असली गणतंत्र : गाँवों तक खुशहाली

आलोक मेहता
गणतंत्र दिवस पर निकलने वाली परेड से असली शक्ति के दर्शन नहीं हो सकते। आजादी और गणतंत्र की ताकत तो दूरदराज के गाँवों में है। दिल्ली में रहने वाले खुशनसीब हैं, लेकिन दिल्ली शहर पूरा हिन्दुस्तान नहीं, उसकी राजधानी है। हिन्दुस्तान तो लाखों गाँवों का है और जब तक ये गाँव खुशहाल नहीं होते, आगे नहीं बढ़ते, केवल दिल्ली-मुंबई, कोलकाता, चेन्नई को देखकर लोकतांत्रिक राज को सफल नहीं कहा जा सकता।

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सच यह भी है कि इन गाँवों की तरक्की केवल सरकार नहीं कर सकती। शहरी शिक्षित लोगों में पिछले वर्षों के दौरान आर्थिक आत्मनिर्भरता का विश्वास उत्पन्न हुआ है। दूसरी तरफ जिन गाँवों में पहले महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू ने स्वावलंबन, चरखा, खादी, ग्रामोद्योग, बुनियादी शिक्षा, प्राकृतिक चिकित्सा तथा श्रमदान के पाठ पढ़ाए, वहाँ अब सरकार पर निर्भरता तथा कुछ क्षेत्रों में भयावह निराशा की भावनाएँ बढ़ी हैं। किसानों का निराश होना भयानक खतरे की घंटी है।

राजीव गाँधी ने सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए पंचायतों को महत्व तथा व्यापक अधिकार देने की पहल की और इससे कई राज्यों में पंचायतें सही अर्थों में लोकतांत्रिक खुशहाली की प्रहरी बन गईं। लेकिन राजनीतिक घुसपैठ तथा निहित स्वार्थों की छाया जहाँ पंचायतों पर है- वहाँ प्रगति रुक रही है। लोकतंत्र में जनता की चुनी पंचायत, जनता की चुनी सरकार होने का अधिकार तथा गौरव अच्छा है, लेकिन जनता की निरंतर सक्रियता और विकास में भागीदारी उतनी ही आवश्यक है।

गणतंत्र दिवस पर सरपंच, पालिका अध्यक्ष, कलेक्टर, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति के झंडा फहरा देने और उपलब्धियों के भाषणों को रस्म अदायगी कहा जा सकता है। लेकिन यह दिन भारत के हर नागरिक को अपने संवैधानिक अधिकारों के साथ कर्तव्यों को याद दिलाने का पुनीत अवसर है। अपने हित, अपने सुख, अपनी शांति के लिए प्रार्थना के साथ अपने गाँव, कस्बे, शहर, समाज और देश के लिए थोड़े से ध्यान, थोड़े से परिश्रम, थोड़े से त्याग की भावना जगाने का यह उपयुक्त मौका है।

गाँधी, नेहरू, विनोबा तथा उनके वरिष्ठ सहयोगियों ने गाँवों में श्रमदान, समाज में अंधविश्वास, कुरीतियों और संकीर्णताओं से लड़ने के अभियान चलाए, जिससे आजादी और लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हुईं। लोकतंत्र के वटवृक्ष की जड़ें कितनी ही गहरी हों, शाखाएँ मजबूत हों और पत्तों के साथ रसभरे फल लटकते दिख रहे हों, लेकिन उसे निरंतर अच्छे खाद, सफाई और रखवाली की जरूरत होती है।

लोकतांत्रिक राज के 60 वर्षों में कितने ही तूफान आए और गए। पड़ोसी देशों में तो खूनी संघर्ष के साथ सत्ता-परिवर्तन और सैनिक तानाशाही की नौबत आई, लेकिन भारत में वैचारिक मतभेदों, गड़बड़ियों, भ्रष्टाचार और टकराव के बावजूद लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति आस्था बढ़ी है। मतभिन्नाता तो लोकतंत्र में अपरिहार्य है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक के बीच गहरी मतभिन्नाता रही।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद और पं. जवाहरलाल नेहरू के सत्ताकाल में भी यह सामने आई और बाद में भी देखने को मिलती रही। संसद में ऐतिहासिक संविधान संशोधनों के अलावा जन हितकारी सैकड़ों फैसले हुए हैं, वहीं आतंकवादी हमलों से अधिक बदतर हमले कतिपय सदस्यों, नेताओं के आचरण के कारण हुए हैं। सरकार में ईमानदार व्यक्तियों के वर्चस्व से जहाँ देश इतना विकसित हुआ, वहीं भ्रष्ट मंत्रियों और प्रशासनिक अनाचार के कारण लोकतंत्र का पूरा लाभ गरीबों तक नहीं पहुँच पाया।

न्यायपालिका ने भी सत्ता-व्यवस्था को सही रास्ते पर लाने के लिए कई ऐतिहासिक फैसले दिए और आज भी लोग न्याय पाने का विश्वास रखते हैं। लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत यही आस्था है। फिर भी विशाल देश में न्याय के मंदिरों के परिसर में भी उपासना स्थलों के आँगन की तरह गंदा कीचड़ दिखने लगा है।

जनता और सरकार को आईना दिखाने वाले मीडिया-जनसंचार माध्यमों की क्रांति सी हुई है, लेकिन उसके चेहरे पर भी दाग दिखने लगे हैं। इस दृष्टि से हर कोने को झाड़ने-पोंछने-चमकाने, अधिकारों की जागरूकता के साथ कर्तव्यपालन के संकल्प तथा सही अर्थों में आर्थिक आत्मनिर्भरता के निश्चय का गणतंत्र दिवस पावन पर्व है। आइये, हम और आप इसी गणतंत्र को सार्थक बनाने का संकल्प लें। संकल्प की सार्थकता के लिए शुभकामनाएँ। ( लेखक नईदुनिया के प्रधान संपादक हैं)

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