...कि मैं अब मुस्कुराती नहीं

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- फाल्गुनी

बस, अब नहीं लिखना
तुम्हारे लिए,
ना डायरी, ना कविता और ना ही खत,
नहीं देखना वो कच्चे सपने
जिनके पकने की कोई उम्मीद नहीं,
नहीं रोपना दिल की क्यारी में
उस स्नेह बेल को
जिसे मुरझा जाना है
सारे प्रयासों से सींचने के बाद भी।
नहीं सजाने सूनी रात के आँचल में
रूपहले सितारे
जिन्हें झर जाना है बिना झिलमिलाए।
नहीं खड़े होना है
मन की उस भावुक चौखट पर
जो तुम्हारे आने से चमक उठती थी।
नहीं खिलने देना है उस रातरानी को
जो तुम्हारी साँसों की गंध
छोड़कर जाती है मुझमें।
और हाँ, नहीं याद करना अब मुझे
तुमको, तुम्हारी आँखों को और तपते होंठों को
जो हिम सी ठंडक देते थे मेरे चेहरे को।
तुम मुस्कराओ निर्दयी,
कि मैं अब मुस्कुराती नहीं।
तुम जियो खुलकर
कि मैं अब तुम्हारे जीने की वजह नहीं।
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