विज्ञान 2010 : खुले नए रहस्य (2)

नवनिर्माण में समर्पित रहा बीता साल

राम यादव
प्रतिपदार्थ (एंटीमैटर) का हुआ निर्माण
सेर्न प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों की ही एक दूसरी टीम ने नवंबर के मध्य में यह सनसनीखेज खबर दी कि वह ज्ञात पदार्थ का विलोम समझे जाने वाले प्रतिपदार्थ (एंटीमैटर) का निर्माण करने में सफल रही है। यह प्रतिपदार्थ हमारे भौतिक जगत के किसी परमाणु की दर्पण में बनी प्रतिछवि के समान है। पदार्थ और प्रतिपदार्थ आपस में मिलते ही एक-दूसरे को तुरंत नष्ट कर देते हैं। इसीलिए प्रतिपदार्थ का निर्माण कर सकना बहुत बड़ी चुनौती रहा है।

पदार्थ से तात्पर्य है पदार्थ की परमाणु कहलाने वाली उन इकाइयों से, जिनसे इस चराचर जगत की हर चीज बनी है। हमारी दुनिया वाले परमाणुओं के इलेक्ट्रॉनों पर बिजली का ऋणात्मक (नेगेटिव) आवेश होता है। प्रोटोनों पर धनात्मक (पॉज़िटिव) आवेश होता है और न्यूट्रॉनों पर कोई आवेश (चार्ज) नहीं होता। न्यूट्रॉन और प्रोटोन परमाणु के नाभिक (केंद्र) में रहते हैं और इलेक्ट्रॉन इस नाभिक की परिक्रमा करते हैं। किसी परमाणु में इन तीन मूल कणों की अलग- अलग संख्या ही उसे ठोस, तरल या गैसीय आकार वाले अलग-अलग तत्वों का रूप देती है।

प्रतिपदार्थ का हर परमाणु भी मूल रूप में इन्हीं तीनों मूल कणों का बना होता है, पर उस के न्यूट्रॉनों को छोड़ कर बाकी दोनों कणों पर का विद्युत आवेश उलटा होता है। यानी उसके इलेक्ट्रॉनों पर ऋणात्मक नहीं, धनात्मक आवेश होता है, इसीलिए उन्हें पॉज़िट्रॉन कहते हैं। इसी तरह प्रतिपदार्थ के प्रोटोनों पर धनात्मक नहीं, ऋणात्मक आवेश होता है और वे एन्टीप्रोटोन कहलाते हैं। मजे की बात यह है कि पूरे ब्रह्मांड में ऐसी कोई जगह नहीं मिली है, जो प्रतिपदार्थ की बनी हो।

एन्टी-हाइड्रोजन के 38 परमाणु पैद ा
सेर्न प्रयोगशाला में प्रतिपरमाणु का निर्माण करने के प्रयोग में, जिसे अल्फ़ा नाम दिया गया था, एन्टी-हाइड्रोजन के 38 परमाणु पैदा किए गए। उनका जीवनकाल एक सेकंड के केवल छठें हिस्से जितना ही लंबा था, पर विज्ञान जगत इसे एक चमत्कारिक उपलब्धि मानता है। प्रतिपदार्थ वाले प्रयोग अल्फ़ा के प्रवक्ता जेफ्री हैंग्स्ट ने बताया कि 'सेर्न ही इस समय दुनिया में एकमात्र ऐसी जगह है, जहाँ हमें अपने प्रयोग लायक एन्टीप्रोटोन मिल सकते हैं। हम उन्हें त्वरक (एक्सिलरेटर) में तांबे (कॉपर) की एक पट्टी पर सामान्य प्रोटोनों की अत्यंत तेज गति बौछार से पैदा करते हैं।'

ताकि प्रतिपदार्थ के प्रतिपरमाणु किसी सामान्य पदार्थ के सामान्य परमाणुओं को स्पर्श न कर सकें (वर्ना वे तुरंत एक-दूसरे को तुरंत नष्ट कर देते), उन्हें बिजली के बड़े-बड़े चुंबकों द्वारा एक शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र के पिंजड़े में अधर में लटकाए रखा गया और पूर्ण निर्वात के बीच 0.5 डिग्री केल्विन तक, यानी इतना ठंडा किया गया कि उनका तापमान परमशून्य वाले तापमान ऋण 273 डिग्री सेल्ज़ियस से केवल आधा डिग्री अधिक रह जाए।

अगले प्रयोगों में सेर्न के वैज्ञानिक जानने का प्रयास करेंगे कि हाइड्रोजन और एन्टी-हाइड्रोजन क्या एक ही जैसे भौतिक नियमों का पालन करते हैं? विज्ञान के सिद्धांत तो यही कहते हैं कि दोनों पर एक ही जैसे भौतिक नियम लागू होने चाहिए। पर, ऐसा है या नहीं, यह निश्चित रूप से मालूम नहीं है। सिद्धांततः तो ब्रह्मांड के जन्मदाता महाधमाके (बिग बैंग) के समय,परमाणु और प्रतिपरमाणु बराबर-बराबर मात्रा में ही रहे होने चाहिए। होना तो यह चाहिए था कि दोनो एक-दूसरे का इस तरह सफाया कर देते कि ब्रह्मांड में पदार्थ या प्रतिपदार्थ जैसा कुछ भी शेष नहीं बचता। लेकिन, हम तो यही देख रहे हैं कि ब्रह्मांड के अरबों-खरबों ग्रह व तारकमंडल हमारी दुनिया वाले अणुओं-परमाणुओं के ही बने लगते हैं।

प्रतिपदार्थ (एन्टी-हाइड्रोजन) के निर्माण में मिली सफलता से उत्साहित सेर्न के उपप्रमुख सैर्जियो बैर्तोलुच्ची का कहना है कि सेर्न का कोलाइडर इस तेजी के साथ वैज्ञानिक शोध के नए क्षेत्रों में प्रवेश कर रहा है कि आने वाले महीने डार्क मैटर के बारे में भी अंदरूनी जानकारी दे सकते हैं। माना जाता है कि ब्रह्मांड का 25 प्रतिशत हिस्सा ऐसे डार्क मैटर ( रहस्यमय काले पदार्थ) का बना है, जो प्रकाश को परावर्तित नहीं करता, इसलिए उसे देखा नहीं जा सकता। शेष भाग के 70 प्रतिशत में रहस्यमय अदृश्य डार्क एनर्जी (काली ऊर्जा) फैली हुई है। हमें दिखाई पड़ने वाला केवल 5 प्रतिशत दृष्टिगोचर भाग असंख्य तारों और उनके जमघट वाली मंदाकिनियों (गैलेक्सियों) से भरा पड़ा है।

सू्र्य आएगा धरा के पा स
सू्र्य को धरती पर उतारने का वैज्ञानिकों का सपना 2010 में साकार होने के कुछ और निकट पहुँच गया। अमेरिकी वैज्ञानिक लेज़र किरणों की क्षणिक बौछार से हाइड़्रोजन के नाभिकों का आपस में विलय करने लायक तापमान पैदा करने में सफल रहे। परमाणु संगलन से अक्षय ऊर्जा का दोहन यद्यपि अब भी दशकों दूर है, पर विज्ञान की पहुँच से अब बाहर नहीं रहा।

सू्र्य के भीतर और सभी तारों के गर्भ में हर क्षण अरबों-खरबों टन हाइड्रोजन परमाणुओं का आपस में विलय होता रहता है। इसी से एक तरफ हीलियम बनता है तो दूसरी तरफ़ वह अंतहीन प्रचंड रोशनी और गर्मी पैदा होती है, जो पृथ्वी पर हमें जीवन प्रदान करती है। परम शक्तिशाली हाइड्रोजन बम में भी एक क्षण के लिए यही क्रिया होती है, लेकिन जीवन देने के लिए नहीं, जीवन लेने के लिए।

अमेरिका में कैलीफ़ोर्निया की लॉरेंस लिवरमोर प्रयोगशला के वैज्ञानिकों ने जनवरी के अंतिम दिनों में ऐसा ही एक प्रयोग किया। अमेरिकी सेना की इसी प्रयोगशाला के पास है संसार का सबसे शक्तिशाली लेज़र संयंत्र नैशनल इग्निशन फैसिलिटी NI F। वहाँ, एक नन्हे से कैप्सूल पर, महाशक्तिशाली लेज़र किरणों की चौतरफ़ा बौछार की गई। ऐसे ही एक कैप्सूल में बाद में हाइड्रोजन के दो आइसोटोपों, यानि समस्थानिकों (ड्यूटेरियम और ट्रीशियम) का बर्फ की तरह जमा हुआ एक मिश्रण रखा रहेगा। कह सकते हैं कि तब वह एक मिनी हाइड्रोजन बम और साथ ही पृथ्वी पर एक मिनी सूर्य जैसा होगा।

दस करोड़ बार दबाव, 11 करोड़ डिग्री तापमा न
सोने का बना यह कैप्सूल बीमारी के समय निगलने वाली दवा के किसी नन्हें-से कैप्सूल जितना बड़ा और उसी जैसा बेलनाकार था। उस पर 192 अल्ट्रावॉयलेट (पराबैंगनी) लेज़र किरणें फ़ोकस की गईं। उनसे पैदा हुई एक मेगाजूल से भी अधिक की इतनी प्रचंड ऊर्जा इससे पहले कभी किसी एक ही बिंदु पर केंद्रित नहीं की जा सकी थी। इस प्रचंड ऊर्जा से कैप्सूल की बाहरी दीवार भाप बन कर तुरंत प्लाज्मा बन जाती है। प्लाज्मा एक ही झटके में इस बुरी तरह फैलता है कि कैप्सूल के भीतर क्षण भर में दस करोड़ बार के बराबर दबाव और 11 करोड़ डिग्री सेल्ज़ियस के बराबर तापमान पैदा हो सकता है। इस अकल्पनीय तापमान और दबाव पर ड्यूटेरियम और ट्रीशियम वाले हाइड्रोजन परमाणुओं के नाभिक आपस में जुड़ कर हीलियम बन जाएँगे और साथ ही भारी मात्रा ऊर्जा मुक्त होगी।

पृथ्वी पर सूर्य फिर भी कोसों दू र
अमेरिकी वैज्ञानिकों ने विज्ञान पत्रिका साइंस में लिखा कि वे अपने प्रयोग में परमाणु संगलन के लिए आवश्यक 33 लाख डिग्री सेल्सियस का तापमान पैदा करने और 192 अल्ट्रावॉयलेट लेज़र किरणों को एकसाथ एक ही बिंदु पर फोकस करने में सफल रहे हैं। अब वे लेज़र किरणों की शक्ति और कैप्सूल का आकार और बढ़ाना चाहते हैं, ताकि पहली बार हाइड्रोजन के साथ परमाणु संगलन क्रिया का प्रयोग भी कर सकें। वे यदि इस में सफल हो भी जाते हैं, तब भी परमाणु संगलन से बिजली पाने का रास्ता अभी बहुत लंबा है। इस संयंत्र पर काम कर रहे एक वैज्ञानिक बॉब काउफ़मैन ने बताया, 'हम इस समय केवल हर तीन घंटे बाद लेज़र कौंध पैदा कर सकते हैं लेकिन हर कौंध के बाद क्योंकि हमें नयी तैयारियाँ करनी पड़ती हैं, इसलिए हम दिन में दो बर से अधिक ऐसा नहीं कर पाएँगे।'

संगलन क्रिया पर आधारित बिजली पैदा करने के लिए प्रति सेकंड कम से कम दस कैप्सूल प्रज्वलित करने पड़ेंगे, वर्ना संगलन क्रिया बार-बार रुक जाया करेगी। अमेरिकी लेज़र संयंत्र विश्व का सबसे शक्तिशाली संयंत्र होते हुए भी इस क्षमता से अभी कोसों दूर है। अभी लंबे समय तक वह एक वाट भी बिजली पैदा नहीं कर पाएगा। लेकिन, क्योंकि वह अमेरिकी सेना का एक शोध प्रतिष्ठान है, इसलिए उसके प्रयोग कंप्यूटर-अनुकरण (सिम्यूलेशन) द्वारा नए प्रकार के हाइड़्रोजन बमों के डिजाइन बनाने और इस समय के परमाणु बिजलीघरों से निकलने वाले रेडियोधर्मी कचरे के पुनर्प्रयोजन का कोई रास्ता निकालने के भी काम आ सकते हैं।

कृत्रिम जीवन की रचना का हुआ दाव ा
जैव-अनुवांशिकी के अमेरिकी वैज्ञानिक क्रेग वेंटर की खोजें दुनिया को चौंकाने और सनसनी फैलाने में जितनी समर्थ रही हैं, उतना दुनिया का भला करने में नहीं। वेंटर ने दस साल पहले मानवीय जीनोम को विकोडित कर अपने नाम का सिक्का जमाया था। 20 मई को वेंटर ने फिर एक धमाका किया-' हम आज पहली बार किसी सिंथेटिक कोशिका के निर्माण की घोषणा करते हैं। हमने कंप्यूटर में डिजिटल कोड के अध्ययन द्वारा उसका निर्माण किया है। हमने डीएनए-क्रोमोसोम लिपी को रसायनों द्वारा लिखा। क्रोमोसोम दस लाख अक्षरों जितना लंबा है। अक्षरों का अंतिम संयोजन हमने यीस्ट बैक्टीरिया में किया, ब्रेड और बीयर में जिस के काम से लोग परिचित हैं। वह डीएनए जोड़ने की क्षमता भी रखता है। जैसे ही डीएनए कोशिका में पहुँचता है, वह नये प्रोटीन बनाना शुरू कर देता है और कोशिका को एक नयी बैक्टीरिया प्रजाति में बदल देता है। यह पूरी तरह कृत्रिम कोशिका है, उसकी अरबों बार नकलें तैयार की गई हैं। कोशिका के भीतर का एकमात्र डीएनए हमारा बनाया कृत्रिम डीएनए है। धरती पर यह पहली ऐसी प्रजाति है, जिसके माँ-बाप का काम कंप्यूटर ने किया है।'

ऊँची दुकान, फ़ीके पकवा न
यह तो था बड़बोलेपन के लिए प्रसिद्ध वेंटर का अपना दावा। दुनिया भर के मीडिया इसे ले उड़े और वेंटर को भगवान की बराबरी में खड़ा करने लगे। लेकिन, जर्मनी में ब्राउनश्वाइग के आणविक (मॉलिक्युलर) जीववैज्ञानिक हेल्मुट ब्लौएकर, जो क्रेग वेंटर को निजी तौर पर जानते हैं, उनकी खोज को दिलचस्प तो बताते हैं, पर इससे अधिक महत्व नहीं देते-'इसे सिंथेटिक सेल (कृत्रिम कोशिका) कहना कतई सही नहीं है। यहाँ एक पहले से ज्ञात जीनोम का रासायनिक संश्लेषण हुआ है और उसे मूल कोषिका से मिलती-जुलती एक दूसरी को‍शिका के भीतर डाला गया है। मेरे लिए सिंथेटिक सेल का अर्थ है कि न केवल उसके जीनोम को रासायनिक विधि से रचा गया है, बल्कि उसका आनुवंशिक गुणधर्म भी कृत्रिम है।'

जैसा कि क्रेग वेंटर ने स्वयं बताया, उन की टीम ने वास्तव में रासायनिक विधि से निर्मित एक जीनोम को यीस्ट के जाने-पहचाने एककोशीय प्राकृतिक बैक्टीरिया में प्रतिरोपित किया था। प्रो. ब्लौएकर दशकों पहले अपनी प्रयोगशाला में स्वयं इस तरह के प्रयोग कर चुके हैं -'कृत्रिम जीन तो सन साठ वाले दशक से ही उपलब्ध हैं। उदाहरण के लिए, जिस टीम में मैं काम कर रहा था, उसने प्रोटीन को कोडबद्ध करने वाला पहला जीन बनाया था। बाद में इस तकनीक का और भी विकास हुआ। इसलिए यह कोई सनसनी नहीं है।'

वेंटर ने अपनी उपलब्धि का ढोल पीटते समय चिकित्सा विज्ञान और पर्यावरणरक्षा के लिए उसके केवल ऐसे उपयोगों के नाम गिनाए, जो सब को मनभावन लगते हैं। एक शब्द नहीं कहा कि कृत्रिम जीनोम वाले जीवाणुओं का चेचक या फ्लू के नये प्रकार के रोगाणुओं का निर्माण करने में भी तो उपयोग हो सकता है। वे युद्धप्रेमी सरकारों और आतंकवादियों के लिए मुँह माँगा वरदान भी तो साबित हो सकते हैं।

नवयौवन का दिया छलाव ा
निजी प्रसिद्धि और शोध-बजट के लिए धन पाने की धुन में कई बार वैज्ञानिक भी आँख में धूल झोंकने से परहेज नहीं करते। वे जानते हैं कि आजीवन युवा रहने और हो सके तो अमर बनने की आम आदमी की अभिलाषा प्रकृति के नियमों के सरासर विरुद्ध है। तब भी अभिलाषा की इस आग में वे घी डालते रहते हैँ। यहाँ तक कि अमेरिका के जगप्रसिद्ध हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के वैज्ञानिक भी इसका अपवाद नहीं हैं।

नवंबर के अंत में क्रेग वेंटर के बड़बोलेपन की तरह उन्होंने भी विज्ञान पत्रिका नेचर में डींग हाँकी कि चूहों पर अपने परीक्षणों द्वारा उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि जवानी को लौटाया जा सकता है और बुढ़ापे को विलंबित किया जा सकता है। उन्होंने दावा किया कि अपने प्रयोगों में उन्होंने एक एन्ज़ाइम के द्वारा बूढ़े चूहों को एक बार फिर से जवान कर दिया और उनकी आयु लंबी कर दी।

ढोल का पो ल
सच्चाई यह है कि उन्होंने प्राकृतिक रूप से पहले से ही बूढ़े हो चले चूहों में जवानी लौटाने के बदले-- अपेक्षाकृत जवान चूहों को दवाएँ देकर पहले कृत्रिम रूप से बूढ़ा बनाया। इसके बाद उन्हें 4- Hydroxytamoxifen नाम के एन्ज़ाइम का इंजेक्शन देकर उनमें नवयौवन का संचार किया। इंजेक्शन देने के चार सप्ताह के भीतर ही समय से पहले बूढ़े बना दिए गए इन चूहों के विभिन्न अंगों, मस्तिष्क और जननांगों में नई जवानी के लक्षण दिखाई पड़ने लगे। ऐसा सचमुच पहली बार हुआ है।

लेकिन, यहाँ देखना होगा कि शरीर बूढ़ा कैसे होता है और कभी न कभी मृत्यु सुनिश्चित क्यों है? चिकित्सा और शरीरक्रिया विज्ञान के तीन वैज्ञानिकों को 2009 का नोबेल पुरस्कार इसी विषय के लिए मिला था। ऑस्ट्रेलिया में जन्मी 60 वर्षीय एलिज़ाबेथ ब्लैकबर्न, ब्रिटेन में जन्मे 57 वर्षीय जैक शोस्ताक और अमेरिका में जन्मी 48 वर्षीय कैरॉल ग्राडर की खोज का केंद्र क्रोमोसोम (गुणसूत्र) का वह सिरा रहा है, जिसे 'टेलोमर कहते हैं और जो अपनी रासायनिक संरचना में एक एन्ज़ाईम है। एन्ज़ाइम ऐसे प्रोटीन होते हैं, जो कैटलिस्ट का, यानी जैवरासायनिक क्रिया के समय क्रिया को गति प्रदान करने वाले त्वरक का काम करते हैं, स्वयं कोई अभिक्रिया नहीं करते।

इन वैज्ञानिकों ने पाया कि हर क्रोमोसोम के दोनो सिरों पर बने 'टेलोमर' जो तुलना के लिए जूता बाँधने के फीते के दोनो सिरों को उधड़ने से रोकने के लिए बनी घुंडी या टोपी के समान होते हैं, अपनी लंबाई से कोशिका का जीवनकाल तय करते हैं। टेलोमर की लंबाई हर कोशिका विभाजन के साथ घटती जाती है और साथ ही कोशिका का जीवनकाल भी। घटते-घटते जब कुछ भी टेलोमर नहीं बचता, तब कोशिका भी मर जाती है। उनका और दूसरे वैज्ञानिकों का भी अनुमान था कि शायद यही इस बात का कारण है कि एकल कोशिकाओं ही नहीं, सभी अंगों और हमारे पूरे शरीर का एक निश्चित जीवनकाल होता है, हम अमर नहीं हो सकते। इस बीच अन्य खोजों से पता चला है कि शरीर के वृद्ध होने की क्रिया एक बहुत जटिल क्रिया है। उसमें टेलोमर की तो भूमिका है ही, और भी बहुत से कारक हैं, जो वृद्ध होने की गति घटा या बढ़ा सकते हैं।

तू डाल-डाल, तो मैं पात-पा त
1980 के दशक की इस खोज के बाद टेलोमरेज कहलाने वाली कुछ ऐसी दवाएँ बनी, जो कोशिका विभाजन के समय टेलोमर की लंबाई को घटने से रोक सकती थीं। लोग सोच रहे थे कि इन दवाओं से कोशिकाएँ जल्दी नहीं मरेंगी और हम चिरायु बनेंगे। हुआ उलटा। ऐसी दवाएँ लेने से कैंसर होने लगा, क्योंकि कैंसरग्रस्त कोशिकाएँ ही आसानी से नहीं मरतीं, बल्कि व्यक्ति को मार कर ही मरती हैं। उनका टेलोमर खत्म नहीं होता, इसलिए वे बिना मारे नहीं मरतीं, बल्कि अपनी अनियंत्रित क्लोनिंग करते हुए अपनी संख्या बढ़ाती जाती हैं।

4- Hydroxytamoxifen भी एक ऐसा ही टेलोमरेज है, जो कोशिका विभाजन के समय किंचित घट गए टेलोमर को कृत्रिम रूप से किसी हद तक फिर से बना देता है। इससे आदर्श परिस्थितियों में शुरु-शुरू में जवान बने रहने और बूढ़ा होने की गति के बीच संतुलन बना रहेगा। यौवनकाल कुछ और लंबा हो जाएगा, पर कभी न कभी नवयौवनीकरण की गति धीमी पड़ने लगेगी और बुढ़ाने की गति उसी अनुपात में बढ़ने लगेगी। तब, यदि पहले ही कोई कैंसर नहीं हो गया, तो बाद में कभी न कभी मृत्यु आ कर ही रहेगी।

विशेषज्ञ सबसे अधिक आलोचना इसी बात की करते हैं कि यह सारा परीक्षण केवल चूहों पर हुआ है, आदमियों पर नहीं। चूहे भी ऐसे, जो स्वाभाविक रूप से बूढ़े नहीं हुए थे, बल्कि जिन्हें दवा देकर कृत्रिम रूप से समय से पहले बूढ़ा बना दिया गया था। आदमियों के साथ ऐसा नहीं किया जा सकता। साथ ही, कोशिका विभाजन के समय यदि क्रोमोसोम वाले टेलोमर को घटने से रोक कर कोशिकाओं का जीवनकाल बढ़ाया जाता है, तो कैंसर की संभावना भी बढ़े बिना नहीं रहेगी। मृत्यु हो कर रहेगी। होगा यह कि मँहगी दवाओं की कृपा से हर मृत्यु और भी मँहगी पड़ेगी।

खुले राज राजा तूतनखामुन क े
हज़ारों साल पहले रहस्यमय स्फ़िंक्स और पिरामिड बनाने वाले मिस्र के लोगों की नील नदी घाटी सभ्यता संसार की सबसे पुरानी सभ्यताओं में गिनी जाती है। इस सभ्यता के फराओ कहलाने वाले राजा-रानियों की शान-शौकत और सुंदरता के बारे में एक से एक चटपटी कहानियाँ प्रचलित हैं। ऐसी ही कुछ कहानियों का नायक तूतनख़ामुन भी था, जिस के बारे में 17 फरवरी को कुछ अनसुने तथ्य सामने आए। मिस्र, जर्मनी और इटली के विशेषज्ञों की एक टीम ने उसकी ममी (सहेज कर रखे हुए शव) की डीएनए परीक्षा के आधार पर पाया कि वह तो लूला-लंगड़ा, रोगी और मरियल क़िस्म का महादयनीय आदमी था।

प्राचीन मिस्र के इतिहास के मिस्री विद्वान जाही हावस ने काहिरा में एक पत्रकार सम्मेलन बुला कर कहा, 'उसकी शारीरिक विकृति और हड्डियों की कमज़ोरी इस वजह से थी कि उसके पिता अखेनातन ने अपनी ही सगी बहन से शादी कर उसे पैदा किया था।इतिहासकारों के लिए यह एक महाधमाका था, हालाँकि प्राचीन मिस्र के फ़राओ राजाओं में भाई-बहन और बाप-बेटी के बीच शारीरिक और वैवाहिक संबंध अनहोनी बात नहीं थे। पिरामिड बनाने में पारंगत होते हुए भी मिस्री लोग शायद नहीं जानते थे कि सगे खून वाले वैवाहिक संबंधों से हमेशा आनुवंशिक बीमारियों का खतरा रहता है।

तूनख़ामुन करीब 3,300 साल पहले मात्र आठ साल की आयु में मिस्र का राजा बना था और11 साल बाद, केवल 19 साल की आयु में दुनिया से चल भी बसा। उसके बहुत कम आयु में ही चल बसने को लेकर सबसे आम अटकल यह थी कि शायद उसकी हत्या कर दी गई। नई खोज से सबसे बड़ा आश्चर्य यह सामने आया कि उस की हत्या नहीं हुई थी। हावस ने बताया, 'हमने डीएनए टेस्ट से पाया है कि उसे मलेरिया की गंभीर बीमारी भी थी। 2005 में मैंने पाया था कि उस के बाँए पैर की हड्डी उसकी मृत्यु से कुछ ही घंटे पहले टूट गई थी।'

डीएनए परीक्षा से साफ़ हो गया कि तूतनखामुन के माता-पिता सगे भाई-बहन थे। यह पहले से पता था कि तूतनखामुन के पिता अखेनातन की पहली पत्नी और अपने समय की सर्वसुंदरी नेफेरतिती की केवल बेटियाँ थीं, कोई बेटा नहीं था। नेफेरतिती का शव या तो अभी तक मिला नहीं है या उस की पहचान नहीं हो पाई है।

हावस ने बताया, 'तूतनख़ामुन हड्डी गलने के अस्थिक्षय का गंभीर रोगी था। उस का बाँया पैर और पैर का अँगूठा टेढ़ा था, सूजा हुआ था, दर्द करता था। इसीलिए वह लँगड़ाता था। लाठी के सहारे चलता था। शिकार के समय तीर बैठ कर चलाता था। यदि वह सामान्य शरीर वाला होता, तो खड़े होकर निशाना साधता।'

तूतनखामुन की दारुण कथा इस बात का प्रमाण है कि डीएनए विश्लेषण की सहायता से हजारों वर्ष बाद भी कितना कुछ जाना और बड़े-बड़े इतिहासकारों की भूलों को कैसे सुधारा जा सकता है।

आदिमानव की मिली नई प्रजात ि
हजारों वर्ष पुरानी एक हड्डी के डीएनए विश्लेषण के आधार पर ही मार्च 2010 में रूस और जर्मनी के वैज्ञानिकों ने घोषणा की कि उन्हें मनुष्य के पूर्वजों की एक नई प्रजाति का पता चला है। 2008 में रूसी वैज्ञानिकों को साइबेरिया के अल्ताई पर्वतों में बसे देनीसोवा के पास की एक गुफा में एक अँगुली की टूटी हुई हड्डी मिली। उन्होंने उसे जाँच के लिए जर्मनी में लाइपज़िग के विकासात्मक नृवंश विज्ञान माक्स प्लांक संस्थान के पास भेजा।

लाइपज़िग के वैज्ञानिकों ने पाया कि इस हड्डी की कोशिकाओं वाले डीएनए अब भी काफी अच्छी हालत में थे। उन्होंने कोशिका का पावर हाउस कहलाने वाले माइटोकोंड्रिया के डीएनए की अब तक ज्ञात अन्य मानव प्रजातियों के डीएनए से तुलना की। पता चला कि यह हड्डी हमारे पूर्वजों की एक बिल्कुल नयी प्रजाति की होनी चाहिए। वह प्रजाति 30 से 48 हज़ार वर्ष पूर्व मध्य एशिया के जंगलों-पहाड़ों के बीच रहती रही होगी।

30 से 48 हज़ार वर्ष का अर्थ है कि अब तक अज्ञात इस प्रजाति का मनुष्य भी उस समय रह रहे नेआन्डरथाल मनुष्य और होमो सापियन्स का समकालीन था। नेआन्डरथाल मनुष्य तो उस गुफ़ा से केवल 100 किलोमीटर ही दूर रहा करता था, जहां नयी मानव प्रजाति वाली उंगली की हड्डी मिली थी।

पूर्वज प्रजातियों की संख्या अब चार हु ई
वैज्ञानिक कहते हैं कि इन तीनों आदि प्रजातियों का साझा पूर्वज कोई 10 लाख साल पहले रहा करता था। हमारे और साइबेरियाई आदिमानव के जीनों के बीच 400 से अधिक ऐसे अंतर हैं, जो उसे एक भिन्न प्रजाति बना देते हैं। प्रजाति का अर्थ है, दोनो के मेल से कोई साझी संतान नहीं पैदा हो सकती। इस नयी प्रजाति को अभी कोई नाम नहीं दिया गया है। सुविधा के लिए उसे देनीसोवा होमिनीड (मनुष्य-समान) कहा जा रहा है।

2003 में इंडोनेशिया के फ्लोरेस द्वीप पर आदिकालीन मनुष्य की एक बौनी प्रजाति के अवशेष मिले थे, जो लगभग दस हजार साल पहले लुप्त हो गई। उसे बोलचाल की भाषा में होबिट और विज्ञान की भाषा में होमो फ्लोरेसियेंसिस कहा जाता है। होबिट के मिलने तक नृवंश विज्ञान के शब्दभंडार में केवल दो मानव प्रजातियाँ हुआ करती थीं-होमो सापियन्स और नेआन्डरथाल।

होबीट और देनीसोवा होमिनीड को मिला कर मनुष्य की अब तक ज्ञात प्रजातियों की संख्या अब चार हो गई है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि चारो प्रजातियाँ हजारों वर्षों तक इस पृथ्वी पर साथ-साथ जी रही थीं, लेकिन समय के साथ तीन प्रजातियाँ लुप्त हो गईं और बचे केवल हम होमो सापियन्स (आधुनिक मानव)। यह स्पष्ट नहीं है कि बाकी तीनों प्रजातियाँ लुप्त क्यों हो गईं।

नेआन्डरथाल मनुष्य भी हमारा पूर्वज थ ा
अब तक माना जाता था कि आधुनिक मनुष्य की होमो सापियन्स और नेआन्डरथाल प्रजातियों का सदियों तक सहअस्तित्व ज़रूर रहा है, पर दोनों के बीच कोई सहमेल या समागम नहीं हुआ। लेकिन, मई में वैज्ञानिकों की एक अंतरराष्ट्रीय टीम इस नतीजे पर पहुँची कि यह मान्यता सही नहीं है।

जर्मनी में लाइपज़िग स्थित विकासवादी नृवंश विज्ञान के माक्स प्लांक संस्थान के डॉ. योहानेस क्राउज़े इस टीम के एक प्रमुख सदस्य थे। वह कहते हैं, 'नेआन्डरथाल मनुष्य के जीनोम के अध्ययन से सबसे महत्वपू्र्ण यह तथ्य सामने आया कि उसके और आज के मनुष्य के जीनों में वाकई आनुवंशिक मेल हुआ है।'

क्राउज़े और इस टीम के मुखिया जर्मनी के ही प्रो. स्वान्ते पैऐबो ने नेआन्डरथाल मनुष्य के जीनोम की 35 लाख कड़ियों का बारीक़ी से अध्ययन किया। रूस, स्पेन, क्रोएशिया और जर्मनी में मिली 40 हज़ार साल पुरानी हड्डियों की कोशिकाओं से उन्होंने यह आनुवंशिक सामग्री जुटाई और उसे क्रमबद्ध किया। इन जीनों और आज के मनुष्य के जीनों के बीच तुलना से पता चला कि यूरोप और एशिया वालों के दो से चार प्रतिशत तक जीन नेआन्डरथाल मनुष्य की देन हैं।

यूरोपवासी नेआन्डरथालर के निक ट
इस तुलना के लिए वैज्ञानिकों ने नेआन्डरथाल मनुष्य के लगभग 60 प्रतिशत, यानी एक अरब से अधिक डीएनए टुकड़ों का अफ्रीका, पापुआ न्यूगिनी, चीन और फ्रांस में रहने वाले आज के मनुष्य के डीएनए के साथ मिलान किया। पता चला कि अफ्रीकी लोग आनुवंशिक रूप से नेआन्डरथाल मनुष्य के उतना निकट नहीं हैं, जितना एशिया और यूरोप वाले हैं। आमतौर पर दो अलग प्रजातियों के मेल से कोई संतान नहीं पैदा होती। पर, आज के मनुष्य के जीनोम में चार प्रतिशत तक नेआन्डरथाल मनुष्य के जीन मिलने का मतलब है कि बहुत कम ही सही, दोनों के मेल से कुछ संतानें पैदा हुईं और उनकी वंशपरंपरा आगे भी बढ़ी।

मिलन कहाँ हु आ
यानी नेआन्डरथाल मनुष्य भी हमारा पूर्वज है। जर्मनी और अमेरिका की मिलीजुली शोधकर्ता टीम का अनुमान है कि दोनों के बीच पहली बार मेल पचास हज़ार से एक लाख साल पहले मध्यपूर्व में कहीं हुआ। मध्यपूर्व में ही क्यों? योहानेस क्राउज़े का अनुमान है, 'अफ्रीका से पलायन करने वाले सभी आधुनिक मनुष्यों को सिनाई प्रायद्वीप वाले रास्ते से गुज़रना पड़ा, इसलिए शायद वहीं कहीं दोनों का मिलन भी हुआ होगा।' इस खोज में चार साल लगे हैं। हड़्डियों के जिस केवल 400 मिली ग्राम पाउडर की इसमें निर्णायक भूमिका रही है, वह तीन ऐसी नेआन्डरथाल महिलाओं की हड्डियों से मिला, जो क्रोएशिया की एक गुफा में खुदाई में मिली थीं।

नृवंश विज्ञान की दृष्टि से वर्ष के दो अन्य प्रमुख समाचार यह थे कि कैलीफोर्निया विज्ञान अकादमी के अनुसार, इथियोपिया के अफार इलाके में पत्थर के औजारों का इस्तेमाल क़रीब 34 लाख साल पहले शुरू हो गया था, और आज से 50,000 साल पहले भी इंसान समुद्र तल से करीब 2000 मीटर की ऊँचाई पर रहा करते थे, हालाँकि इतनी ऊँचाई पर तापमान बहुत कम होता है। समझा जाता है कि वे भोजन की तलाश में इतनी ऊँचाइयों तक पहुँचे होंगे। पापुआ न्यूगिनी, न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया में इस ऊँचाई पर पत्थर के ऐसे औजार मिले हैं, जो 50,000 साल पुराने हैं।

चाँद पर पानी- पृथ्वी पर सँखियाभक्षी बैक्टीरिय ा
अंतरिक्ष की गहराइयों में बिखरे हुए असंख्य ग्रहों, तारों और तारकमंडलों के बारे में 2010 में भी आए दिन नई-नई बातें मालूम पड़ती रहीं, पर वे अधिकतर वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की आपसी बहस का विषय रहीं। जनसाधरण की मुख्य रुचि अब भी यही जानने में है कि पृथ्वी से दूर क्या कहीं कोई दूसरी सभ्यता भी है? इस प्रश्न का कोई उत्तर मिलता दिखाई नहीं पड़ता।

उत्तर मिला इस प्रश्न का कि क्या चंद्रमा पर सचमुच पानी है? भारत के पहले चंद्र मिशन से फरवरी में यह बात साबित हो गई कि चंद्रमा पर पानी भी है और बर्फ़ भी। चंद्रयान-1 में रखे अमेरिकी अंतरिक्ष अधिकरण नासा के राडार 'मिनी सार' ने पता लगाया कि चाँद पर बर्फ़ से भरे कम से कम 40 गड्ढे हैं। इनका व्यास दो किलोमीटर से लेकर 15 किलोमीटर तक हो सकता है। नासा ने आशा जताई है कि चाँद पर 60 करोड़ टन तक बर्फ हो सकती है।

य़ूरोपीय-अमेरिकी अन्वेषणयान कासीनी से मिले चित्रों और आँकड़ों से इस धारणा को और बल मिला कि बहुत संभव है कि शनि के छठें सबसे बड़े उपग्रह एन्सेलेडस पर बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्म जीवों का अस्तित्व है। कासीनी 2005 से एन्सेलेडस के कई चक्कर लगा चुका है। सोचा जा रहा है कि वहाँ ऐसी रासायनिक क्रियाएँ चल रही हो सकती हैं, जो शायद जीवन के आरंभिक चरण में हैं।

प्रचलित सिद्धांत यही है कि हम जीवन उसे मानते हैं, जैसा पृथ्वी पर हम पाते हैं। उसके लिए ताप-ऊर्जा, पानी और कार्बनधारी पदार्थों की जरूरत पड़ती है। अनुमान यही है कि एन्सेलेडस पर बैक्टीरिया आदि के रूप में जीवन को जन्म देने वाली ये चीजें हैं, हालाँकि यह बात सारे संदेहों से परे पूरी तरह साफ नहीं है कि वहाँ जो पानी है, वह केवल बर्फ के रूप में है या तरल रूप में भी है। एन्सेलेडस की ऊपरी सतह पर तो ऋण 200 डिग्री सेल्ज़ियस से भी कम तापमान है, लेकिन बर्फ की दरारों में वह केवल ऋण 70 डिग्री के आसपास है। सबसे गरम जगहों पर के गरम सोते भाप और कार्बन भरी सामग्री ऊपर उछालते हैं।

दिसंबर के पहले सप्ताह में नासा की इस घोषणा के बाद से कि कैलिफ़ोर्निया की एक जहरीली झील में बैक्टीरिया की एक ऐसी क़िस्म मिली है, जो आर्सेनिक (सँखिया) पर जीती-पलती है, अंतरिक्ष में जीवन के ऐसे रूपों की संभावना भी देखी जाने लगी है, जो पृथ्वी पर नहीं मिलते। इस खोज के बाद से मंगल ग्रह पर ही नहीं, बहुत दूर-दराज़ के ग्रहों पर भी बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्म जीवों के होने की संभावना और भी बढ़ गई है।

सितंबर के अंत में अमेरिकी वैज्ञानिकों ने सौरमंडल के बाहर एक ऐसे बाह्यग्रह का पता लगाने का दावा किया, जिसका आकार हमारी पृथ्वी जैसा ही है, हालाँकि उसका द्रव्यमान (भार) पृथ्वी से तीन गुना अधिक है। इसका एक अर्थ यह भी है कि वहाँ हर चीज पृथ्वी पर अपने वजन की अपेक्षा तीन गुना भारी होगी।

इन वैज्ञानिकों का समझना है कि वहाँ पानी भी हो सकता है, इसलिए हो सकता है कि वहाँ किसी प्रकार के जीवन का भी अस्तित्व हो। उल्लेखनीय है कि सौरमंडल से बाहर अब तक क़रीब 500 बाह्यग्रहों का पता लगाया जा चुका है, पर ऐसा कोई ग्रह अभी तक नहीं मिला है, जहाँ जीवन लायक पृथ्वी जैसी परिस्थितियाँ हों। पृथ्वी पर के सारे रेडियो टेलेस्कोप भी वैसे तो अंतरिक्ष की अनंत गहराइयों से आ रही असंख्य रेडियो तरंगें पकड़ते रहते हैं, पर उनके बीच ऐसी कोई तरंग अभी तक नहीं मिली है, जो किसी इतरलोकीय सभ्यता के अस्तित्व की ओर संकेत करती हो।
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