सेहत 2010 : राहत भी, मुसीबत भी

बीता साल : उम्मीद की लहर पर रहा सवार

Webdunia
साल 2010 में चिकित्सा जगत नए-नए शब्दों से परिचय करवाता रहा। कहीं सुपर बग का शोर मचा तो कहीं एड्स जैसी लाइलाज बीमारी का जवाब खोज लेने का दावा हवा में लहराता रहा। एक अच्छी खबर चिकित्सा के नोबेल पुरस्कार की हाथ लगी जिसमें टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक के जनक रॉबर्ट एडवर्ड्स की झोली में यह अवॉर्ड आया। वहीं हैती में हैजे का प्रकोप तीन हजार लोगों की मौत का कारण बना। स्वाइन फ्लू का हल्ला पूरी तरह थमा नहीं और महाराष्ट्र को स्वाइन फ्लू की राजधानी का दर्जा मिल गया।

नए प्रयोग और नई खोज हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी जारी रही। कहीं खिली चेहरे पर मुस्कान तो कहीं मायूसी ही हाथ लगी। बीते वर्ष देश और विदेश की सेहत कैसी रही, प्रस्तुत है मिलीजुली खबरों के साथ तीन प्रमुख बीमारियों के आईने में एक अवलोकन :

कैंसर :
दुनिया भर के वैज्ञानिक कैंसर के इलाज के लिए नित नए प्रयोग करने में लगे हैं। बीच-बीच में सफलता के छोटे-छोटे पड़ाव भी रोगियों के लिए उम्मीद की किरण बन कर आए। बीते वर्ष कैंसर को खत्म करने की दिशा में वैज्ञानिकों ने बड़ी कामयाबी हासिल की। ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने दावा किया कि उन्होंने जानलेवा बीमारी कैंसर के कारणों तथा उसका इलाज खोज लिया है।

उनके अनुसार, उन्होंने एक ऐसी दवा का सफलतापूर्वक परीक्षण किया है जो आनुवांशिक आँकड़ों का उपयोग करते हुए ट्यूमर पर हमला करती है। हर साल 75 लाख से ज्यादा लोगों को मौत की नींद सुलाने वाली इस बीमारी से लड़ने में यह खोज काफी महत्वपूर्ण साबित होगी।

इस सफलता की तुलना पेनेसिलीन की खोज से की गई। जिसे दुनिया का पहला एंटीबायोटिक कहा जाता है। ब्रिटेन के कैंसर जीनोम प्रोजेक्ट के प्रमुख प्रोफेसर मार्क स्ट्राटन ने बताया कि कैंसर के खिलाफ लड़ाई में शोधकर्ताओं ने यह उल्लेखनीय सफलता हासिल की।

उन्होंने कहा कि कैंसर के जिनोम में जितने तरह के भी बदलाव हो सकते हैं, उन सभी का पता लगाना संभव हो गया है। अब हम इस बीमारी के कारणों को पूरी तरह समझ पाएँगे। यह कैंसर की समाप्ति की शुरुआत है। पीएलएक्स 4032 नामक यह दवा त्वचा कैंसर के ट्यूमर को 80 फीसदी तक नष्ट कर सकती है।

जीन में बदलाव के कारण ही हर तरह का कैंसर होता है। गलत डीएनए की पहचान करने की दिशा में हाल के वर्षो में काफी प्रगति हुई है। जीन सिक्वेंसिंग टेक्नोलॉजी के आने के बाद इसमें तेजी आई है। जीन को निशाना बनाने वाली दवा का फायदा यह है कि वह सिर्फ बीमार कोशिकाओं पर ही हमला करती है और स्वस्थ कोशिकाओं को कोई नुकसान नहीं पहुँचाती हैं।

हालाँकि इस दवा की खोज के बाद भी शोधकर्ताओं के सामने बड़ी चुनौती है। अभी उन्हें अलग-अलग तरह के कैंसर के मामले में जीन में होने वाले सभी बदलावों का पता लगाना है। शोधकर्ताओं का लक्ष्य ट्यूमर में नजर आने वाली सभी आनुवांशिक (जेनेटिक) गड़बडि़यों की सूची बनाना है।

वहीं दूसरी तरफ ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने खुलासा किया कि हर दिन संतुलित मात्रा में एस्प्रिन का सेवन कैंसर से बचाता है। 25,000 मरीज़ों पर किए गए इस शोध में सामने आया है कि हर दिन एस्प्रिन लेने वाले मरीजों में कैंसर से मौत का खतरा कम हो गया। अनुसंधान में शामिल अधिकांश मरीज ब्रिटेन के रहने वाले थे। रिसर्च में पाया गया है कि जिन मरीजों ने एस्प्रिन का सेवन किया उनमें कैंसर से मौत का खतरा 25 प्रतिशत कम हो गया।

जिन मरीजों ने एस्प्रिन का सेवन किया उनमें ना सिर्फ कैंसर बल्कि सभी बीमारियों को लेकर मौत का खतरा 10 प्रतिशत कम हो गया। अधिकतर मामलों में एस्प्रिन का इलाज चार से आठ साल तक रहता है लेकिन कुछ मामलों में इसके फायदे 20 साल तक भी देखे गए। शोध के दौरान आंत के कैंसर के खतरे में 40 प्रतिशत, फेफड़ों के कैंसर में 30 प्रतिशत, प्रोस्टेट ग्रन्थि के कैंसर में 10 प्रतिशत और श्वास की नली के कैंसर में 60 प्रतिशत की कमी आई। ब्रिटेन में कैंसर पर अनुसंधान करने वाली संस्था ‘कैंसर रिर्सच यूके’ का कहना है कि ये परिणाम सकारात्मक हैं। लेकिन जो लोग इसका सेवन करना चाहते हैं वे अपने डॉक्टर से सलाह जरूर लें।

एड्स :
बीते वर्ष इजराइल के वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्होंने घातक बीमारी एड्स का इलाज खोज लिया है। इस इलाज के जरिए एड्स के मरीज के शरीर में मौजूद एड्स प्रभावित सेल खत्म किए जा सकेंगे। हालाँकि इस इलाज का लाभ आम आदमी को अभी प्राप्त नहीं होगा। क्योंकि अभी इसमें कुछ और परीक्षण किया जाना है।

एक ब्रिटिश विज्ञान पत्रिका ‘एड्स रिसर्च एंड थेरेपी’ में दावा किया गया है कि वैज्ञानिकों ने एड्स का इलाज खोज लिया है। उन्होंने ऐसा प्रोटीन सेल विकसित किया है, जो शरीर में एड्स के सेल का प्रभाव खत्म कर सकेगा और इस प्रक्रिया में शरीर में मौजूद स्वस्थ्य सेल प्रभावित नहीं होंगे। लेकिन उन्होंने कहा कि अभी इस मामले में कुछ और परीक्षण किया जाना है। ये परीक्षण जानवरों पर भी किए जाएँगे, जिसके बाद ही इस इलाज का फायदा एचआईवी के मरीजों को मिल सकेगा।

शोधकर्ताओं ने पेप्टाइड नाम के प्रोटीन के छोटे रूप को विकसित किया है जो एड्स की कोशिकाओं के बढ़ने को रोकता है और साथ ही संक्रमित कोशिकाओं को नष्ट करता है। समाचार एंजेसी जिन्हुआ ने शोधकर्ताओं को हवाले से कहा है कि इस प्रोटीन से एचआईवी-1 से संक्रमित कोशिकाएँ नष्ट हो जाती हैं। इससे नई एंटी वायरल थेरेपी को विकसित किया जा सकता है। उनके मुताबिक एड्स के मौजूदा इलाज में संक्रमण के दौरान शरीर में घुसे वायरस को दवाइयों के द्वारा मारा जाता है लेकिन पेप्टाइड ट्रीटमेंट में उन कोशिकाओं को नष्ट किया जाता है जिनमें वायरस का संक्रमण है।

दूसरी तरफ वैज्ञानिकों ने एक कंडोम का निर्माण किया है। इसका उपयोग करने से एड्स के प्रसार में काफी गिरावट देखी गई है। इस कंडोम का उपयोग महिलाएँ कर सकती हैं। दक्षिण अफ्रीका में संभोग के मामले में सक्रिय कुछ महिलाओं पर यह प्रयोग किया गया।

दक्षिण अफ्रीका के डर्बन में स्थित क्‍वाजुलू नटाल विश्‍वविद्यालय के सेंटर फॉर एड्स प्रोग्राम ऑफ रिसर्च इन साउथ अफ्रीका यानी सीएपीआरआईएसए में इस प्रयोग को अंजाम दिया गया। महिलाओं ने ढाई साल तक इस कंडोम का इस्‍तेमाल किया। इस क्षेत्र में एड्स का काफी तेजी से प्रसार हो रहा था। लेकिन इस कंडोम का इस्‍तेमाल करने वाली महिलाओं के बीच एड्स के प्रसार में 39 प्रतिशत की गिरावट देखने को मिली है। प्रयोग में 18 से 40 साल के बीच की दक्षिण अफ्रीका की 889 महिलाओं को शामिल किया गया था । दुनिया भर में 3 करोड 30 लाख लोग एड्स की चपेट में आ चुके हैं। अब तक ढाई करोड लोगों की मौत हो चुकी है।

इधर भारत में एचआईवी वायरस से ग्रस्त करीब दस लाख लोगों को बुनियादी इलाज नहीं मिल पा रहा है। एचआईवी पर जारी अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत अनिवार्य लाइसेंस जारी करने पर विचार करे, जिससे दवाइयों की उपलब्धता बढ़े।

जेनेवा में जारी विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूएनएड्स और यूनिसेफ की साझा रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत ने इस दिशा में विकास तो किया है, लेकिन वह इससे बेहतर कर सकता है। डब्ल्यूएचओ ने कहा कि भारत में पिछले सात साल के दौरान एंटी रेट्रोवायरल (एआरवी) इलाज में काफी बेहतरी आई है, लेकिन अभी भी काफी बड़ी संख्या में लोगों को यह इलाज नहीं मिल पा रहा है।

एचआईवी/एड्स, मलेरिया और टीबी जैसी बीमारियों के लिए धन मुहैया कराने वाली एक संस्था का कहना है कि दुनिया भर में करीब डेढ़ करोड़ लोगों को फौरन एआरवी इलाज की जरूरत है और इसके लिए दस अरब डॉलर की आवश्यकता है। हालाँकि पिछले पाँच साल में तेजी से काम करने के लिहाज से भारत तीसरे नंबर पर आ गया है। दक्षिण अफ्रीका और केन्या इससे अधिक तेजी से काम कर रहे हैं।

भारत में पिछले साल लगभग सवा तीन लाख लोगों का एआरवी इलाज किया गया। जबकि उससे पूर्व के साल में सवा दो लाख से ज्यादा लोगों को यह इलाज मिल पाया। अंतरराष्ट्रीय संगठनों का मानना है कि भारत की स्थिति अफ्रीका के कई देशों से बेहतर है और वहाँ डॉक्टर भी बेहतर हैं। ऐसे में वहाँ और ज्यादा लोगों को इलाज मिलना चाहिए।

अनिवार्य लाइसेंस के जरिए सरकार किसी खास पेटेंटधारक से किसी दवा को बेचने का अधिकार ले सकती है और इस तरह दूसरी कंपनियाँ भी इस दवा को बेच सकती हैं। कई औद्योगिक देशों ने यह तरीका अपनाया है, जिससे लोगों को सस्ते दर पर दवाइयाँ मिल जाती हैं। लेकिन भारत में ऐसा नहीं किया जाता, जिससे एचआईवी/एड्स के मरीजों को दिक्कत होती है। हाल में थाइलैंड और ब्राजील ने अनिवार्य लाइसेंसिंग पद्धति अपनाई है।

संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों ने चेतावनी दी है कि इस साल के आखिर तक पूरी दुनिया में एचआईवी/एड्स के मरीजों के इलाज का लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सकता है। तीन संगठनों की इस रिपोर्ट में 183 देशों का जिक्र किया गया है और कहा गया है कि सिर्फ एक तिहाई लोगों को ही जीवनरक्षक दवाइयाँ उपलब्ध हो सकती हैं।

‍ रिपोर्ट में इस बात पर भी चिंता जताई गई कि निम्न और मध्य आय वर्ग वाले देशों में एचआईवी से पीड़ित 60 प्रतिशत लोगों को यह पता ही नहीं कि वे संक्रमित हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि सेक्स वर्कर, समलैंगिक और प्रवासियों के लिए इलाज पाना आज भी बेहद मुश्किल है।

रिपोर्ट के मुताबि क, वित्तीय संकट की वजह से कई देशों ने एचआईवी से निपटने की अपनी प्रतिबद्धता को ताक पर रख दिया।' संयुक्त राष्ट्र के आँकड़ों के मुताबिक दुनिया भर में सवा तीन करोड़ लोग आज भी एचआईवी से संक्रमित हैं।

कमिंग आउट यूएन के आँकड़ों के हिसाब से, 2020 तक भारत में 5 मिलियन एड्स के मरीज होंगे। मगर इसकी तुलना में एचाइवी का टेस्ट करने वाले लोगों की संख्या बहुत कम है। हमारे देश में ये भ्रांति है कि अगर किसी को एड्स है तो उसका कारण सिर्फ यौन संबंध है। यही वजह है कि लोग एचआईवी टेस्ट करवाने से घबराते हैं।

दूसरी तरफ भारत में पिछले साल विचित्र स्थिति देखने में आई जब कुछ समाजसेवियों ने दावा किया कि एड्स की दवा बनाने वाली कंपनियाँ अब एड्स के नए मरीज तलाश रही हैं। इसके लिए वे गैर सरकारी संगठनों की सहायता से ग्रामीण महिलाओं में एड्स के विषाणु खोजने में जुट गई हैं ताकि इस जानलेवा रोग के बहाने करोड़ों रुपए की दवाओं की खपत सरकारी महकमों में की जा सके।

लेखक प्रमोद भार्गव की रिपोर्ट के मुताबिक हरियाणा में 1219 ग्रामीण महिलाएँ एड्स से पीड़ित बताई गई हैं। ये आँकड़े एड्स कंट्रोल सोसायटी ने जारी किए हैं। सोसायटी ने आगाह किया है कि आँकड़े शहरी और कस्बाई अस्पतालों व प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से इकट्ठे किए गए हैं, यदि सुदूर ग्रामों में सोसायटी सर्वे करे तो आँकड़ों की संख्या भयावह हो सकती है।

हैरानी में डालने वाली बात यह है कि ये सभी महिलाएँ गरीब होने के साथ गंदी बस्तियों से जुड़ी हैं। सोसायटी द्वारा एचआईवी पॉजीटिव से जुड़ी हाईप्रोफाइल एक भी महिला एड्स पीड़ित नहीं दर्शाई गई है। इससे जाहिर है कि ये आँकड़े एकपक्षीय होने के साथ केवल दवा कारोबारियों को लाभ पहुँचाने की दृष्टि से उछाले गए हैं। हमारे देश में एड्स फैलने की जिस तरह से भयावह छवि पेश की जा रही है वह बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों का सुनियोजित षड्यंत्र व देश के आम, गरीब व लाचार नागरिकों से किया जा रहा छल है।

बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियाँ गैर सरकारी समाजसेवी संगठनों के माध्यम से एड्स का इतना खतरनाक हौवा खड़ा करती हैं कि दवा कंपनियों को अपने व्यावसायिक हित साधने में आसानी हो जाती है। ऐसे ही हल्लों के नतीजतन आंध्र प्रदेश सरकार एड्स रोगियों को पेंशन सुविधा देने के लिए मजबूर हुई और कालांतर में इसका विस्तार अन्य राज्यों में भी होना निश्चित है।

एड्स रोगियों को पेंशन देने की शुरुआत के साथ ही पूरे देश में एड्स मरीजों की संख्या में आश्चर्यजनक ढंग से इजाफा शुरू हो जाएगा। निकम्मे व निठल्ले चरित्र के लोग भी पेंशन के लालच में खुद को एड्स रोगी घोषित कराने से गुरेज नहीं करेंगे। चूँकि एड्स रोगी की पहचान गुप्त रखने की शर्त भी जुड़ी है इसलिए सामाजिक लांछन, प्रताड़ना व बहिष्कार से भी ये लोग बचे रहेंगे। अब तक ये कंपनियाँ सूचीबद्ध एड्स रोगियों को पकड़कर उसे अपनी दवा खपाती थीं और अब महामारी का तांडव रच सीधे राज्य सरकारों को दवाएँ खपाएँगी।

लखनऊ के आयुर्वेक चिकित्सक डॉ. संतोष पांडे ने 22 हर्बल पौधों के मिश्रण से तैयार सीरप और एक कैप्सूल के जरिए 19 महीने में एड्स को जड़ से ठीक करने का दावा किया है। मई, 2010 में इन्हें इस दवा का 240422 क्रमांक से पेटेंट भी मिल गया है। जिसे प्रोत्साहित किए जाने की जरूरत है।

ब्राजील में कंसॉर्शियम टू रिस्पॉण्ड इफेक्टिवली टू दी एड्स-टी.बी. एपिडेमिक (क्रिएट) द्वारा ग्यारह हजार लोगों पर एक अध्ययन किया गया। इनमें से कुछ लोगों को एंटीरिट्रोवायरल (एचआईवी-रोधक) दवा दी गई, कुछ लोगों को सिर्फ टीबी. की दवा आइसोनिएजिड दी गई जबकि तीसरे समूह को दोनों तरह की दवाएँ दी गईं। नतीजतन एंटीरिट्रोवायरल औषिधि से टीबी संक्रमण से 51 प्रतिशत बचाव हुआ। सिर्फ आइसोनिएजिड से 32 प्रतिशत बचाव हुआ। जबकि मिली-जुली दवाओं से टी.बी. संक्रमण का खतरा 61 फीसदी तक कम हो गया। इस निष्कर्ष को महत्व देते हुए अब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी एचआईवी संक्रमित रोगियों के लिए मिली-जुली दवा देने की अनुशंसा की है।

फिलहाल यह बात अलग है कि इस सिफारिश का पालन भारत में नहीं किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में भारत में हालात ऐसे बनाए जा रहे हैं कि एड्सरोधी दवाओं की ज्यादा से ज्यादा खपत बढ़े और रोगी तो रोगी आम आदमी भी पेंशन के लालच में इसकी गिरफ्त में आ जाएँ।

कामसूत्र’ का नया रूप
सेक्‍स ज्ञान के लिए चर्चित पुस्तक 'कामसूत्र' अब नए अंदाज में फिर से प्रकाशित हो रही है। साल के शुरूआत में इस किताब को बाजार में उपलब्ध करा दिया जाएगा।

जाने-माने विद्वान और संस्‍कृति के जाने माने अनुवादक एएनडी हक्सर की इस किताब में यह बताया गया है कि वात्स्यायन के कामसूत्र को मौजूदा दौर में कैसे इस्तेमाल किया जाए? और नई जीवनशैली को अपना चुके लोग इससे कैसे फायदा उठा सकते हैं?

‘संडे टेलीग्राफ’ में छपी रिपोर्ट के मुताबिक सेक्स के आसनों और पुराने कामसूत्र के अनुवाद से अलग पॉकेट बुक्स के आकार में छपी यह किताब प्यार और रिश्तों के हर पहलू तक पहुँचने की कोशिश करती है। पेंग्विन इस किताब को नए साल में फरवरी तक प्रकाशित करेगा। किताब नए जमाने की भागदौड़ में जी रहे लोगों को सेक्स के कामयाब तरीके बताएगी।

जब भी कामसूत्र की बात हुई तो 19वीं सदी में सर रिचर्ड फ्रांसिस बर्टन की किताब का जिक्र ही आया जिसमें तस्वीरें और प्राचीन कामसूत्र का अनुवाद किया गया है। इसकी भाषा भी पुराने जमाने वाली ही है। लेकिन हक्सर ने अपने कामसूत्र में ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया है जो इस दौर के अनुकूल है।

हक्सर कहते हैं, 'लोग ऐसा मानते हैं कि कामसूत्र में केवल सेक्स के बारे में बताया गया है जबकि यह सच नहीं है। वह कहते हैं, ‘कामसूत्र जीवनशैली और समाज में रहने वाले लोगों के बीच रिश्तों की बात बताता है। मैंने कोशिश की है कि कामसूत्र में जो बताया गया है उसे ज्यों-का-त्यों रखूँ। फर्क बस इतना किया है कि उसकी भाषा आज के लोगों के अनुसार रखी गई है।

इस किताब में बताया गया है कि तनाव के बीच भी सेक्‍स का मजा कैसे उठाया जाए, महिलाएँ सेक्‍स के प्रति उदासीन क्यों हो जाती हैं, सेक्‍स के लिए उपयुक्त आसन क्या हैं, कम समय में भी सेक्स का आनंद कैसे उठाया जाए, औरतों का मूड क्यों बिगड़ जाता है, लड़कियाँ क्या न करें आदि।

सरल और आधुनिक भाषा होने की वजह से आज की पीढी आसानी से इसे समझ सकती है और प्रयोग में ला सकती है। यह आधुनिक समय की सबसे उपयोगी किताब बन सकती है।

स्वाइन फ्लू
साल 2009 में स्वाइन फ्लू नामक जिस बीमारी ने देश-विदेश में हड़कंप मचाया था उसने 2010 में थोड़ा सब्र किया। लेकिन स्थिति इतनी संतोषप्रद भी नहीं रही कि खैर मनाई जा सके। स्वाइन फ्लू ने बार-बार लौट आने का डर दिखाया और आम जनता शंका -कुशंका के घेरे में सावधानियाँ तलाशती रही। इसी क्रम में सबसे ज्यादा महाराष्ट्र परेशान रहा। देश में महाराष्ट्र को स्वाइन फ्लू की राजधानी तक घोषित कर दिया। वर्ष 2009 में महाराष्ट्र के पुणे में ही इनफ्लुएंजा (एच1एन1) के कारण पहली मौत हुई थी।

महाराष्ट्र के निगरानी अधिकारी प्रदीप अवाटे ने बताया कि पिछले 12 महीने के दौरान स्वाइन फ्लू से बुरी तरह पीड़ित रहे गुजरात, कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों में महाराष्ट्र सबसे आगे रहा है। इस दौरान यहाँ 570 लोगों की मौत हो चुकी है।

उल्लेखनीय है कि 3 अगस्त 2009 में स्वाइन फ्लू की चपेट में आने से 14 साल की रिया शेख की मौत हो गई थी, जो स्वाइन फ्लू के कारण देश में मौत का पहला मामला था। देश में स्वाइन फ्लू का हल्का-फुल्का मामला शुरू हुआ था। लेकिन महाराष्ट्र में यह इतनी तेजी के साथ बढ़ा कि यहाँ प्रतिदिन 300 मामले सामने आने लगे।

आमतौर पर मानसून के सक्रिय होने के बाद स्वाइन फ्लू का पहला चरण शुरू होता है और ठंड के महीनों में मामलों में तेजी के बाद यह ठंडा पड़ने लगता है। देश में स्वाइन फ्लू का पहला मामला सामने आने के बाद लगभग 1,692 लोगों की मौत हो चुकी है और हजारों की संख्या में लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं।

स्वास्थ्य अधिकारियों को उम्मीद है कि अगले कुछ वर्षो में स्वाइन फ्लू ठंडा पड़ जाएगा और यह मौसमी वायरस बन कर रह जाएगा। लेकिन यह पहले ही तमाम जानें ले चुका है। मुंबई में लगभग 50 मौतें हुई हैं। महाराष्ट्र के अन्य शहर जो स्वाइन फ्लू से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं उनमें ठाणे, नासिक, कोल्हापुर और नागपुर शामिल हैं।

वर्ष 2010 में भारत ने ए(एच1एन1) का पहला स्वदेशी टीका लॉन्च किया। यह ए(एच1एन1) फ्लू से रक्षा करेगा। 2009 में जब से यह भारत में फैला है, तब से 1,692 से अधिक लोगों ने इस बीमारी के कारण जान गँवाई है। बाजार में वैक्सीफ्लू-एस के नाम से टीका उपलब्ध करवाया गया। इसकी कीमत 350 रुपए है। इसे डॉक्टर की सलाह पर लिए जाने की सिफारिश की गई है। इस टीका का प्रभाव 1 साल तक कायम रहेगा। केन्द्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री गुलाब नबी आजाद ने अहमदाबाद की प्रमुख दवा कंपनी केडिला हेल्थकेयर द्वारा तैयार इस एच1एन1 टीका को जारी किया।

चीन में 2 लाख बच्चे एचएफएमडी से पीड़ित
चीन में वर्ष 2010 में 2,00,000 से ज्यादा बच्चे हाथ-पैर-मुँह रोग (एचएफएमडी) से पीड़ित हुए और इस साल अब तक इस बीमारी से 94 बच्चों की मौत हो चुकी है।

पत्रिका ‘ओरिएंटल आउटलुक वीकली’ के अनुसार एचएफएमडी से पीड़ित एक व्यक्ति के इलाज में 10,000 युआन (1460 डॉलर) से ज्यादा का खर्च आता है जबकि चिकित्सा बीमा के तहत इलाज में लगने वाली कुल राशि का महज 10 फीसदी ही मरीजों को मिलता है। वयस्क इस रोग से प्रभावित नहीं होते क्योंकि उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत होती है जिससे विषाणु अपना असर नहीं दिखा पाता। इसका सबसे ज्यादा असर बच्चों में दिखता है।

इस बीमारी से मरने वालों की संख्या चीन में बढ़ती जा रही है। वर्ष 2009 में इस संक्रामक बीमारी से 353 बच्चों की मौत हुई जबकि 2008 में 126 बच्चे इसका शिकार बने थे।

मलेरिया से हर साल 8,50,000 लोगों की मौत
दुनिया भर में हर साल मलेरिया से करीब साढ़े आठ लाख लोग मरते हैं। इनमें से करीब 90 फीसदी मौतें अफ्रीका के निर्धन देशों में होती है। पिछले साल भी स्थिति में सकारात्मक बदलाव नहीं आया। यह जरूर हुआ कि नित नए शोधों ने मच्छरों को परेशान कर दिया। युनाइटेड नेशंस इंटरनेशनल चिल्ड्रेंस इमरजेंसी फंड (यूनिसेफ) के कार्यकारी निदेशक एन वेनेमैन ने कहा कि सभी देशों में मलेरिया पर नियंत्रण संबंधी संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून द्वारा तय किए गए लक्ष्य को पूरा करने के लिए केवल 250 दिन बचे हैं।

पिछले वर्ष के विश्व मलेरिया दिवस के एक दिन पहले वेनेमैन ने कहा कि मलेरिया से लड़ने के लिए विश्व के सभी देशों को एकजुट होना चाहिए और सुनिश्चित करना चाहिए कि मच्छर काटने से किसी की मौत न हो।

जहरीली बयार, साँसे हुई लाचार
प्रदूषण की बिगड़ती स्थिति ने सारी सीमाएँ पार कर ली है। वायुमंडल की हवा इस कदर जहरीली हो गई है कि मनुष्य के लिए खुलकर साँस लेना भी दूभर हो गया है। राजधानी दिल्ली सहित देश के 10 प्रमुख शहरों में नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड का स्तर निर्धारित मानकों को पार कर गया है।

केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भी माना कि देश में वायु प्रदूषण खतरनाक दर से बढ़ रहा है। जयराम रमेश के मुताबिक दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, बेंगलुरू, जमशेदपुर, फरीदाबाद, मेरठ, पटना और पुणे में नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड का स्तर निर्धारित मानकों को पार कर चुका है।

आसनसोल और बेंगलुरू में भी नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड के स्तर में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। कोच्चि और मदुरै को छोड़कर देश के सभी शहरों में पार्टिकुलेट मैटर (गैस या द्रव पदार्थो से निकलने वाले बहुत सूक्ष्म कण) के स्तर में बढ़ोतरी हो रही है। इसकी वजह से साँस की बीमारी, अस्थमा, एलर्जी, खुजली और कई तरह के संक्रमण फैल रहे हैं।

दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई में 2007 से 09 के दौरान फाइन पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) के स्तर में बढ़ोतरी से संबंधित एक रिपोर्ट को लोकसभा में पेश करते हुए रमेश ने कहा, 'शहरीकरण, जनसंख्या वृद्धि, वाहनों की संख्या में इजाफा, औद्योगीकरण जैसे कारणों से वायु प्रदूषण बहुत तेजी से बढ़ रहा है।'

ई-सिगरेट दिलाएगी लत से छुटकारा
धुआँ-प्रेमियों और नशाखोरों की जिंदगी शायद यह खबर बचा सके। एक शोध से पता चला है कि ई-सिगरेट के जरिए मिलने वाली निकोटीन धूम्रपान की लत को दूर करने में मददगार हो सकती है। ई-सिगरेट एक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण है जिसकी मदद से निकोटीन की कुछ मात्रा मिल जाती है। यह उपकरण वास्तविक सिगरेट जैसा दिखता है लेकिन इसमें तम्बाकू का इस्तेमाल नहीं होता है। ई-सिगरेट के प्रत्येक कश के साथ निकोटीन की बहुत थोड़ी मात्रा ही शरीर में पहुँचती है।

ऑकलैंड विश्वविद्यालय के क्रिस बुलेन के अनुसार, 'परीक्षण से पता चला है कि ई-सिगरेट धूम्रपान की इच्छा कम करने के लिए प्रयुक्त होने वाले मानक ‘निकोटीन रिप्लेसमेंट थैरेपी इन्हेलर’ की तरह प्रभावी होती है। हमारे परिणाम बताते हैं कि निकोटीन इन्हेलर की तरह ही ई-सिगरेट में लोगों को धूम्रपान करने से रोकने की क्षमता होती है। यद्यपि हमारे परिणामों को शुरुआती तौर पर देखा जाना चाहिए।'

अमेरिका और एशिया में ई-सिगरेट्स का इस्तेमाल लोकप्रिय है। लोग धूम्रपान पर होने वाले खर्च को कम करने, कम सिगरेट पीने, धूम्रपान की मनाही वाले स्थानों पर इसके इस्तेमाल, तम्बाकू की आदत दूर करने या धूम्रपान छोड़ने के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं। अध्ययनकर्ताओं ने 40 युवाओं पर यह अध्ययन किया था।

बुलेन ने बताया कि, 'हमने देखा कि धूम्रपान की इच्छा को कम करने के लिए ई-सिगरेट इन्हेलर की तरह ही सीधे रक्त में निकोटीन की कुछ मात्रा पहुँचा देती है और धूम्रपान की इच्छा रखने वाले ज्यादातर लोग इसे स्वीकार कर रहे हैं।

भूख के मामले में भारत बदतर
भूख के मामले में श्रीलंका और पाकिस्तान की स्थिति भारत से बेहतर है। भूख और कुपोषण पर नजर रखने वाली अमेरिका स्थित अंतरराष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट में भारत की स्थिति को पाकिस्तान और श्रीलंका से भी बदतर बताया गया है।

इस सूची में भारत 67वें नंबर पर है जबकि पड़ोसी पाकिस्तान का नंबर 52वाँ है। श्रीलंका में हालत थोड़े बेहतर है और उसका नंबर 39वाँ है। संस्था ने 122 विकासशील देशों के आँकड़ों के आधार पर एक भूख सूचकांक जारी किया है जिसमें कहा गया है कि भारत में कुपोषित बच्चों की संख्या 44 प्रतिशत है।

सर्वेक्षण का आधा र
नई दिल्ली में संस्था के एशिया निदेशक अशोक गुलाटी ने बताया कि इस सर्वेक्षण के तीन आधार थे-

बच्चों की मृत्युदर, उनमें कुपोषण की स्थिति और कम कैलोरी पर जीवित रहने वाले लोगों की संख्या।

भारत में कृषि पर निर्भर लाखों लोगों की दशा दयनीय है। दक्षिण एशिया का सत्तर प्रतिशत भू-भाग भारत में ही है इसलिए इस अध्ययन में दक्षिण एशिया की स्थिति दयनीय बताई गई है। भारत के पड़ोसी देशों-पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका में बच्चों की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है। इस भूख सूचकांक में चीन नौवें नंबर पर है यानी वहाँ बाल मृत्यु दर बहुत कम है और बच्चों में कुपोषण भी अपेक्षाकृत कम है।

वह सुबह कभी तो आएगी
1 अरब, 19 करोड़, 21 लाख, 45 हजार 8 सौ की जनसंख्या वाले भारत में सेहत की स्थिति ना सिर्फ दयनीय है बल्कि शर्मनाक है। अब तक तो हम इस बात से खुश नजर आते थे कि पड़ोसी मुल्कों से हमारे हालात बेहतर है। मगर अब हमें जागना होगा समय के साथ-साथ। क्योंकि इस देश के मासूमों की सेहत में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है।

विश्व जनसंख्या (6 अरब, 96 करोड़, 40 लाख, 12 हजार 900) के आईने में भारत की जनता एक 'खास आँकड़े' का प्रतिनिधित्व करती है, ऐसे में हमें उम्मीद के साथ अभियानों में भी वृद्धि करनी होगी। आज भी सच यह है कि हमारे देश में 15 प्रतिशत से भी कम लोग स्वास्थ्य बीमा करवाते हैं जबकि 40 प्रतिशत से अधिक उधार लेकर अस्पताल में भर्ती होते हैं। आरोग्य के देवता की भूमि पर रोगों का आक्रमण रोकना होगा। वर्ष 2011 में हम सम्मिलित प्रयास के महत्व को समझेंगे, यही अपेक्षा है। वह सुबह कभी तो आएगी, जब हर भूखे के पास अपना स्वयं का एक निवाला होगा और देश की सेहत चमकदार होगी।

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