प्यार में रोड़ा है चिक-चिक

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हेलो दोस्तो! प्यार करने वालों को अक्सर हम झगड़ते हुए पाते हैं। यह किसी एक या दो जोड़ियों की समस्या नहीं है बल्कि कमोबेश हर जोड़ी की यही राम कहानी है। अगर हम उनकी दिनचर्या का जायजा लें तो शायद प्यार से ज्यादा वक्त उनकाझगड़े या नोक-झोंक में ही निकलता है। ऐसा लगता है जैसे झगड़े में उन्हें प्यार से ज्यादा मजा आता है या यूं कहें कि झगड़ा करने के लिए उन्हें प्यार करना पड़ रहा है। मानो प्यार की शक्ति परीक्षण का पैमाना झगड़ा ही हो। अब नसीम जी की ही समस्या को लें। वह लिखते हैं, "मैं और मेरी दोस्त एक-दूसरे को बहुत प्यार करते हैं, एक दूसरे के बिना जी नहीं सकते पर हम लोगों में बहुत ज्यादा झगड़ा होता है। मेरी दोस्त मुझे बिलकुल ही नहीं समझती है। वह हर बात पर झगड़ती है। मैं पूरी जिंदगी उसके साथ रहने का सपना देखता हूँ क्योंकि मैं उसके बिना अधूरा हूँ।

ऐसा क्या करें जिससे वह मुझे समझने लगे।"

दोस्तो, आप ही बताएँ यह रिश्ता कुछ विचित्र नहीं लगता है क्या? इतना झगड़ा और इतना प्यार! ये झगड़े शायद यह जाँचने के लिए ही होते हैं कि कितनी दूर जाकर भी हम फिर पास आ सकते हैं। हमारा प्यार कितना चुंबकीय प्रभाव रखता है। ऐसे प्रयोगों का तभी तक मजा लिया जा सकता है जब तक आप एक साथ नहीं रह रहे हैं। आप घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी से मुक्त हैं। झगड़े के बाद आपको ग्लानि होती है। माफी माँगते हैं। बर्फ पिघलती है। उसके बाद आप पहले से अधिक शिद्दत से एक-दूसरे को चाहते हुए बेहद करीब हो जाते हैं। इन सारे ड्रामे के लिए काफी समय की दरकार होती है कि अभी आपके पास है पर गृहस्थ जीवन में यह आदत आपको तबाह कर देगी। वहाँ घर चलाने के लिए ही बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। अनेक प्रकार की जिम्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं। आम तौर पर इन जिम्मेदारियों के कारण झगड़ने का समय ही नहीं होता है या फिर झगड़ लिया तो उसे सुलझाने के लिए पर्याप्त वक्त नहीं होता है।

प्यार में झगड़े होते हैं उसमें अक्सर पहले एक व्यक्ति की गलती बताकर उसे कठघरे में खड़ा किया जाता है। उस पर आरोप लगाया जाता है। उसकी एक नहीं सुनी जाती है। उसे हर हाल में गुनहगार साबित किया जाता है। तोहमत लगाने वाला उसे जी भर कर कोसता है। खरी-खोटी सुनाता है। रिश्ता तोड़ने की धमकी देता है। उसे बिना बोले भी यह समझाया जाता है कि उससे ज्यादा नीचता और कोई नहीं कर सकता है। दूसरे का बड़प्पन है जो उसे सह रहा है या सह रही है। फरियादी को लगने लगता है, वह सचमुच बहुत बड़ा गुनहगार है। उसे अपनी छोटी सी गलती भी पहाड़नुमा लगने लगती है। वह रोता है, गिड़गिड़ाता है, माफी माँगता है फिर ऐसा लगता है कि वह निराश होकर इस रिश्ते से मुँह मोड़ने का मन बना रहा है। या फिर अपने-आपको नुकसान पहुँचाने की सोचने लगता है।

जब नौबत यहाँ तक आ जाती है तो आरोपी को दया आने लगती है। उसे लगता है, कहीं साथी सचमुच हाथ से चला तो नहीं जाएगा। वह अपने आपको धिक्कारता है कि इतनी ज्यादा हायतौबा उसे नहीं मचानी चाहिए थी। उसकी तकलीफ देखकर उसे अफसोस होता है कि वह इस कदर प्रभावित हुआ, मतलब इतना ज्यादा प्यार करता है उसे। बेकार ही मैंने इतनी दिली चोट पहुँचाई। अगर बहुत ही बेदर्दी से कहें तो आरोपी को लगने लगता है कि इस ड्रामे में जो मजा आया वह इसके चले जाने पर नहीं आएगा। बस पासा पलट जाता है। अब सारे इल्जाम आरोपी खुद अपने ऊपर लेने लगता है। कहता है, सारी गलती उसकी है, वही पूरी तरह हालात को समझने की कोशिश नहीं करता या करती है। माफ कर दो, आगे से ऐसा नहीं होगा। हम तुम्हारे बिना जी नहीं पाएँगे। दृश्य, संवाद वही होते हैं, पात्र बदल जाते हैं।

यूँ देखा जाए तो नीरसता को मिटाने का यह अच्छा शगल है पर यह जीवन भर नहीं चल सकता। संवाद बनाने, करीब आने और गिला-शिकवा दूर करने का यह तरीका बेहद खतरनाक है। इसकी आदत पड़ जाए तो जीना दुश्वार हो सकता है। जीवन के बेहतरीन पल और शक्ति का बहुत बड़ा भाग इसी नाटक में बर्बाद हो सकता है।

अलग-अलग रहने पर यह नाटक जिस प्रकार आपको करीब लाने का काम करता है, उसी प्रकार साथ रहने पर यह आपको अलग रहने के लिए प्रेरित करेगा। बेहतर यही है कि ऐसे हालात को नियंत्रित ढंग से सँभालें। इस ड्रामे की स्थिति पर अपनी नापसंदगी दिखाएँ। इसे शह न दें। अपना दिल कड़ा करके थोड़ी दूरी दिखाएँ ताकि दूसरा बिना उत्तेजित हुए उस पर विचार करे। जब समय बीत जाए और गुस्सा शांत हो जाए तो बाद में अपनी गलती पर विस्तार से सफाई दें। पर, दूसरे के हंगामा मचाने पर आप भी उतने ही विचलित न हो जाएँ। अगर सही मायने में आपकी बड़ी भूल है तो उसे सुधारने का प्रयास करें। वरना ड्रामेबाजी में गलती सुधारने पर कम ध्यान जाता है। बस रूठने-मनाने का नाटक ही मुख्य थीम बन जाता है इसलिए स्थिति हमेशा ज्यूँ की त्यूँ रह जाती है।

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