प्रे म के मायने क्या हैं, इस पर सदियों से विचारकों, लेखकों व अन्य लोगों ने अपने-अपने तर्क प्रस्तुत किए हैं। प्रेम क्या है? इस प्रश्न का उत्तर प्रेम करने वाले भी पूर्णता के साथ नहीं जान पाते हैं। इसका कारण यह नहीं कि उन लोगों ने सच्चा प्रेम नहीं किया होता है बल्कि प्रेम है ही ऐसा जिसे न तो भावनाओं की सीमा में बाँधकर मनमाफिक रूप दिया जा सकता है और न ही रिश्तों व संबंधों के अनुरूप नाम दिया जा सकता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार प्रेम तो महज हार्मोन्स का स्रवण है। उनके अनुसार तो कुछ खास हार्मोन्स शरीर में स्रावित हुए तो बस प्रेम हो जाता है। वहीं दूसरी ओर कवियों व शायरों ने फूलों-सी कोमलता, ओस के बूँद की निर्मलता व भगवान की सच्चे मन से की जाने वाली प्रार्थना के अनुरूप प्रेम को माना है।
प्रेम महज भावनाओं का खेल है तो फिर क्या कारण है कि वर्तमान में इस खेल में विपरीत भावनाओं का ही बोलबाला है तथा इनमें प्रेम तत्व बहुत कम है।
सदियों से प्रेम के मायने जरूर बदले हैं, पर स्वरूप वही रहा है। एक अलग कोण से देखा जाए तो शायद प्रेम भावनाओं का ऐसा जाल है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति खुद होकर फँसना चाहता है एवं इस जाल में फँसने की जो भी अच्छी या बुरी कीमत हो उसे वह स्वयं ही चुकाता है। पैसा, आडंबर, दुनियादारी, इज्जत ये सभी प्रेम के सामने गौण हो जाते हैं।
प्रेम! इस शब्द के अंदर समाहित रहस्यों में कई परतें हैं और इनमें सबसे महत्वपूर्ण निश्छलता है। भावनाओं के साथ निश्छलता भी जब घुल-मिल जाती है, तब भावनाएँ शब्दों का सहारा छोड़ आपस में संवाद करती हैं एवं शरीर व मन का इन पर नियंत्रण नहीं रहता है, सोते-जागते ये भावनाएँ आपको जकड़े रहती हैं। अगर निश्छलता को भी हटा लिया जाए तो शायद प्रेम मानव मन में छिपी भीतरी शक्ति के सकारात्मक पक्ष का प्रतिनिधित्व करता है।
त्याग, समर्पण, विश्वास, खुशी, कोमलता व अपनेपन से लेकर तो कड़वाहट, ईर्ष्या आदि को अपने में समेटे प्रेम ने मनुष्य के इर्द-गिर्द एक झीनी परत बनाई हुई है। इस परत को कोई सहसा तोड़ना नहीं चाहता है और शायद यह प्रेम ही है, जिसके कारण आज भी इस अति भौतिकवादी युग में भी मनुष्य को यदाकदा मनुष्यता के दर्शन स्वयं के भीतर होते हैं।