महारानी द्रोपदी की भगवद्भक्ति....

महर्षि दुर्वासा का आतिथ्य

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एक बार दुर्योधन की प्रेरणा से सरल हृदय महाक्रोधी महर्षि दुर्वासा अपने दस हजार शिष्यों के साथ वन में महाराज युधिष्ठिर के पास पहुंचे। दुर्योधन ने सोचा कि इतने अधिक अतिथियों का जंगल में धर्मराज युधिष्ठिर आतिथ्य न कर सकेंगे, फलतः उन्हें दुर्वासा की क्रोधाग्नि में जलकर भस्म होना पड़ेगा और हमारा राज्य निष्कंटक हो जाएगा।

जंगल में भगवान सूर्य की कृपा से द्रोपदी को एक बटलोई प्राप्त हुई थी, उसमें यह गुण था कि जब तक द्रोपदी भोजन न कर ले, तब तक कितने भी अतिथियों को भोजन कराया जाए, वह पात्र अक्षय बना रहता था। दुर्योधन के कहने पर दुर्वासा ठीक उस समय पहुंचे जब द्रोपदी सबको भोजन कराने के बाद स्वयं भी भोजन करके बर्तन साफ कर चुकी थी।

धर्मराज ने क्रोधी दुर्वासा का स्वागत किया और उन्हें शिष्यों सहित भोजन के लिए आमंत्रित कर दिया। दुर्वासा भोजन करने में शीघ्रता करने के लिए कहकर नदी में स्नान करने के लिए चले गए। द्रोपदी को तो मात्र भगवान द्वारकेश का सहारा था। उन्होंने आर्तस्वर में इस भयंकर विपत्ति से त्राण पाने के लिए उन्हीं को पुकारा।

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भक्तभयहारी भगवान उसी क्षण द्रोपदी के समक्ष प्रकट हो गए और उन्होंने बटलोई में लगा हुआ शाक का एक पत्ता खाकर विश्व को तृप्त कर दिया। दुर्वासा को अपनी शिष्य मंडली के साथ बिना बताए पलायन करना पड़ा और पांडवों की रक्षा हुई।

महारानी द्रोपदी वनवास और राज्यकाल दोनों समय अपने पतियों की छाया बनकर उनके दुख-सुख की संगिनी रहीं। किसी को कभी भी शिकायत का अवसर नहीं मिला। उन्होंने अपने पुत्रघाती गुरुपुत्र अश्वत्थामा को क्षमा दान देकर दया और उदारता का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया।

इस प्रकार महारानी द्रोपदी का चरित्र पातिव्रत्य, दया और भगवद्भक्ति का अनुपम उदाहरण है।

( समाप्त)

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