विज्ञान 2010 : सफलता के होते रहे प्रयास

मिला-जुला लेकिन महत्वपूर्ण

राम यादव
वर्ष 2010 में हमारे जीवन को तत्काल बदल देने वाली कोई क्रांतिकारी खोज या कोई युगप्रवर्तक आविष्कार तो नहीं हुआ, तब भी ऐसी कई प्रमुख घटनाएँ हुईं, जिन से हमारे ज्ञान के क्षितिज का विस्तार होता है और हमारा भावी जीवन भी दूर तक प्रभावित हो सकता है।

चकमा देता रहा डार्क मैटर
विज्ञान की दृष्टि से 2010 का सूर्योदय दिसंबर 2009 के अंतिम दिनों में अमेरिका से आए इस सनसनीखेज समाचार के बीच हुआ कि वहाँ पहली बार दो ऐसे अतिसूक्ष्म कण दर्ज किए गए हैं, जो रहस्यमय डार्कमैटर (अदृश्य काले पदार्थ) के मूलकण हो सकते हैं। अमेरिका की कई प्रयोगशालाओं ने मिल कर घोषित किया था कि इन कणों को दर्ज करने वाले उन के महासंवेदनशील डिटेक्टर मिनीसोटा की खनिज लोहे की एक खान में, जो अब इस्तेमाल में नहीं है, पौने एक किलोमीटर की गहराई पर लगे हैं।

क्रायोजेनिक डार्क मैटर सर्च CDMS, अर्थात परम शून्य तापमान वाले डिटेक्टरों की सहायता से काले पदार्थ की खोज नाम की इस परियोजना के प्रमुख डैन बाउअर ने बताया कि डिटेक्टरों ने जो कुछ दर्ज किया है, उसे होना तो अदृश्य काला द्रव्य ही चाहिए। लेकिन कुछ और होने की संभावना भी 25 प्रतिशत के बराबर है। वैज्ञानिक काले पदार्थ को, यानी उसके अणुओं-परमाणुओं को, अब तक देख या पकड़ भले ही न पाए हों, विभिन्न प्रयोगों और अवलोकनों से इतना जरूर जानते हैं कि उसके मूलकण हमें ज्ञात इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन, प्रोटोन या फिर उन से भी छोटे क्वार्क, लेप्टॉन, ग्लूऑन से बिल्कुल भिन्न होने चाहिए। कंप्यूटर अनुकरणों से यही पता चलता है।

वे न्यूट्रीनो कहलाने वाले उन कणों की तरह के होने चाहिए, जो इतने छोटे हैं कि हर क्षण लाखों-करोड़ों की संख्या में हमारे शरीर ही नहीं, हमारी पृथ्वी के भी आरपार आते-जाते रहते हैं और हमें रत्ती भर भी पता नहीं चलता। न्यूट्रीनो शायद ही कभी किसी परमाणु के नाभिक से टकराते हैं, इसलिए अच्छे से अच्छे पार्टिकल डिक्टेर भी उन के टकराने की बस इक्की-दुक्की चमक ही दर्ज कर पाते हैं। जबकि ये डिटेक्टेर संवेदनशील इतने हैं कि किसी जुगुनू की चमक को एक किलोमीटर दूर से भी दर्ज कर सकते हैं। विज्ञान जगत ने इस खोज को अभी मान्यता नहीं दी है। यदि अगले कुछ वर्षों में ऐसी ही चार और घटनाएँ दर्ज होती हैं, तो इसे डार्क मैटर वाली अवधारणा की पुष्टि माना जा सकता है।

महामशीन हुई महाप्रयोग के लिए तैयार
वैज्ञानिक इस समय एक और ऐसे अदृश्य कण के अस्तित्व का प्रमाण पाने में लगे हैं, जो अभी तक मूलकण भौतिकी के केवल गणितीय समीकरणों में ही मिलता है। एक ब्रिटिश वैज्ञानिक पीटर हिग्स और भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्रनाथ बोस के सुझाए इस कण को कहते तो हैं हिग्स-बोसोन, पर मानते हैं कि वही सृष्टि का सबसे मूलभूत 'ब्रह्मकण' है। माना जाता है कि हिग्स-बोसोन ही प्रोटोन और न्यूट्रोन कणों को उनका भार देते हैं।

पदार्थ, अर्थात अणु-परमाणु की संरचना संबंधी इस समय का तथाकथित स्टैंडर्ड मॉडल यदि सही है, तो हिग्स-बोसोन का भी अस्तित्व होना चाहिए। पदार्थ और कुछ नहीं, ऊर्जा का ही दूसरा रूप है। लेकिन, ऊर्जा का कोई द्रव्यमान (भार) नहीं होता, जबकि पदार्थ का होता है। अतः प्रश्न यही उठता है कि पदार्थ यानी परमाणु में यह द्रव्यमान कहाँ से आता है, कैसे आता है?

महाप्रयोग क्रमशः शुरू
30 मार्च से जेनेवा के पास यूरोपीय मूलकण भौतिकी प्रयोगशाला सेर्न में हिग्स-बोसोन के अस्तित्व का खंडन या मंडन करने के महाप्रयोग का पहला अपूर्व प्रयास शुरू हुआ। एलएचसी (लार्ज हैड्रन कोलाइडर) नाम है उस महामशीन का, जिसके 27 किलोमीटर लंबे निर्वात (वैक्यूम) पाइपों में हाइड्रोजन- नाभिक वाले प्रोटोन कणों को त्वरित (एक्सिलरेट) किया जाता है। लक्ष्य है, प्रोटोन कणों को इस हद तक त्वरित करना कि जब उनकी गति प्रकाश की गति (तीन लाख किलोमीटर प्रतिसेकंड) से कुछ ही कम रह जाए, तब दो विपरीत दिशाओं से आते हुए कणों की आपस में टक्कर कराना।

अनुमान है कि इस टक्कर से ऐसे और भी छोटे कण टूट कर बिखरेंगे, जिन के मेल से प्रोटोन कण बनते हैं। इन और भी छोटे कणों के बीच शायद हिग्स-बोसोन भी हो सकते हैं। इस टक्कर से एक बहुत ही सूक्ष्म पैमाने पर लगभग वही परिस्थिति पैदा होगी, जो 13 अरब 70 करोड़ साल पहले उस समय थी, जब एक महाधमाके (बिग बैंग) के साथ ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई थी। तब सबसे पहले हिग्स-बोसोन ही बने होंगे।

सितंबर 2008 में जब एलएचसी पहली बार चालू हुआ था, तब सारी दुनिया में कोहराम मच गया था कि जेनेवा में एक ऐसा प्रयोग होने जा रहा है, जिससे ऐसे ब्लैक होल (कृष्ण विवर) बन सकते हैं, जो धरती सहित सब कुछ निगल जा सकते हैं। उस समय, कुछ ही दिन बाद बिजली के एक शॉर्ट सर्किट के कारण एलएचसी को बंद कर देना पड़ा था। मरम्मत इत्यादि के बाद उसे मार्च 2010 में पुनः चालू किया गया।

इस बीच सेर्न की महामशीन को क्रिसमस और सर्दियों की छुट्टियों के कारण कुछ समय के लिए पुनः बंद कर दिया गया है। बंद करने से पहले वैज्ञानिकों को दो बड़ी सफलताएँ मिल चुकी थीं। मशीन की निर्वात रिंग में दौड़ाए जाने वाले प्रोटोनों की संख्या नियोजित संख्या से दुगुनी हो चुकी थी। हालाँकि हिग्स-बोसोन की खोज वाला असली प्रयोग अभी शुरू नहीं हुआ है। साथ ही सीसे (लेड) के नाभिकों की आपस में टक्कर से एक ऐसा अतितप्त (सुपर हॉट) प्लाज़्मा पैदा करने में सफलता मिली है, जो क्वार्क और गोंद की तरह उन्हें जोड़े रखने वाले ग्लूओन का बना है। प्लाज़्मा को ठोस, द्रव और गैसीय अवस्था के बाद पदार्थ की चौथी अवस्था माना जाता है।

क्वार्क- ग्लूओन- प्लाज़्मा
ब्रह्मांड के जन्मदाता तथातथित महाधमाके (बिग बैंग) के तुरंत बाद के प्रथम क्षणों में क्वार्क- ग्लूओन- प्लाज़्मा कहलाने वाले इस अकल्पनीय गरम प्लाज़्मा को ही पदार्थ की सबसे आदि-अवस्था बताया जा रहा है। वैज्ञानिक यह जानकर चकित रह गए कि यह प्लाज़्मा उनकी सैद्धांतिक गणनाओं से भी कहीं ज़्यादा गरम और घना निकला। इसकी कोई व्याख्या उन्हें अभी नहीं मिल पाई है।

फरवरी 2011 में एलएचसी को पुनः चालू किया जाएगा। उसमें दौड़ाए जाने वाले प्रोटोन कणों की संख्या और गति और अधिक बढ़ाई जाएगी। तब हो सकता है कि वर्ष के अंत तक हिग्स बोसोन के अस्तित्व का कोई संकेत मिले। अमेरिका में टेवाट्रोन कोलाइडर के वैज्ञानिक भी इसी खोज में जुटे हुए हैं। सेर्न के वैज्ञानिक नहीं चाहेंगे कि अमेरिका वाले बाज़ी मार ले जाएँ।

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