Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

ऋषि भृँगी कौन थे? माता पार्वती से क्यों मांगनी पड़ी क्षमा?

हमें फॉलो करें bhrangi rishi ki katha
भृंगी ऋषि की कथा  
ऋषियों में एक ऋषि भृँगी थे। वो स्त्रियों को तुच्छ समझते थे और शिवजी को गुरुतुल्य मानते थे किन्तु मां पार्वती को वो अनदेखा करते थे। एक तरह से वो मां को भी आम स्त्रियों की तरह साधारण और तुच्छ ही समझते थे। महादेव भृँगी के इस स्वभाव से चिंतित और खिन्न थे। 
 
एक दिन शिवजी ने पार्वती माता से कहा- आज ज्ञान सभा में आप भी चले। 
 
माँ पार्वती शिवजी के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और ज्ञान सभा में शिव जी के साथ विराजमान हो गई। 
 
सभी ऋषिगण और देवताओ ने मां और परमपिता को नमन किया और उनकी प्रदक्षिणा की और अपना अपना स्थान ग्रहण किया।
 
किन्तु भृँगी महर्षि मां पार्वती और शिव जी को साथ देख कर थोड़े चिंतित थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वो शिव जी की प्रदक्षिणा कैसे करे। बहुत विचारने के बाद भृँगी ने महादेव जी से कहा कि वे अलग खड़े हो जाए। 
शिवजी जानते थे भृँगी के मन की बात। वो मां पार्वती को देखने लगे। माता उनके मन की बात पढ़ ली और वो शिवजी के आधे अंग से जुड़ गई और अर्धनारीश्वर रूप में विराजमान हो गई। 
 
अब तो भृँगी और परेशान कुछ पल सोचने के बाद भृँगी ने एक राह निकाली। भवरें का रूप लेकर शिवजी के जटा की परिक्रमा की और अपने स्थान पर खड़े हो गए। माता पार्वती को भृँगी के ओछी सोच पर बहुत क्रोध आ गया। उन्होंने भृँगी से कहा तुम्हें स्त्रियों से इतना ही परहेज है तो क्यों न तुम्हारे में से स्त्री शक्ति को पृथक कर दिया जाए और मां पार्वती ने भृँगी से स्त्रीत्व को अलग कर दिया। अब भृँगी न तो जीवितों में थे न मृत थे। उन्हें अपार पीड़ा हो रही थी। वो मां पार्वती से क्षमा याचना करने लगे।
 
तब शिवजी ने मां से भृँगी को क्षमा करने को कहा। मां पार्वती ने उन्हें क्षमा किया और बोली संसार में "स्त्री शक्ति" के बिना कुछ भी नहीं। बिना स्त्री के प्रकृति भी नहीं पुरुष भी नहीं। दोनों का होना अनिवार्य है और जो स्त्रियों को सम्मान नहीं देता वो जीने का अधिकारी नहीं।
webdunia

कथा पढ़ें विस्तार से 
जब भी भगवान शिव के गणों की बात होती है तो उनमें नंदी, भृंगी, श्रृंगी इत्यादि का वर्णन आता ही है। भृंगी शिव के महान गण और तपस्वी हैं। भृंगी को तीन पैरों वाला गण कहा गया है। कवि तुलसीदास जी ने भगवान शिव का वर्णन करते हुए भृंगी के बारे में लिखा है -
 
"बिनुपद होए कोई। बहुपद बाहु।।"
 
अर्थात: शिवगणों में कोई बिना पैरों के तो कोई कई पैरों वाले थे। यहां कई पैरों वाले से तुलसीदास जी का अर्थ भृंगी से ही है।
 
पुराणों में उन्हें एक महान ऋषि के रूप में दर्शाया गया है जिनके तीन पांव हैं। शिवपुराण में भी भृंगी को शिवगण से पहले एक ऋषि और भगवान शिव के अनन्य भक्त के रूप में दर्शाया गया है। भृंगी को पुराणों में अपने धुन का पक्का बताया गया है। भगवान शिव में उनकी लगन इतनी अधिक थी कि अपनी उस भक्ति में उन्होंने स्वयं शिव-पार्वती से भी आगे निकलने का प्रयास कर डाला।
 
भृंगी का निवास स्थान पहले पृथ्वी पर बताया जाता था। उन्होंने भी नंदी की भांति भगवान शिव की घोर तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव ने उसे दर्शन दिए और वर मांगने को कहा। तब भृंगी ने उनसे वर माँगा कि वे जब भी चाहें उन्हें महादेव का सानिध्य प्राप्त हो सके। ऐसा सुनकर महादेव ने उसे वरदान दिया कि वो जब भी चाहे कैलाश पर आ सकते हैं। उस वरदान को पाने के बाद भृंगी ने कैलाश को ही अपना निवास स्थान बना लिया और वही भगवान शिव के सानिध्य में रहकर उनकी आराधना करने लगा। 
 
भृंगी की भक्ति भगवान शिव में इतनी थी कि उनके समक्ष उन्हें कुछ दिखता ही नहीं था। भृंगी केवल शिव की ही पूजा किया करते थे और माता पार्वती की पूजा नहीं करते थे। नंदी अदि शिवगणों ने उन्हें कई बार समझाया कि केवल शिवजी की पूजा नहीं करनी चाहिए किन्तु उनकी भक्ति में डूबे भृंगी को ये बात समझ में नहीं आयी। 
 
भृंगी केवल भगवान शिव की परिक्रमा करना चाहते थे किन्तु आधी परिक्रमा करने के बाद वे रुक गए, भृंगी ने माता से अनुरोध किया कि वे कुछ समय के लिए महादेव से अलग हो जाएँ ताकि वे अपनी परिक्रमा पूरी कर सके।
 
अब माता ने हँसते हुए कहा कि ये मेरे पति हैं और मैं किसी भी स्थिति में इनसे अलग नहीं हो सकती। भृंगी ने उनसे बहुत अनुरोध किया किन्तु माता हटने को तैयार नहीं हुई। भृंगी अपने हठ पर अड़े थे। महादेव ने तत्काल महादेवी को स्वयं में विलीन कर लिया। उनका ये रूप ही प्रसिद्ध अर्धनारीश्वर रूप कहलाया जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ था। उनका ये रूप देखने के लिए देवता तो देवता, स्वयं भगवान ब्रह्मा और नारायण वहां उपस्थित हो गए। 
 
भृंगी ने कीड़े का रूप धर कर महादेव के सिर पर परिक्रमा करना चाही तब माता पार्वती ने उन्हें शाप देकर उनके भीतर के स्त्री रूप को छिन्न भिन्न कर दिया। दयनीय स्थिति में आने के बाद माता पार्वती से क्षमा याचना की दोनों की पूजा और परिक्रमा की। तब महादेव के अनुरोध पर माता पार्वती अपना श्राप वापस लेने को तैयार हुए किन्तु भृंगी ने माता को ऐसा करने से रोक दिया। भृंगी ने कहा कि - "हे माता! आप कृपया मुझे ऐसा ही रहने दें ताकि मुझे देख कर पूरे विश्व को ये ज्ञान होता रहे कि कि शिव और शक्ति एक ही है और नारी के बिना पुरुष पूर्ण नहीं हो सकता।"
 
उसकी इस बात से दोनों बड़े प्रसन्न हुए और महादेव ने उसे वरदान दिया कि वो सदैव उनके साथ ही रहेगा। साथ ही भगवान शिव ने कहा कि चूँकि भृंगी उनकी आधी परिक्रमा ही कर पाया था इसीलिए आज से उनकी आधी परिक्रमा का ही विधान होगा। यही कारण है कि महादेव ही केवल ऐसे हैं जिनकी आधी परिक्रमा की जाती है। 
 
भृंगी चलने चलने फिरने में समर्थ हो सके इसीलिए भगवान शिव ने उसे तीसरा पैर भी प्रदान किया जिससे वो अपना भार संभाल कर शिव-पार्वती के साथ चलते हैं। 
 
शिव का अर्धनारीश्वर रूप विश्व को ये शिक्षा प्रदान करता है कि पुरुष और स्त्री एक दूसरे के पूरक हैं। शक्ति के बिना तो शिव भी शव के समान हैं। अर्धनारीश्वर रूप में माता पार्वती का वाम अंग में होना ये दर्शाता है कि पुरुष और स्त्री में स्त्री सदैव पुरुष से पहले आती है और इसी कारण माता का महत्त्व पिता से अधिक बताया गया है।
webdunia

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

प्रदोष और मिथुन संक्रांति का शुभ योग, कैसे करें पूजा, जानिए क्या करें, क्या करने से बचें?