क्यों तुम जाती हो!

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जितेन्द्र श्रीवास्तव

सरकती है सिरहाने से धूप
कि तुम जाती हो
ये राह सिहरी-सी खड़ी
देखती है तुम्हें
कि तुम जाती हो

यह पल अकेला है
बहुत अकेला
कि उतार दिया है तुमने पुतलियों से उसे

यह साँझ जो जाने को है अभी
ठिठकी खड़ी है पीपल की पत्तियों के बीच
देखती-सी
कि तुम जाती हो

ये आ रही आवाज विकल-सी किसी मोर की
उठ रही बीच जंगल से
या मेरे भीतर से ही कहीं
कि तुम जाती हो

पलट कर देखती तो देख पाती
जिसको सँभाला तुमने जतन से
हिल रहा वही मन पात ऐसे
जैसे डोलता है शिशु कोई
धरती पर कदम धरते

देखो तो सही
देखो न
ओ प्राण मेरी
कि रात आती है
कि तुम जाती हो ।

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