प्रेम-नगर

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- कैलाश यादव 'सनातन'

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मधुर-मधुर मुस्कान है बिखरी, गोरी कुछ ज्यादा ही निखरी,
सोच-सोचकर बहका भंवरा, महक आज क्यूं ज्यादा बिखरी।

शायद साजन आए होंगे, प्रेम तराने गाए होंगे,
हो सकता है कस्तूरी को, अपने अंदर पाए होंगे।

देख-देख साजन की आभा, सजनी कुछ ज्यादा ही निखरी,
सोच-सोचकर बहका भंवरा, महक आज क्यूं ज्यादा बिखरी।

शायद बर्फ कहीं पर पिघली, कहीं से सरकी बर्फ की सिल्ली,
प्रेम का अंकुर, चीर जिगर को, झांक रहा नैनों के रस्ते।

प्रेम-नजर जब छाई गुलशन, कली-कली शबनम-सी छितरी,
सोच-सोचकर बहका भंवरा, महक आज क्यूं ज्यादा बिखरी।

जिस मन छल के प्रेम की गगरी, उस तन माथे महके चंदन,
अवनि, अंबर, चांद, सितारे, सब के सब नतमस्तक होकर,
प्रेमनगर का करते वंदन।

यहीं कहीं से गुजरी होगी, घटा कोई मेघों से बिछुड़ी,
इसीलिए तो आज गगन में, इन्द्रधनुष की छटा है निखरी,
सोच-सोचकर बहका भंवरा, महक आज क्यूं ज्यादा बिखरी।

पायल छन के, कंगना बोले, होले-होले बजती बिछुड़ी,
फिर भी साजन दूर देश में, जाने क्यूं आहट सुन लेता,
जाने कैसे समझ वो लेता, सजनी के मन आंगन की।

मन की सिहरन उसे बताती, दिल की धड़कन सांसें उखड़ी,
सोच-सोचकर बहका भंवरा, महक आज क्यूं ज्यादा बिखरी।

माधव साजन, मीरा सजनी, इक-दूजे के मन की जानी,
पंथों और ग्रंथों में उलझे, भंवरे जैसे भटके ज्ञानी।

कान्हा काले मेघों जैसे, चपल चंचला राधा बिजुरी,
सोच-सोचकर बहका भंवरा, महक आज क्यूं ज्यादा बिखरी।


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