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Mata lakshmi : माता लक्ष्मी ने क्यों लिया था एक बेर के पेड़ का स्वरूप, जानकर चौंक जाएंगे

हमें फॉलो करें Mata lakshmi : माता लक्ष्मी ने क्यों लिया था एक बेर के पेड़ का स्वरूप, जानकर चौंक जाएंगे

WD Feature Desk

, मंगलवार, 21 मई 2024 (12:23 IST)
Badrinath ki kahani: त्रिदेवी में एक माता लक्ष्मी की पूजा और आराधन करने से किसी भी प्रकार से धन की समस्या नहीं रहती है। उनकी हर रूप में पूजा करना चाहिए। स्वयं महालक्ष्मी ने शैल पर्वत पर बिल्व पत्र के रूप में जन्म लिया था। लेकिन क्या आपको बता है कि उन्होंने बेर के रूप में क्यों जन्म लिया था और कहां पर लिया था?
स्कंद पुराण के अनुसार कहा जाता है कि जब भगवान विष्णु हिमालय के विशेष क्षेत्र में तपस्या कर रहे थे तो यहां बहुत तेज हिमपात हुआ। जिससे भगवान विष्णु बर्फ में पूरी तरह से दब गए। जिसे देखते हुए मां लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को धूप, बारिश और बर्फ से बचाने के उपाय किए। जब मां लक्ष्मी से भगवान की यह दशा देखी नहीं गई तो उन्होंने बदरी यानी बेर के पेड़ का रूप धारण करके भगवान विष्णु की रक्षा करने लगी।
जब कई वर्षों बाद भगवान विष्णु तप से जागे तो बदरी वृक्ष के रूप में माता लक्ष्मी बर्फ से पूरी तरह से ढकी थी। इस दृश्य को देखकर श्रीहरि विष्णु ने कहा कि हे देवी! तुमने भी मेरे समान ही तप किया है। इसलिए अब से इस स्थान पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जाएगा। क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बदरी रूप में की है इसलिए मुझे बदरी के नाथ यानी 'बद्रीनाथ' के रूप में जाना जाएगा। इस प्रकार भगवान विष्णु का एक नाम बद्रीनाथ पड़ा।
 
''बहुनि सन्ति तीर्थानी दिव्य भूमि रसातले. बद्री सदृश्य तीर्थं न भूतो न भविष्यतिः''। 
अर्थात स्वर्ग, पृथ्वी तथा नर्क तीनों ही जगह पर अनेकों तीर्थ स्थान हैं, परन्तु फिर भी बद्रीनाथ जैसा कोई तीर्थ न कभी था, और न ही कभी होगा।
चार धाम में से एक बद्रीनाथ के बारे में एक कहावत प्रचलित है कि 'जो जाए बदरी, वो ना आए ओदरी'। अर्थात जो व्यक्ति बद्रीनाथ के दर्शन कर लेता है, उसे पुन: उदर यानी गर्भ में नहीं आना पड़ता है। मतलब दूसरी बार जन्म नहीं लेना पड़ता है। शास्त्रों के अनुसार मनुष्‍य को जीवन में कम से कम दो बार बद्रीनाथ की यात्रा जरूर करना चाहिए।
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एक जनश्रुति के अनुसार सतयुग में जब भगवान नारायण बद्रीनाथ आए तब यहां बदरीयों यानी बेर का वन था और यहां भगवान शंकर अपनी अर्द्धांगिनी पार्वतीजी के साथ मजे से रहते थे। एक दिन श्रीहरि विष्णु बालक का रूप धारण कर जोर-जोर से रोने लगे। उनके रुदन को सुनकर माता पार्वती को बड़ी पीड़ा हुई। वे सोचने लगीं कि इस बीहड़ वन में यह कौन बालक रो रहा है? यह आया कहां से? और इसकी माता कहां है? 
यही सब सोचकर माता को बालक पर दया आ गई। तब वे उस बालक को लेकर अपने घर पहुंचीं। शिवजी तुरंत ही समझ गए कि यह कोई विष्णु की लीला है। उन्होंने पार्वती से इस बालक को घर के बाहर छोड़ देने का आग्रह किया और कहा कि वह अपने आप ही कुछ देर रोकर चला जाएगा। लेकिन पार्वती मां ने उनकी बात नहीं मानी और बालक को घर में ले जाकर चुप कराकर सुलाने लगी। कुछ ही देर में बालक सो गया तब माता पार्वती बाहर आ गईं और शिवजी के साथ कुछ दूर भ्रमण पर चली गईं। भगवान विष्णु को इसी पल का इंतजार था। इन्होंने उठकर घर का दरवाजा बंद कर दिया।
 
भगवान शिव और पार्वती जब घर लौटे तो द्वार अंदर से बंद था। इन्होंने जब बालक से द्वार खोलने के लिए कहा तब अंदर से भगवान विष्णु ने कहा कि अब आप भूल जाइए भगवन्। यह स्थान मुझे बहुत पसंद आ गया है। मुझे यहीं विश्राम करने दी‍जिए। अब आप यहां से केदारनाथ जाएं। तब से लेकर आज तक बद्रीनाथ यहां पर अपने भक्तों को दर्शन दे रहे हैं और भगवान शिव केदानाथ में।

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