भारत का संविधान स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने वाले नेताओं ने रचा था। दलित नेता डॉ. भीमराव आम्बेडकर उन रचनाकारों में प्रमुख थे। यह कैसा युगांतरकारी सुखद संयोग था कि मनुस्मृति के बाद इस देश में जो नई आचरण-संहिता रची गई वह ब्राह्मणवाद विरोधी दलित चिंतक ने रची।
संविधान के निर्माता संसार के कई समुन्नत जनतांत्रिक देशों के संविधानों से तो परिचित थे ही, अपने देश की जमीनी हकीकत की कमियों, संभावनाओं और आवश्यकताओं को भी वे बखूबी जानते थे। उनके सामने मुख्य सवाल था भारत को किन स्थितियों से मुक्ति चाहिए। वे भारतीय जनता की पराधीनता के विभिन्न रूपों से परिचित थे और उसी की मुक्ति के लिए उन्होंने संघर्ष किया था। उन्होंने ऐसा संविधान रचा जो सारतः शोषित, दलित, वंचितजनों को ऊपर लाने के लिए प्रतिबद्ध हो और जो सरकारों के सामने एक सुनिश्चित लक्ष्य रखता हो।
इसीलिए अनेकानेक विरोधी स्थितियों और अनवरत विपत्तियों और अव्यवस्था के बावजूद हमारे देश का राजनीतिक और सामाजिक ढांचा बरकरार है। आप अपने देश के चारों ओर निगाहें डालकर देखिए, एशिया और अफ्रीका में शायद ही कोई ऐसा देश दिखाई पड़े जिसने अपना संविधान कई बार ध्वस्त न किया हो! जहां इतने दिनों तक लगातार नियमतः चुनाव होते रहे हों, जिन्होंने अपनी आर्थिक आय बढ़ाई हो। यही नहीं जिन्होंने नारी पराधीनता और सामंती वर्णव्यवस्था के उन्मूलन के लिए सफलतापूर्वक ऐसे सफल प्रयत्न किए हों, अनेक अमानवीय, भ्रष्टाचारी और हिंसक साम्प्रदायिक वारदातों के बावजूद! फिर गड़बड़ी कहां है? जैसा समाज हम स्वाधीनता आंदोलन के दौरान बनाना चाहते थे, वैसा क्यों नहीं बना पा रहे हैं? हमें क्यों लगता है कि हम अपने संविधान की मूल प्रस्तावना से भटक गए हैं।
निस्संदेह देश आर्थिक दृष्टि से अधिक समृद्ध हुआ है, दलितोत्थान और नारी-जागरण भी हुआ है। लोगों के दैनिक जीवन का स्तर बेहतर हुआ है। शिक्षा का प्रसार हुआ है। लेकिन, यह सब जिस बढ़ोत्तरी से संभव हुआ, उसका वितरण बहुत असंतुलित और एकांगी है। देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ी है। मध्यवर्ग का एक अंश बहुत तेजी से समृद्ध हुआ है। समृद्ध होने वालों में व्यापारी, बुद्धिजीवी, पत्रकार, विश्वविद्यालयों के अध्यापक नौकरशाह और केंद्रीय सेवा के कर्मचारी हैं। लेकिन, इनसे भी अधिक समृद्ध प्रापर्टी डीलर, भू-माफिया, अपराधकर्मी और राजनीतिकर्मी, क्रिकेट के खिलाड़ी और अनेक कलाओं के दलाल बुद्धिजीवी हुए हैं। कहते हैं कि कविता सच को जिस ढंग से बयान करती है, वह कुछ अलग होता है। मुक्तिबोध ने 'अंधेरे में' नामक कविता में रात में निकलने वाले जुलूस का एक बिंब 1960 के आसपास ही खींचा था। इस जुलूस में कौन लोग शामिल हैं। वे कौन से लोग हैं जो भीतर के राक्षसी स्वार्थ को साधने के लिए एकजुट हो गए हैं :
'कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल
कई और सेनापति-सेनाध्यक्ष
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगे थे,
उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे,
उनके लेख देखे थे,
यहां तक कि कविताएं पढ़ी थीं
भई वाह!
उनमें कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण
मंत्री, उद्योगपति और विद्वान भी ,
यहां तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात डोमाजी उस्ताद भी ...
अभी कुछ दिन पहले तक इस कविता में कर्नल, ब्रिगेडियर का अर्थ साफ नहीं होता था, लेकिन कविता के सौभाग्य से और देश के दुर्भाग्य से अब इस बिंब में कर्नल-ब्रिगेडियर, सेनाध्यक्ष का अर्थ भी साफ हो गया है।
साम्राज्यवादी और पूंजीवादी सभ्यता ने कुछ लोगों के लिए भौतिक समृद्धि का इंतजाम किया है और बहुसंख्यकजन की घोर उपेक्षा की। समस्त पारंपरिक सांस्कृतिक मानवीय मूल्यों के स्थान पर व्यक्तिगत धन की बढ़ोत्तरी को स्थापित कर दिया है। आचरण को ध्यान में रखें तो यह अर्थतंत्र सर्वाधिक मूल्यांध, कट्टर और निरंकुश है। सभी मानवीय मूल्यों और सांस्कृतिक मूल्यों पर हावी है। अखबारों में सुर्खी छपती है "देश के शीर्षस्थ क्रिकेट खिलाड़ी की नीलामी" और उन खिलाड़ियों का प्रसन्नवदन चेहरा साथ में चिपका रहता है। खिलाड़ियों की बात छोड़ दीजिए, हमारे संगीत को क्या हो रहा है। संगीत अब सुनने की चीज ही नहीं रह गया है। जो श्रव्य था वह विशुद्ध दृश्य हो गया है। दृश्य भी कैसा? अर्धनग्नप्राय, किशोरियों के विभिन्न अंगों के उत्तेजक चित्र। हमारा वर्तमान दौर नवयुवकों और बच्चों को कौन सा स्वप्न प्रदान कर रहा है, कौन सा भविष्य!
यह पूरा परिदृश्य केवल किताबी या अखबारी नहीं है! ऐसा नहीं है अपराध, हत्या, बलात्कार, वृद्धों की हत्या, तीन चार साल के बच्चे-बच्चियों से दुष्कर्म, सड़क पर क्षणिक आवेश में हत्या, यह सब समाज की घटनाएं हैं। यह तय है कि इस मानवनिरपेक्ष बढ़ोत्तरी पर लगाम लगेगी! राजनीति के द्वारा, कानून के द्वारा, सामाजिक चिंता के द्वारा या फिर किसी भयावह अकथनीय तरीके से। इतिहास के गर्भ में कई रास्ते पल रहे हैं। जैसा कि प्रारंभ में कहा गया था कि हमारा संविधान इतना पर्याप्त है कि वह राजनीतिक उथल-पुथल को संभाल सके और हमारा जनतंत्र अभी तक सारी विपत्तियों और आशंकाओं के बावजूद संभला और विकासोन्मुख है। लेकिन, जो दिक्कतें अब पेश हो रही हैं वे अपवर्जी बढ़ोत्तरी, भ्रष्टाचार और मूल्यांधता के नए रूप दिखा रही है। उनसे डर लगता है कि हमारा जनतंत्र कहीं शक्तिहीन न हो जाए और सत्ता पर केवल उन लोगों का वर्चस्व न हो जाए जो केवल अपने लिए किसी भी तरह से धन-शक्ति बटोरना चाहते हैं।