प्रारंभिक जातियां- सुर और असुर कौन थे?

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
वेद और महाभारत पढ़ने पर हमें पता चलता है कि आदिकाल में प्रमुख रूप से ये जातियां थीं- देव, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग आदि। देवताओं को सुर तो दैत्यों को असुर कहा जाता था। देवताओं की अदिति, तो दैत्यों की दिति से उत्पत्ति हुई। दानवों की दनु से तो राक्षसों की सुरसा से, गंधर्वों की उत्पत्ति अरिष्टा से हुई। इसी तरह यक्ष, किन्नर, नाग आदि की उत्पत्ति मानी गई है।

राक्षसों की उत्पत्ति कैसे हुई?

प्रारंभ में सभी महाद्वीप आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। इस जुड़ी हुई धरती को प्राचीन काल में 7 द्वीपों में बांटा गया था- जम्बू द्वीप, प्लक्ष द्वीप, शाल्मली द्वीप, कुश द्वीप, क्रौंच द्वीप, शाक द्वीप एवं पुष्कर द्वीप। इसमें से जम्बू द्वीप सभी के बीचोबीच स्थित है।

जम्बू द्वीप के 9 खंड थे : इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरिवर्ष, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय। इसी क्षेत्र में सुर और असुरों का साम्राज्य था।

कुछ लोग मानते हैं कि ब्रह्मा और उनके कुल के लोग धरती के नहीं थे। उन्होंने धरती पर आक्रमण करके मधु और कैटभ नाम के दैत्यों का वध कर धरती पर अपने कुल का विस्तार किया था। बस, यहीं से धरती के दैत्यों और स्वर्ग के देवताओं के बीच लड़ाई शुरू हो गई।

देवता और असुरों की यह लड़ाई चलती रही। जम्बूद्वीप के इलावर्त (रशिया) क्षे‍त्र में 12 बार देवासुर संग्राम हुआ। अंतिम बार हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद के पौत्र और विरोचन के पुत्र राजा बलि के साथ इंद्र का युद्ध हुआ और देवता हार गए तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया। इस जम्बूद्वीप के बीच के स्थान में था इलावर्त राज्य। हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि अंतिम बार संभवत: शम्बासुर के साथ युद्ध हुआ था जिसमें राजा दशरथ ने भी भाग लिया था। 

 

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बृहस्पति : देवताओं के पुरोहित बृहस्पति भगवान विष्णु के भक्त थे। महाभारत के आदिपर्व अनुसार बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र तथा देवताओं के पुरोहित हैं। बृहस्पति के पुत्र कच थे जिन्होंने शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या सिखी।

देवगुरु बृहस्पति की एक पत्नी का नाम शुभा और दूसरी का तारा है। शुभा से 7 कन्याएं उत्पन्न हुईं- भानुमती, राका, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनीवाली और हविष्मती। तारा से 7 पुत्र तथा 1 कन्या उत्पन्न हुई। उनकी तीसरी पत्नी ममता से भारद्वाज और कच नामक 2 पुत्र उत्पन्न हुए। बृहस्पति के अधिदेवता इन्द्र और प्रत्यधिदेवता ब्रह्मा हैं।

महर्षि अंगिरा की पत्नी अपने कर्मदोष से मृतवत्सा हुईं। प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्माजी ने उनसे पुंसवन व्रत करने को कहा। सनत्कुमार से व्रत-विधि जानकर मुनि-पत्नी ने व्रत के द्वारा भगवान को संतुष्ट किया। भगवान विष्णु की कृपा से प्रतिभा के अधिष्ठाता बृहस्पतिजी उनको पुत्र रूप से प्राप्त हुए।

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शुक्राचार्य : असुरों के पुरोहित शुक्राचार्य भगवान शिव के भक्त थे। भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था। आचार्य शुक्राचार्य शुक्र नीति शास्त्र के प्रवर्तक थे। इनकी शुक्र नीति अब भी लोक में महत्वपूर्ण मानी जाती है। इनके पुत्र शंद और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहां नीतिशास्त्र का अध्यापन करते थे।

आरंभ में इन्होंने अंगिरस ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया किंतु जब वे अपने पुत्र के प्रति पक्षपात दिखाने लगे तब इन्होंने शंकर की आराधना कर मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके बल पर देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते।


देवासुरों के संग्राम के बाद भारत में रामायण काल तक दो तरह के लोग हो गए। एक वे जो सुरों को मानते थे और दूसरे वे जो असुरों को मानते थे। अर्थात एक वे जो ऋग्वेद को मानते थे और दूसरे वे जो अथर्ववेद को मानते थे।

आर्यों के मूल धर्म में सर्वशक्तिमान भगवान के अंशस्‍वरूप प्राकृतिक शक्तियों की उपासना होती थी। ऋग्‍वेद में सूर्य, वायु, अग्नि, आकाश और इंद्र से ऋद्धि-सिद्धियां मांगी जाती थीं। यही देवता हैं। उक्त देवताओं के ऊपर विष्णु और विष्णु से ऊपर ब्रह्म ही सत्य माना जाता था।

बाद में अमूर्त देवताओं की कल्‍पना हुई जिन्‍हें ‘असुर’ कहा गया। ‘देव’ तथा ‘असुर’ ये दोनों शब्‍द पहले देवताओं के अर्थ में प्रयोग होते थे। ऋग्‍वेद के प्राचीनतम अंशों में ‘असुर’ इसी अर्थ में प्रयुक्‍त हुआ है। वेदों में ‘वरुण’ को ‘असुर’ कहा गया और सबके जीवनदाता ‘सूर्य’ की गणना ‘सुर’ तथा ‘असुर’ दोनों में है। बाद में देवों के उपासक ‘देव’ शब्‍द को देवता के लिए प्रयुक्‍त करने लगे और ‘असुर’ का अर्थ ‘राक्षस’ करने लगे।

इस प्रकार कालांतर में देवों और असुरों के उपासकों में धार्मिक एवं सांस्‍कृतिक मतभेद उत्‍पन्‍न हुए। इसने संघर्ष का रूप धारण किया। असुर संप्रदाय के कुछ लोग प्रमुखतया ईरान में बसे। संभवतया इस कारण से भी आर्य अपने आदि देश भारत को छोड़कर ईरान और यूरोप में फैले हों। अमृत-मंथन की गाथा इन दो संप्रदायों में समन्‍वय की कहानी है।

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