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पुराण और वेद का भेद

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
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पुराण का विरोध कौन करेगा? जो हिन्दू धर्म के इतिहास को मिटाना चाहता है वही पुराण का विरोध करेगा। बौद्ध और मध्य काल में पुराणों के साथ छेड़छाड़ हुई और इसीलिए आज उसकी प्रमाणिकता पर सवाल उठाए जाने लगे हैं।

पुराण हिंदुओं के धर्मग्रंथ नहीं है तब फिर क्या है? क्या पुराण अप्रमाणिक ग्रंथ हैं? वेद और पुराणों में निश्चित ही भेद हैं। वेद हिन्दुओं के एकमात्र ग्रंथ हैं, जिन्हें श्रुति कहा गया है और पुराण हिन्दुओं के प्राचीन काल का इतिहास है, जिन्हें स्मृति ग्रंथ कहा गया है। पुराणों में संशोधन हो सकता है लेकिन वेदों में नहीं। क्यों? इसका जवाब किसी अन्य लेख में।

* वेद धर्मग्रंथ है तो पुराण इतिहास ग्रंथ। पुराण देवताओं और मनुष्यों के बीच संबंधों का इतिहास है। जब देवता धरती पर रहते थे। भगवान कृष्ण के काल तक देवी-देवता और उनके काल में ऋषि-मुनि धरती पर रहते थे। महाभारत के युद्ध के बाद सभी देवता आकाश में अपने अपने स्थान पर चले गए।

हालांकि इतिहास और पुराण में भी भेद है। वेद और पुराण में भी भेद है। जो लोग मतांध या अंधविश्वासी हैं वे पुराण को भ्रमपूर्ण या मिथ्‍या नहीं मानते। और जो अति तर्कशील हैं उनके लिए पुराण भ्रम और झूठ का एक पुलिंदा मात्र है, किंतु जो शोधार्थी हैं वे पुराणों में इतिहास और वेद की बातें निकालकर अलग कर लेते हैं।

यदि आपको पांच-दस हजार साल का ही लेखा-जोखा लिखना हो और वह भी सिर्फ राजाओं की बेवकूफियां तो कोई दिक्कत वाली बात नहीं, लेकिन यदि आपको लाखों सालों को कुछ ही पन्नों पर समेटना हो और वह भी इस तरह कि कोई भी महत्वपूर्ण घटनाक्रम छूट न जाए तो निश्चित ही यह आपके लिए कठिन कार्य होगा।

वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ होने के कारण आम आदमियों के द्वारा उन्हें समझना बहुत कठिन था, इसलिए रोचक कथाओं के माध्यम से वेद के ज्ञान की जानकारी देने की प्रथा चली। इन्हीं कथाओं के संकलन को पुराण कहा जाता हैं। पौराणिक कथाओं में ज्ञान, सत्य घटनाओं तथा कल्पना का संमिश्रण होता है। पुराण ज्ञानयुक्त कहानियों का एक विशाल संग्रह होता है। पुराणों को वर्तमान युग में रचित विज्ञान कथाओं के जैसा ही समझा जा सकता है।

पुराण का अर्थ होता है सबसे पुरातन या प्राचीन। पुराण में हजारों नहीं लाखों साल की परम्परा, इतिहास, संस्कृति और वैदिक ज्ञान को समेटने का प्रयास किया गया। शैव पंथियों ने शिव को आधार बनाकर, वैष्णव पंथियों ने विष्णु को आधार बनाकर, शाक्तों ने शक्ति को आधार बनाकर, एकेश्वरवादियों ने निराकार ईश्वर को आधार बनाकर और कृष्ण भक्तों ने कृष्ण को आधार बनाकर सृष्टि उत्पत्ति, मानव इतिहास, परम्परा, धर्म और दर्शन का विस्तार किया। इसीलिए सब कुछ भ्रमपूर्ण या कहें कि होच-पोच लगता है। फिर भी वेद व्यास कहते हैं कि जहां ऐसा लगता है वहां वेद की बातों को ही प्रमाण मानना चाहिए।

वेदों और पुराणों के हजारों पन्ने तो काल-कवलित हो गए हैं और जितने पन्ने समय खा गया उससे कहीं अधिक तो श्रुति और स्मृति की बातें विस्मृत हो गई हैं, फिर भी जो बचा है उसे जब संग्रहित किया गया तो निश्चित ही वह क्रमबद्ध नहीं रहा सब कुछ होच-पोच था। परंतु इतने के ही अर्थ निकाल लिए तो जो छूट गया है उसे इतने से ही पकड़ा जा सकता है।

वेद व्यास ने कितने पुराण लिखे और बौद्धकाल में तथाकथित पंडितों ने कितने पुराणों की रचना की यह शोध का विषय हो सकता है। इसके अलावा क्या वेद व्यास द्वारा लिखे गए पुराणों में बौद्धकाल और मध्यकाल में परिवर्तन, संशोधन किया गया? क्या सनातन धर्म के विरोधियों, पंडितों ने अपने व्यापारिक स्वार्थ या श्रमणों और अन्य धर्म के प्रभाव को कम करने के लिए पुराणों में संशोधन किए गए? यह कुछ सवाल है जिसकी खोज करनी होगी। भविष्यपुराण और कल्कि पुराण को पढ़ने पर लगता हैं कि यह मध्यकाल की रचना है।

आज के पाश्चात्य नजरिए से प्रभावित लोगों को पुराण की कोई समझ नहीं है। आज हवा का रुख है इतिहास की ओर। लोग यह नहीं जानते कि जीवन रहस्यमय है जिसकी परतों पर परतें हैं। यदि वर्तमान धार्मिकों के पास थोड़ी-सी वैज्ञानिक समझ होती तो वे पुराण में छिपे इतिहास और विज्ञान को पकड़ना जानते। लेकिन पोथी-पंडितों को कथाएं बांचने से फुरसत मिले तब तो कहीं वे पुराण को इतिहास करने में लगेंगे। तब तो कहीं उन पर शोध किया जाएगा।

पुराण का अर्थ है इतिहास का सार, निचोड़ और इतिहास का अर्थ है जो घटनाक्रम हुआ उसका तथ्‍यपरक विस्तृत ब्योरा। जरूरत है कि हम पुराण की कथाओं को समझें और उन्हें इतिहास अनुसार लिखें। कब तक पुराण की कथाओं को उसी रूप में सुनाया जाएगा जिस रूप में वे काल्पनिक लगती हैं। जरूरत है कि उसके आसपास जमी धूल को झाड़ा जाए।

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