क्यों असफल हो गए हिन्दू सुधार आंदोलन?

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
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हिन्दू सनातन धर्म से जातिप्रथा को खत्म कर उक्त धर्म को श्रेणीबद्ध करने, उसका एकीकरण करने और उसे पुन: वैदिक व्यवस्था में ढालने का कार्य बहुत से महान देवों और साधु-संतों ने किया। लेकिन अंतत: देखा जाए तो उन सभी का आंदोलन एक नए समाज या संप्रदाय में बदलकर असफल सिद्ध हुआ। क्यों?

भगवान कृष्ण : कृष्ण के पहले भी ऐसे कई ऋषि-मुनी हुए जिन्होंने धर्म को एक व्यवस्था दी, लेकिन उनके प्रभाव से विशेष क्षेत्र और लोग ही बदल पाए बाकी सभी कबीले, वंश, जाति, कुल, समुदाय और स्थानीय संस्कृति की कुप्रथाओं में ही ‍जीकर उनका विस्तार करते रहे।

भगवान कृष्ण चाहते थे कि समूचा मानव समाज एक ही झंडे के नीचे आ जाए और कुरुतियों तथा तरह-तरह की पूजाओं को छोड़कर वह ब्रह्म पूजक बन जाए, लेकिन ऐसा हो नहीं सका।

भगवान कृष्ण ने महर्षि वेद व्यास के माध्यम से हिन्दू सनातन धर्म को व्यवस्थित करने का प्रयास किया और इसमें वह उनके काल में कुछ हद तक सफल भी रहे। लेकिन बौद्ध काल तक आते-आते उनका प्रयास महज 'भागवत धर्म' में ही सिमट कर रह गया।

भगवान बुद्ध : हिन्दू धर्म के 9वें अवतारी पुरुष भगवान बुद्ध ने जाति प्रथा, कुप्रथाएं और पाखंड के खिलाफ एक शुद्ध वैदिक आंदोलन का सूत्रपात किया था। बुद्ध पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने समाज में फैले ऊंच-नीच और छुआछूत के विरुद्ध कार्य किया था। समाज के पीछड़े तबके के लिए सर्वप्रथम उन्होंने ही आवाज उठाई। बुद्ध के समय दलित या हरिजन जैसा कोई शब्द नहीं था। तब क्षुद्र शब्द का प्रचलन हो चला था। ऐसा हिन्दू सनातन धर्म के कारण नहीं बल्कि धन और शक्ति की इच्‍छा रखने वाले राजा और पूरोहित वर्ग के कारण हुआ।

लेकिन बुद्ध का आंदोलन एक नए धर्म में बदल गया। इससे यह सिद्ध हुआ कि उनका आंदोलन भी हिन्दू धर्म की बुराइयों को खत्म नहीं कर पाया। आखिर क्यों? क्योंकि हिंदुओं में कुछ समाज ऐसे हैं जो अपना तामसिक या क्षुद्रपन कभी नहीं छोड़ सकते।

मध्यकाल : इसके बाद मध्यकाल में समय-समय पर बहुत से संतों ने धर्म में फैली बुराई को हटाने का कार्य किया। संत रविदास, तुलसीदास, संत कबीर, सुरदास, रैदास, दास मलूक आदि संतों के नेतृत्व में भक्ति आंदोलन चला, लेकिन सच मानों तो इन सभी संतों का आंदोलन भी एक नए समाज में बदलकर रह गया। वैसे ही धर्म में पहले से ही सैंकड़ों समाज बन गए थे, तो दो-चार और बन जाते हैं तो क्या फर्क पड़ता है।

आधुनिक युग में हिन्दू धर्म में जाति पर आधारित कुप्रथाओं के विरुद्ध सुधार का पहला चरण स्वामी दयानंद सरस्वती, राजा राम मोहन राय, स्वामी विवेकानंद, अरविंद घोष, एनी बेसेंट, चैतन्य महाप्रभु, महात्मा गांधी आदि महापुरुषों द्वारा चलाया गया। इसका दूसरा चरण महर्षि महेश, श्रीराम शर्मा आचार्य आदि संतों ने शुरू किया।

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दयानंद सरस्वती : हिन्दू समाज में फैली कुप्रथाओं और बुराइयों को लेकर दयानंद सरस्वती सदा बैचेन रहते थे। वह इस बात के लिए भी सदा चिंतित रहते थे कि हिन्दू अपने वैदिक धर्म से हटकर पुराणिकों के धर्म का अनुयायी बन गया है। इसके अलावा वह इस बात से भी दुखी थे कि हिन्दू समाज के बहुत से लोग मुसलमान और ईसाई बन गए थे।

इन्हीं सारी चिंताओं को लेकर वेदों, संस्कृत व्याकरण, वैदिक भाष्यों के प्रकांड विद्वान दयानंद सरस्वती ने 1875 में आर्य और वैदिक संस्कृति का पुर्नजागरण का आंदोलन चलाया। उन्होंने जो हिन्दू मुसलमान और ईसाई बन गए थे उनकी घर वापसी को लेकर भी एक शुद्धि आंदोलन का सूत्रपात किया। लेकिन उनका आंदोलन महज आर्य समाज बनकर रह गया।

वो आर्य समाज जिसकी कोख से लाला लाजपत रॉय, भगत सिंह जैसे होनहार सपूत पैदा हुए। उनकी शिक्षाओं व आदर्शो पर स्थापित दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज (डीएवी) युवाओं की नई पौध में आज देशभक्ति का हुनर भर रहे हैं।

राजा राममोहन राय : 19वीं सदी की शुरुआत में राजा साहेब का ब्रह्म समाज स्थापित हिन्दू सुधार आंदोलन था। उन्होंने हिन्दू और राष्ट्रीय एकीकरण के लिए अथक प्रयास किए साथ ही इस आंदोलन ने स्वतंत्रता की सर्वव्यापी भावना का सूत्रपात किया। राजा राममोहन राय ने ईश्वरीय ऐक्य 'एकमेवाद्वितीयम्' को स्थापित करने का प्रयास किया। वेदों की राह पर चलकर उन्होंने कहा 'ब्रह्म ही सत्य है'। उन्होंने समाज की बहुत सी बुराइयों को खत्म किया जैसे सती प्रया, जाति प्रथा आदि। लेकिन उनका आंदोलन में म ह ज 'ब्रह्म समाज' बनकर ही रह गया।

स्वामी विवेकानन्द : विवेकानंद भी वैदिक परंपरा से थे। विवेकानंद की अद्वैत दर्शन पर की गई टीकाएं, परंपरागत विज्ञान, परंपराओं, भारतीय दर्शन पर निष्कर्ष आज भी अध्ययन का विषय हैं। वे भी चाहते थे कि हिन्दू समाज बदले और वेदों की राह पर चले लेकिन यह नहीं हो पाया। रामकृष्ण मिशन का उद्देश्य भी यही था कि सभी लोग सिर्फ वेद पर कायम रहें। लेकिन उनका मिशन सिर्फ एक मिशन ही रह गया।

स्वामी चैतन्य महाप्रभु : वैष्णव संत चैतन्य महाप्रभु का नाम कौन नहीं जानता। हरे रामा हरे कृष्णा आंदोलन का प्रवर्तक चाहते थे कि सभी हिन्दू कृष्ण पर कायम हो जाएं तो यह हिन्दू समाज का एकीकरण हो जाएगा। इनसे पूर्व भी बंगाल में 14वीं सदी में एक संत चैतन्य महाप्रभु हुए थे उन्होंने भी वहीं प्रयास किए थे। बंगाल, असम और पूर्वोत्तर राज्य में उनका आंदोलन चला, लेकिन हिन्दू वहीं पूराने ढर्रे पर लोट गया।

शिरडी के सांई बाबा : शिरडी के सांई बाबा ने भी यही सोचा होगा कि लोगों को एक ही मालिक को पूजने की शिक्षा दी जाए और पुन: ब्रह्म ही सत्य है के प्राचीन नारे को चरितार्थ किया जाए। बाबा इस मामले में बहुत हद तक सफल भी हो गए हैं। हिंन्दू धर्म के विद्वान चाहते हैं कि समूचा हिन्दू समाज शिरडी के सांई से जुड़कर एक ही झंडे तले आ जाए ताकि बाकि चीजें फिर आसान होने लगे। सबका मालिक एक। अब देखना है कि क्या सांई आंदोनल सफल हो पाएगा?

श्रीराम शर्मा आचार्य : श्रीराम शर्मा आचार्य ने नारा दिया था 'हम बदलेंगे युग बदलेगा', लेकिन सिर्फ वही बदले जो उनसे जुड़े थे। युग भी बदला लेकिन पहले से कहीं ज्यादा हिन्दू समाज अब और टूट गया। आचार्य जी चाहते थे कि हिन्दू वेदों की राह पर लौटकर जातिप्रथा को छोड़कर समता और एकता के भाव से जीए। इसके लिए उन्होंने उन लोगों को ब्राह्मण बनाया जो निचली जाति से थे। आज गायत्री परिवार में हर जाति का व्यक्ति है, लेकिन यह आंदोलन भी बस परिवार तक ही सिमटा रहा।

इसके अलावा अरविंद घोष, महात्मा गांधी, एनी बिसेंट, महर्षि महेष योगी आदि सैंकड़ों लोगों ने हिन्दू समाज से जाति प्रथा को खत्म कर सभी को एक ही झंडे तले लाने का प्रयास किया, लेकिन हिन्दू भी इतना पक्का है कि उसने सभी के आंदोलन को असफल कर दिया, क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तो छोड़ों खुद दलि त भी अपना क्ष ुद्रपन नहीं छोड़ना चाहता। अपन े- अपन े उपना म औ र जात ि स े सभ ी चीपक े हु ए हैं।
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