'गण' की भागीदारी और 'तंत्र' की पारदर्शिता

गरिमा संजय दुबे
फिर से हम खड़े है , गणतंत्र दिवस की चौखट पर बहुत सारी आशा, विश्वास ,उमंग ,उल्लास और साथ ही कईं आशंकाओं व निराशाओं के साथ। किसी राष्ट्र के जीवन के नव निर्माण के 69 वर्ष कोई बहुत बड़ी अवधि नहीं है ,किंतु भारत सिर्फ 69 वर्ष पुराना तो नहीं। यह तो वैदिक प्राचीन सनातन सभ्यता है जो कई पड़ावों से गुजरते हुए अपने वर्तमान स्वरूप में हमारे सम्मुख है। भारत का दूसरा बड़ा  गणतंत्र आज इतिहास के उस मुहाने पर खड़ा है जहां से उसकी आंखों में विश्व विजय का सपना पल रहा है।

अपनी पुरानी गौरव गरिमा को फिर से पा लेने का आत्मविश्वास  जाग रहा है। बहुत से ऐसे तथ्य है जो हमारी इस प्रगति को एक शोध  की श्रेणी में रखते हैं। इतनी विविधता, इतनी विसंगतियां लेकिन फिर भी भारत आज पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था है। अपनी उललेखनीय किंतु शांतिप्रिय प्रगति से विश्व को हैरत में डालती विश्व की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था जिन कारणों से आलोचना का शिकार होती रही है यदि उन कारणों को दलगत राजनीति से उपर उठकर सुलझाया गया होता तो निश्चित रूप से भारत आज विश्व गुरु होता। जातिगत राजनीति, भ्रष्टाचार का लहू बन रगों में दौड़ना, सिर्फ अधिकार की बात कर्तव्य की अनदेखी, आरक्षण की विसंगतियां, गरीबी अमीरी की खाई, शिक्षा व्यवस्था की खामियां, सरकारी तंत्र का लचर होना, निजी स्वार्थ पर देश हित कुर्बान करने की प्रवृत्ति, गरीबी भुखमरी ,वोट बैंक की राजनीति, तुष्टिकरण, जनसंख्या विस्फोट, अवसरों की कमी व्यवस्था के कुछ ऐसे दीमक हैं  जो आज भी अपने वीभत्स रूप में राष्ट्र के चेहरे पर कोढ़ बन कर उसके बहुरंगी सौंदर्य को मलीन कर रहें हैं।

सोचिए यह न होते तो भारत आज कहां होता , लेकिन आश्चर्य तो यह है कि इनके होने के बावजूद आज भारत जहां है वहां होने का स्वप्न भी कई राष्ट्र नहीं देख सकते। कुछ बात तो है हममे जो हस्ती मिटती नहीं हमारी। हमारी अदम्य जिजीविषा ने जो ज़मीन तैयार की है उसमे कई पीढ़ियों के परिश्रम का स्वेद उर्वरक बन कर कार्य कर रहा है। अब आधुनिक भारत को ऐसी व्यवस्था की दरकार है जो बिना भेद किए गण को तंत्र के हर निर्णय में भागीदारी का अवसर दें, जन प्रतिनिधि के रूप में यह व्यवस्था तो है किंतु तंत्र को अधिक पारदर्शी होने की आवश्यकता है। यहां यह बात भी नहीं भूली जानी चाहिए कि गण और तंत्र एक दूसरे के पूरक है । गण अपने कर्तव्य को पूरा करें और तंत्र अपनी नीतियों से गण को उसके अधिकार दें और कर्तव्य पूर्ति के सरल नियम बनाए। आधुनिक भारत का निर्माण दोनों की ही सजग भागीदारी से संभव है। अब यह नहीं हो सकता कि एक तरफ आप अमेरिका के ट्रैफिक नियमों की तारीफ़ करें और खुद नियमों का पालन ना करें। विदेशों की जगमगाती सड़कों को देख आहें भरें और पिच्च से अपनी सड़कों पर थूक दे। भ्रष्टाचार की आलोचना करें और खुद भ्रष्टाचारी बने रहें, सोचिए राष्ट्र कोई जीवंत इकाई नहीं है उसे जीवंत इकाई आप बनाते हैं। एक भूमि के टुकड़े का परिचय वहां निवास करने वाले मनुष्यों से होता है वैसे बने जैसा देश आप चाहते हैं, पर उपदेश कुशल बहुतेरे, की तर्ज पर दूसरों में बदलाव किसी भी तरह की उन्नति और प्रगति की गति धीमी कर देता है।  

कहना न होगा कि आज़ादी के 70 साल बाद भी यदि हमें यह बताना पढ़े कि शौच कहां जाया जाए तो यह हमारी सामूहिक विफलता है। कुछ क्षेत्रों को तो 'यह ऐसे ही रहेंगे' कह कर अनदेखा किया जाता रहा आज संचार क्रांति और प्रभावी प्रचार से जनता की मानसिकता में परिवर्तन दिखाई दे रहा है।भ्रष्टाचार तो शिष्टाचार है वाली सोच में परिवर्तन भी नज़र आ रहा है। इस देश का युवा अब और अधिक अपने देश को पिछड़ा कहलाना पसंद नहीं करेगा। वह दुनिया घूम रहा है और अपने देश को भी उसी तर्ज पर विकसित करना चाहता है जहां बिना भेद के अवसरों की समानता हो। कई मतभेदों के बावजूद शांति पूर्ण समृद्धि और आधारभूत स्वच्छ स्वस्थ जीवन के प्रति बढ़ती जागरूकता गणतंत्र ,लोकतंत्र के लिए एक अच्छा संकेत है, बशर्ते विरोध के लिए विरोध करने की प्रवृत्ति पर लगाम लगाई जा सके और जनता अपने बीच पल रहे स्वार्थी व कुटिल तत्वों को नकारना सीखें  व सभी समय-समय पर अपनी जिम्मेदारी का स्मरण करते रहें।

गलत का एकजुट हो विरोध करने का साहस जगा सके। लक्ष्य अभी दूर है किंतू असंभव नहीं। परिवर्तन ही एक मात्र सत्य है और उस परिवर्तन को सकारात्मक दिशा देना ही वर्तमान को स्वर्णिम इतिहास में बदल सकता है।

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