वेद सम्मत वाणी का प्रभाव...

- अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

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ॐ। वाणी की देवी ‍वीणावादिनी माँ सरस्वती है। कहते हैं कि श्रेष्ठ विचारों से सम्पन्न ‍व्यक्ति की जुबान पर माँ सरस्वती विराजमान रहती है। बोलने से ही सत्य और असत्य होता है। अच्छे वचन बोलने से अच्छा होता है और बुरे वचन बोलने से बुरा, ऐसा हम अपने बुजुर्गों से सुनते आए हैं।

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बोलना हमारे सामाजिक जीवन की निशानी है। हमारे मानव होने की सूचना है। बोलने से ही हम जाने जाते हैं और बोलने से ही हम विख्यात या कुख्‍यात भी हो सकते हैं। एक झूठा वचन कई लोगों की जान ले सकता है और एक सच्चा वचन कई लोगों की जान बचा भी सकता है। जैन, बौद्ध और योग दर्शन में सम्यक वाक के महत्व को समझाया गया है। सम्यक वाक अर्थात ना ज्यादा बोलना और ना कम। उतना ही बोलना जितने से जीवन चलता है। व्यर्थ बोलते रहने का कोई मतलब नहीं। भाषण या उपदेश देने से श्रेष्ठ है कि हम बोधपूर्ण जीए, ऐसा धर्म कहता है।

वाक का सकारात्मक पक्ष यह है कि इस जग में वाक ही सब कुछ है यदि वाक न हो तो जगत के प्रत्येक कार्य को करना एक समस्या बन जाए। नकारात्मक पक्ष यह कि मनुष्य को वाक क्षमता मिली है तो वह उसका दुरुपयोग भी करता है कड़वे वचन कहना, श्राप देना, झूठ बोलना या ऐसी बातें कहना जिससे की भ्रमपूर्ण स्थिति का निर्माण होकर देश, समाज, परिवार, संस्थान और धर्म की प्रतिष्ठा गिरती हो।

आज के युग में संयमपूर्ण कहे गए वचनों का अभाव हो चला है। इस युग को बहुत आवश्यकता है इस बात की कि वह बोलते वक्त सोच-समझ लें कि इसके कितने दुष्परिणाम होंगे या इस का मनोवैज्ञानिक प्रवाभ क्या होगा। सनातन हिंदू धर्म ही नहीं सभी धर्मों में वाक संयम की चर्चा की गई है। आओ हम जानते हैं कि वेद सम्मत वाणी क्या है और इसका प्रभाव कैसा होता है।

वैदिक युग के ऋषियों ने वाणी को चार भागों में बाँटा है- (1) वैखारी वाणी (2) मध्यमा वाणी (3) पश्यंती वाणी और (4) परा वाणी। ये वाणियाँ कंठ, ऊर्ध्व प्रदेश, हृदय और नाभि से निसृत होती हैं।

(1) वैखारी वाणी : प्रतिदिन के बोलचाल की भाषा वैखरी वाणी है। ज्यादातर लोग बगैर सोचे-समझे बोलते हैं और कुछ ऐसी बातें भी होती है जिसमें बहुत सोच-विचार की आवश्यकता नहीं होती।
(2) मध्यमा वाणी : कुछ विचार कर बोली जाने वाली मध्यमा कहलाती है। किसी सवाल का उत्तर, किसी समस्या के समाधन और भावावेश में या सोच-समझकर की गई किसी क्रिया की प्रतिक्रिया पर सोच-समझकर बोलने की आवश्यकता होती है।
(3) पश्यंती वाणी : हृदयस्थल से बोली गई भाषा पश्यंती कहलाती है। पश्यंती गहन, निर्मल, निच्छल और रहस्यमय वाणी होती है। उदाहरणार्थ रामकृष्ण परमहंस जैसे बालसुलभ मन वाले साधुओं की वाणी।
(4) परा वाणी : परा वाणी दैवीय होती है। निर्विचार की दशा में बोली गई वाणी होती है या फिर जब मन शून्य अवस्था में हो और किसी दैवीय शक्ति का अवतरण हो जाए। उदाहरणार्थ गीता में दिया हुआ अर्जुन को ज्ञान।

वेदज्ञ कहते हैं कि बहस या तर्क से विवाद का किसी भी प्रकार से अंत नहीं होता। सोच-विचारकर, समझकर सर्वहित में बोलने से कई तरह के संकट से बचा जा सकता है और समाज में श्रेष्ठ माहौल निर्मित किया जा सकता है। जो व्यक्ति वेदों की वाणी की रक्षा करता है वेद स्वयं उसकी रक्षा करते हैं।

वेदों की वाणी का प्रभाव जिस पर रहता है वहीं आर्य अर्थात श्रेष्ठ कहलाता है। वेदों के ज्ञान को पढ़ने और समझने से व्यक्ति के मुख पर ब्रह्मतेज आने लगता है। वेदों का ज्ञान ही व्यक्ति को पश्‍यंती और परा वाणी के योग्य बनाता है। ॐ।

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