प्रेम काव्य : शम्मा जलती रही...

सुशील कुमार शर्मा
शम्मा जलती रही, रात ढलती रही,
बात बन-बन के यूं ही बिगड़ती रही।
 
चांद हंसता रहा बेबसी पर मेरी,
आंख रिसती रही यादों में तेरी।
 
वक्त चलता रहा प्रीति झरती रही,
शम्मा जलती रही, रात ढलती रही।
 
जिंदगी घाव बनके सिसकती रही,
मौत बेवफा-सी मटकती रही।
 
न मौत पास आई, न जीवन मिला,
कुछ इस तरह से चला ये सिलसिला।
 
प्रीत मेरी आंखों में तेरी खटकती रही,
शम्मा जलती रही, रात ढलती रही।
 
उम्र आईनों के दर से गुजरती रही,
जुल्फ गालों पे ढल के संवरती रही।
 
गैर गलियों से तेरी गुजरते गए,
स्वप्न सारे यूं ही बिखरते गए।
 
जाम ढलते रहे, महफिल सजती रही।
शम्मा जलती रही, रात ढलती रही।
 
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