह अत्यन्त दुखी होकर कहने लगी- भगवान् तो सभी के हैं फिर मुझे भीतर जाने क्यों नहीं दिया जा रहा। भक्त कर्मा इतना ही कहा पाई थी कि तभी मोटे शरीर वाले एक पुजारी ने उसे जोर से धक्का दे दिया, जिसके चलते वह सीढ़ियों से निचे गिर गई। उसके सिर से रक्त की धारा बह निकली और वह पृथ्वी पर गिरते ही बेहोश हो गई।
जब कर्मा को होश आया तो उसने स्वयं को मंदिर की सीढ़ियों पर न पाकर समुद्र के किनारे पाया। उसने आँखों में आंसू भर कर भगवान् से विनती की कि हे दीनानाथ! दयामय! ये कैसी माया है आपके दर्शनार्थ लोग यहां दूर दूर से आते हैं और ये पाखंडी ब्राह्मण कैसे व्यवहार करते हैं। इनका एकाधिकार अनुचित नहीं है क्या?
कर्मा की विनती सुनकर भगवान् ने आकाशवाणी की -"भक्त कर्मा ! मैं केवल मंदिरों में ही निवास नहीं करता हूं। मेरा सर्वत्र निवास स्थान है। तू दु:खी न हो, मैं तेरे पास स्वयं मंदिर से निकलकर आ रहा हूं। भगवान् की आकाशवाणी सुनकर कर्मा को बड़ा संतोष हुआ। उसके कमजोर शरीर में पुनः स्फूर्ति का अनुभव हुआ और जैसे ही उसने अपना सर उठाया, भगवान् की एक अतिसुंदर विराट मूर्ति उसके सम्मुख विराजमान थी।
भगवान् की मूर्ति को मंदिर में अपने स्थान से गायब देखकर वहां के पुजारी और ब्राह्मणों में हड़कंप मच गया। लोगों को मूर्ति की खोज में दौड़ाया गया। शीघ्र ही मूर्ति के समुद्र तट पर पहूंचने का समाचार पूरे नगर में फैल गया। सभी लोग भगवान् के इस अदभूत चमत्कार को देखने के लिए चल पड़े और देखते ही देखते समुद्र तट पर अपार जन समूह एकत्र हो गया।
समुद्र पर विराजमान भगवान् की मूर्ति के चरणों में भक्त कर्मा को पड़े देख ब्रह्मण पुनः क्रोधित हो उसे भगवान् के चरणों से हटाने के लिए आगे बढ़े किन्तु आकाशवाणी हुई -"सावधान! कोई भी व्यक्ति इस नारी को हाथ न लगाए। यह भक्त कर्मा है। उसे तुम लोगों ने धक्का देकर मंदिर से बाहर निकल दिया। इसी कारण मुझे स्वयं यहां आना पड़ा है।'
इस आकाशवाणी को सुनकर सभी स्तब्ध रह गए और सभी एकटक खड़े रहे। तभी कर्मा ने अपनी पोटली में बंधी खिचड़ी निकाली और भगवान् को भोग लगा के सबको बांटने लगी। कर्मा वहीं बेसुध भगवान् के चरणों में पड़ी रही। मंदिर से धकेले जाने पर लगी चोट की पीड़ा असह्य हो रही थी। तभी आकाशवाणी सुनाई दी- "मेरी पुत्री कर्मा! उठ खड़ी हो, अचेत क्यों पड़ी हो? देख मैं तेरे पास आया हूं और तेरी खिचड़ी खा रहा हूं।
कर्मा ने देखा साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण जी बैठे उसकी खिचड़ी खा रहें हैं। वह बावली बनकर भगवान् की मधुर छवि एकटक देखती रही। कुछ क्षण बाद कर्मा ने कहा -"भगवान् ! सदा इसी प्रकार मेरी खिचड़ी का ही प्रथम भोग लगाया करो।'
इतना कहकर कर्मा श्रीकृष्ण भगवान् के चरणों में गिर पड़ी और सदा के लिए वैकुंठ लोक चली गई। तभी से पुरी में श्रीजगन्नाथ भगवान् को सर्वप्रथम, मां कर्मा की खिचड़ी का ही भोग लगाने की परम्परा है और वहां के द्वार सभी के लिए खुले हैं।