मोतियों-सी जगमगाती तुम्हारी हँसी

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- डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत'

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प्राण! मुझ को लुभाती तुम्हारी हँसी
प्राण तक खनखनाती तुम्हारी हँसी।

चाँदनी-सी कभी, मोतियों-सी कभी
काँति ले जगमगाती तुम्हारी हँसी।

मैं कहीं भी, किसी हाल में भी रहूँ
याद आती, बुलाती तुम्हारी हँसी।

होंठ विद्रूम, नयन पद्मरागी छटा
रत्न-मोती लुटाती तुम्हारी हँसी।

खेल ही खेल में पारिजातक खिला
खिल स्वयं, खिलखिलाती तुम्हारी हँसी।

रात-दिन नील श्वेतांबुजों पर सदा
भृंग-सी गुनगुनाती तुम्हारी हँसी।

जिंदगी जब सताती-रूलाती मुझे,
धैर्य दे तब हँसाती तुम्हारी हँसी।

स्नेह भरती अथक देह के दीप में
ज्योति मन में जगाती तुम्हारी हँसी।

खूब हँसती रहो, मुस्कुराती रहो
यह तुम्हारी हँसी है हमारी हँस ी।
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