हिन्दू धर्म की ये 14 परंपराएं सभी धर्मों में मिलेंगी...

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माना जाता है कि दुनिया के सबसे प्राचीन धर्म सनातन हिन्दू धर्म और जैन धर्म से दुनिया के अन्य धर्मों ने बहुत कुछ सीखा या लिया है। हालांकि आदिम धर्म का गैर-आदिम धर्मों जैसे हिन्दू, जैन, बौद्ध, यहूदी, ईसाई, पारसी, मुस्लिम आदि सभी पर प्रभाव रहा है। यदि हम यहूदी परंपरा की बात करें तो यह भी दुनिया के प्राचीन धर्मों में से एक है। हजरत इब्राहीम ईसा से लगभग 1800 वर्ष पूर्व हुए थे। मूसा लगभग 1300 वर्ष पूर्व हुए थे। लेकिन शोधानुसार उनसे भी पूर्व नूह हुए थे और सबसे प्रथम आदम हुए। शोधकर्ता यही मानते हैं कि मानव की उत्पत्ति भारत में हुई थी। इस तरह हमने जाना कि हिन्दू और यहूदी परंपरा सबसे प्राचीन है। उक्त तीनों ही तरह की परंपरा के तार एक-दूसरे में मिले हुए हैं।
 
यदि हम प्रारंभिक काल की बात करें तो शोध बताते हैं कि राजा मनु ही नूह थे और हजरत इब्राहीम भारत से ही जाकर ऊर में बस गए थे। कहा जाता है कि 1900 ईसा पूर्व धरती पर मूसलधार बारिश हुई थी। उसी दौरान एक जबरदस्त भूकंप भी आया था। इस बारिश और भूकंप के कारण एक ओर जहां सिंधु नदी ने अपनी दिशा बदल दी तो दूसरी ओर सरस्वती नदी में जोरदार लहरें और तूफान उठने लगे। सरस्वती नदी का आधा पानी सिंधु में मिल गया तो आधा पानी यमुना में। इस प्राकृतिक आपदा के कारण सिंधु सरस्वती सभ्यता नष्ट हो गई। माना जाता है कि अरब के प्रवासियों में पहले थे अब्राहम, जिनको इस्लामिक परंपरा में हजरत इब्राहीम कहा जाता है। 
प्राप्त शोधानुसार सिंधु और सरस्वती नदी के बीच जो सभ्यता बसी थी वह दुनिया की सबसे प्राचीन और समृद्ध सभ्यता थी। यह वर्तमान में अफगानिस्तान से भारत तक फैली थी। प्राचीनकाल में जितनी विशाल नदी सिंधु थी उससे कई ज्यादा विशाल नदी सरस्वती थी। इसी सभ्यता के लोगों ने दुनियाभर में धर्म, समाज, नगर, व्यापार, विज्ञान आदि की स्थापना की थी। खैर... यह तो शोध का विषय है फिर भी कहा जाता है कि भारत के संबंध प्राचीनकाल से ही अरब, यूनान और रोम से रहे हैं। तीनों क्षेत्रों में धर्म, संस्कृ‍ति, ज्ञान और विज्ञान का आदान-प्रदान होता रहा है। आओ, हम आपको हिन्दू धर्म की ऐसी 14 परंपराएं बताते हैं, जो अन्य धर्मों में भी मिल जाएंगी।
 
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प्रायश्चित करना : प्राचीनकाल से ही हिन्दु्ओं में मंदिर में जाकर अपने पापों के लिए प्रायश्चित करने की परंपरा रही है। प्रायश्‍चित करने के महत्व को स्मृति और पुराणों में विस्तार से समझाया गया है। गुरु और शिष्य परंपरा में गुरु अपने शिष्य को प्रायश्चित करने के अलग-अलग तरीके बताते हैं।
 
दुष्कर्म के लिए प्रायश्चित करना , तपस्या का एक दूसरा रूप है। यह मंदिर में देवता के समक्ष 108 बार साष्टांग प्रणाम , मंदिर के इर्दगिर्द चलते हुए साष्टांग प्रणाम और कावडी अर्थात वह तपस्या जो भगवान मुरुगन को अर्पित की जाती है, जैसे कृत्यों के माध्यम से की जाती है। मूलत: अपने पापों की क्षमा भगवान शिव और वरूणदेव से मांगी जाती है, क्योंकि क्षमा का अधिकार उनको ही है।
 
जैन धर्म में 'क्षमा पर्व' प्रायश्चित करने का दिन है। दोनों ही धर्मों के इस नियम या परंपरा को ईसाई और मुस्लिम धर्म में भी शामिल किया गया है। ईसाई धर्म में इसे 'कंफेसस' और इस्लाम में 'कफ्फारा' कहा जाता है।
 
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दीक्षा देना : दीक्षा देने का प्रचलन वैदिक ऋषियों ने प्रारंभ किया था। प्राचीनकाल में पहले शिष्य और ब्राह्मण बनाने के लिए दीक्षा दी जाती थी। माता-पिता अपने बच्चों को जब शिक्षा के लिए भेजते थे तब भी दीक्षा दी जाती थी। हिन्दू धर्मानुसार दिशाहीन जीवन को दिशा देना ही दीक्षा है। दीक्षा एक शपथ, एक अनुबंध और एक संकल्प है। दीक्षा के बाद व्यक्ति द्विज बन जाता है। द्विज का अर्थ दूसरा जन्म। दूसरा व्यक्तित्व। सिख धर्म में इसे अमृत संचार कहते हैं।
 
यह दीक्षा देने की परंपरा जैन धर्म में भी प्राचीनकाल से रही है, हालांकि दूसरे धर्मों में दीक्षा को अपने धर्म में धर्मांतरित करने के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा। बौद्ध धर्म से इस परंपरा को ईसाई धर्म ने अपनाया जिसे वे बपस्तिमा कहते हैं। अलग-अलग धर्मों में दीक्षा देने के भिन्न-भिन्न तरीके हैं। यहूदी धर्म में खतना करके दीक्षा दी जाती है। 
 
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मुंडन संस्कार : हिन्दू और जैन धर्म में मुंडन संस्कार 3 वक्तों पर किया जाता है : पहला- बचपन में, दूसरा- गायत्री मंत्र या दीक्षा लेते वक्त और तीसरा- किसी स्वजन की मृत्यु होने पर। इसके अलावा यज्ञादि विशेष कर्म और तीर्थ में जाकर भी मुंडन किया जाता है। यह संस्कार लगभग सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में मिल जाएगा। एक ओर जहां मुसलमान मक्का में हज के दौरान मुंडन या हजामत करवाता है तो दूसरी ओर बौद्ध धर्म में दीक्षा लेते वक्त मुंडन किया जाता है।
 
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परिक्रमा करना : भारत में मंदिरों, तीर्थों और यज्ञादि की परिक्रमा का प्रचलन प्राचीनकाल से ही रहा है। भगवान गणेश ने अपने माता-पिता की परिक्रमा करके दुनिया को यह संदेश दिया था कि सबसे बड़ा तीर्थ तो माता-पिता ही हैं। मंदिर की 7 बार (सप्तपदी) परिक्रमा करना बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह 7 परिक्रमा विवाह के समय अग्नि के समक्ष भी की जाती है। प्रदक्षिणा को इस्लाम में तवाफ कहते हैं।
 
हिन्दू धर्म में परिक्रमा का बड़ा महत्त्व है। परिक्रमा से अभिप्राय है कि सामान्य स्थान या किसी व्यक्ति के चारों ओर उसकी बाहिनी तरफ से घूमना। इसको 'प्रदक्षिणा करना' भी कहते हैं, जो षोडशोपचार पूजा का एक अंग है। प्रदक्षिणा की प्रथा अतिप्राचीन है। वैदिक काल से ही इससे व्यक्ति, देवमूर्ति, पवित्र स्थानों को प्रभावित करने या सम्मान प्रदर्शन का कार्य समझा जाता रहा है। दुनिया के सभी धर्मों में परिक्रमा का प्रचलन हिन्दू धर्म की देन है। काबा में भी परिक्रमा की जाती है तो बोधगया में भी। 
 
हिन्दू सहित जैन, बौद्ध और सिख धर्म में भी परिक्रमा का महत्व है। इस्लाम में मक्का स्थित काबा की 7 परिक्रमा का प्रचलन है। 
 
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बिना सिले सफेद वस्त्र पहनना : पूजा-पाठ, तीर्थ परिक्रमा, यज्ञादि पवित्र कर्म के दौरान बिना सिले सफेद या पीत वस्त्र पहनने की परंपरा भी प्राचीनकाल से हिन्दुओं में प्रचलित रही है। जैन धर्म में बिना सिले सफेद वस्त्र पहनकर ही मंदिर में जाने का नियम है। इसी तरह हज में काबा की परिक्रमा के दौरान हाजी एहराम पहनते हैं यानी दो बिना सिले सफेद कपड़े।
 
तीन सूत का धागा कंधे में डालकर और तन पर एक ही सफेद कपड़ा जब कोई हिंदू पहनकर काशी में परिक्रमा करता है तो उसे द्विज कहा जाता है और जब मक्का शरीफ में हज के दौरान कोई मुसलमान ये पहनता है तो उसे हाजी कहा जाता है।
 
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संध्यावंदन : संध्यावंदन 8 प्रहर की होती है जिसमें से 5 महत्वपूर्ण होते हैं और उन 5 में से भी 2 व‍क्त की संध्या अत्यंत ही महत्वपूर्ण मानी गई है। इसी तरह इस्लाम में भी नमाज का वक्त मुकर्रर है, जो कि 5 वक्त की होती है। 5 का महत्व वेदों में अधिक है, जैसे पंचाग्नि, पंचपात्र, पंचगव्य, पंचांग आदि। इसी तरह पंचयज्ञ कर्म होते हैं। कहते हैं कि हज यात्रा भी 5 दिन की होती है। सभी धर्मों में संध्यावंदन का स्वरूप अलग-अलग है, लेकिन उन सभी का उद्गम प्राचीन वैदिक धर्म ही है।
 
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शौच और शुद्धि : मंदिर जाने या संध्यावंदन के पूर्व आचमन या शुद्धि करना जरूरी है। इसे इस्लाम में वुजू कहा जाता है। हिन्दू और मुस्लिम धर्म में इस पवित्र कर्म के एक समान नियम बताए गए हैं। ये नियम सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में आपको देखने को मिल जाएंगे। जैन और बौद्ध धर्म में इसका खासा महत्व है। ध्यान, पूजा, नमाज या प्रार्थना करने से पूर्व शरीर शुद्धि किए जाने का उल्लेख सभी धर्मों में मिलता है। वैसे भी किसी भी पूजास्थल पर जाने से पूर्व पवित्र होना जरूरी है। शौच को इस्लाम में तय्युम कहते हैं। यह शौच शब्द योगसूत्र का है।
 
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जप-माला फेरना : किसी मंत्र, भगवान का नाम या किसी श्लोक का जप करना हिन्दू धर्म में वैदिक काल से ही प्रचलित रहा है। जप करते वक्त माला फेरी जाती है जिसे जप संख्या का पता चलता है। यह माला 108 मनकों की होती है। मनके काठ, तुलसी, रुद्राक्ष, मोती, कीमती पत्थर या फिर कमल गट्टे के होते हैं। हिन्दू शास्त्रों में जप करने के तरीके और महत्व को बताया गया है। कहते हैं कि बौद्ध धर्म के कारण यह परंपरा अरब और यूनान में प्रचलित हो गई।
 
जप 3 तरह का होता है- वाचिक, उपांशु और मानसिक। 
 
जप करने का प्रचलन सभी धर्मों में मिलेगा। इस्लाम में जप माला को तस्बीह कहा जाता है। तस्बीह में 99 मनके होते हैं, जो कि अल्लाह के 99 नाम जप हैं। हालांक‍ि कुछ अन्य जप में इसके मनके 33 और 101 भी होते हैं। 'तस्बीह' और 'तहमीद' का जप करने से पापों का क्षय होता है और पुण्य मिलता है। तस्बीह काठ की, खजूर की गुठली की, मोती की, मक्का के दाने या कीमती पत्थर की बनाई जाती है। इसे तहलील करना भी कहा जाता है।
 
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व्रत रखना : व्रत को उपवास भी कह सकते हैं, हालांकि दोनों में थोड़ा-बहुत फर्क है। संकल्पपूर्वक किए गए कर्म को व्रत कहते हैं। व्रत के 3 प्रकार हैं- 1. नित्य, 2. नैमित्तिक और 3. काम्य। व्रतों में श्रावण सोमवार को सर्वोच्च माना जाता है।
 
व्रत का विधान सभी धर्मों में मिल जाएगा। इस्लाम में इसे 'रोजा' कहा जाता है, जो कि रमजान माह में रखा जाता है। जैन धर्म में तो व्रत के बहुत ही कठिन विधान हैं। भाद्रपद मास में 8 दिनों तक चलने वाले पर्युषण पर्व में अन्य का त्याग कर दिया जाता है। बौद्ध धर्म में भी सम्यक आहार का विधान है। भगवान महावीर और बुद्ध ने कठिन व्रत करके ही मोक्ष पाया था। ईसाई और यहूदी धर्म में व्रतों का पालन किया जाता है। अधिकतर लोग शुक्रवार तो व्रत रखते हैं।
 
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दान-पुण्य करना : दान-दक्षिणा देने की परंपरा भी वैदिक काल से रही है। वेदों में तीन प्रकार के दाता कहे गए हैं- 1. उक्तम, 2.मध्यम और 3.निकृष्‍ट। धर्म की उन्नति रूप सत्यविद्या के लिए जो देता है वह उत्तम। कीर्ति या स्वार्थ के लिए जो देता है तो वह मध्यम और जो वेश्‍यागमनादि, भांड, भाटे, पंडे को देता वह निकृष्‍ट माना गया है।
 
पुराणों में अनोकों दानों का उल्लेख मिलता है जिसमें अन्नदान, वस्त्र दान, विद्यादान, अभयदान और धनदान को ही श्रेष्ठ माना गया है, यही पुण्‍य भी है।
 
सभी धर्मों में दान के अलग- अलग नाम हैं। इस्लाम में इसे 'जकात' कहा जाता है। बौद्ध धर्म में बुद्ध पूर्णिमा के दिन दान करने का खास महत्व है। जैन, ईसाई, सिख आदि सभी धर्मों में दान का महत्व बताया गया है।
 
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पाठ करना : वेद पाठ उसी तरीके से किया जाता है जिस तरीके से कुरआन पाठ। संस्कृत में उच्चारण की शुद्धता पर उतना ही ध्यान रखा जाता है जितना की अरबी की शुद्धता पर। हिन्दू धर्म में वेद, उपनिषद और गीता के पाठ करने की परंपरा प्राचीनकाल से रही है। वक्त बदला तो लोगों ने पुराणों में उल्लेखित कथा की परंपरा शुरू कर दी, जबकि वेदपाठ और गीता पाठ का अधिक महत्व है। इसी तरह सिख धर्म में जपुजी का पाठ किया जाता है। ‍इस्लाम में इसे तिलावत करना कहते हैं।
 
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तीर्थ करना : प्रत्येक वर्ष तीर्थयात्रा का आयोजन होता है। सभी धर्मों के लोग विशेष समय में अपने-अपने धर्म के प्रमुख स्थलों की यात्रा करते हैं। जैन धर्म के अनुयायी सम्मेदशिखरजी जाते हैं, तो बौद्ध अनुयायी बोधगया। सिख धर्म के लोग अमृतसर और ननकाना साहिब तो मुसलमान मक्का जाते हैं।
 
हिन्दू चार धाम की यात्रा करते हैं। उसमें भी काशी और बद्रीनाथ की यात्रा सबसे महत्वपूर्ण मानी गई है। तीर्थ को अरबी में हज कहते हैं। माना जाता है कि 'हज' शब्द संस्कृत के व्रज का अपभंश है, वज्र का अर्थ एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना भी है। वज्र एक प्रकार का अस्त्र और योग का एक आसन भी होता है। हज का अर्थ संकल्प करना भी होता है।
 
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श्राद्ध पक्ष : हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख धर्मग्रंथों के अनुसार मरने के बाद मृत आत्मा का अस्तित्व विद्यामान रहता है। हिन्दू धर्म में अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान, उनकी सद्गति और शांति के लिए वर्ष में एक बार 16 दिन के लिए श्राद्ध पर्व मनाया जाता है। पितृ पक्ष हिन्दू मास अनुसार भाद्रपद के चन्द्र मास में पड़ता है और पूर्ण चन्द्रमा के दिन या पूर्ण चन्द्रमा के एक दिन बाद प्रारम्भ होता है। अर्थात इस वर्ष 27 सितंबर से 12 अक्टूबर तक रहेगा।
 
प्रत्येक धर्म में अपने पितरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के दिन नियुक्त हैं। इस्लाम में जहां 40 दिनों बाद कब्र पर जाकर फातिहा पढ़ने का रिवाज है। वहीं, ईसाई लोग दुनिया से गुजरे लोगों को सामूहिक रूप से याद करने के लिए ऑल सोल्स डे मनाते हैं। ईसाई लोग गिरजाघरों में मृतकों की याद में सुबह-शाम सामूहिक प्रार्थना करते हैं और अपने घरों में मोमबत्तियाँ जलाते हैं। माना जाता है कि ईसाई धर्म में इस दिन को मनाने की शुरुआत 17वीं सदी से हुई थी। इसे 2 नवंबर को मनाया जाता है।
 
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सेवा भाव : सेवा एक नैसर्गिक भावना है। सेवा भाव का हिन्दू धर्म सहित जैन और बौद्ध में बहुत महत्व है। गरीब, अनाथ, अपंग, गौ, पशु, पक्षी आदि की सेवा करना 'पुण्य' का कार्य है। हिन्दू धर्म में सेवा को कर्म योग के रूप में भी जाना जाता है और यह मानसिक अशुद्धताओं को कम करनेवाला एक प्रभावशाली उपक्रम है।
 
ईसाई धर्म में सेवा करने पर अधिक बल दिया गया है। इस्लाम और सिख धर्म में भी सेवा पर बल दिया गया है।
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