ब्रह्म काल : जीव उत्पत्ति और उत्थान

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' सृष्टि के आदिकाल में न सत् था न असत्, न वायु थी न आकाश, न मृत्यु थी न अमरता, न रात थी न दिन, उस समय केवल वही था, जो वायुरहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से सांस ले रहा था। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था।' 'ब्रह्म वह है जिसमें से संपूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है या जिसमें से ये फूट पड़े हैं। विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण ब्रह्म है।' -(ऋग्वेद, उपनिषद)

ब्रह्म से आत्मा। आत्मा से जगत की उत्पत्ति हुई। आत्मा जिसे अनंत भी कहते हैं। आत्मा की सूक्ष्मता यह है कि एक केश (बाल) लेकर उसके सिरे की गोलाई के 60 भाग किए, फिर उस भाग के 99 भाग किए, फिर 99वें भाग के आगे 60 भाग किए तो उसमें से एक भाग के बराबर आत्मा का परिमाण है अर्थात बाल का 3,52,83,600वां भाग। आत्मा का रंग शुभ्र यानी पूर्ण श्वेत और बाद में नीला होता है। जब आत्मा में विकार उत्पन्न होता है तो उसका रंग बैंगनी हो जाता है। यह आत्मा एक काल और स्थान में हर काल और स्थान पर हो सकती है।

सर्वप्रथम ब्रह्मांड बिंदु रूप में था। महाशून्य स्थित बिंदु में इस स्पंदन से वायु प्रकट हुआ जिसने अग्नि को जन्म दिया। अग्नि ने जल को तथा जल ने धरती को प्रकट किया। अग्नि ही आदित्य है, वही हमारे शरीर में स्थित प्राण है।

ब्रह्मांड, धरती और धरती पर जीवन की उत्पत्ति ध्वनि, स्पंदन और ऊर्जा से हुई। पूरा ब्रह्मांड प्राथमिक ध्वनियों या स्पंदनों के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ है। पदार्थ और प्रतिपदार्थ के सायुज्यन से प्रकाश और गति का जन्म हुआ।

यदि हम हिन्दू कालगणना करें तो ब्रह्मांड की आयु 10 से 15 अरब वर्ष मानी जा सकती है और धरती की उम्र 4 अरब वर्ष से अधिक। ब्रह्मांड की उत्पत्ति और सृष्टि की उत्पत्ति- ये दोनों अलग-अलग विषय हैं। जब हम सृष्टि उत्पत्ति की बात करते हैं तो इसका मतलब धरती पर जीवन की उत्पत्ति से होता है। विश्व के अणु को विष्णु, ब्रह्म के अणु को ब्रह्माणु और ब्रह्म के इस दृश्यमान जगत को ब्रह्मांड या विश्‍व कहते हैं। ब्रह्मांड समूचे विश्व का दूसरा नाम है।

प्रारंभ में ईश्वर (ब्रह्म) ने सर्जक के रूप में स्वयं को अभिव्यक्त किया- 'हिरण्य गर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसित।।' अर्थात हिरण्यगर्भ यानी सुनहरा गर्भ, जिसके अंदर धरती, सूरज, चांद-सितारे, आकाशगंगाएं, ब्रह्मांडों के गोलक समाए थे और जिसे बाहर से 10 तरह के गुणों ने घेर रखा था, एक दिन वायु ने इसे तोड़ दिया। -हिरण्यगर्भ सूक्त (ऋग्वेद 10.121), वायुपुराण।

वेद हिरण्यगर्भ रूप को पृथिवी और द्युलोक का आधार स्वीकार करते हैं- यह हिरण्यगर्भ रूप ही 'आप:' के मध्य से जन्म लेता है। हिरण्यगर्भ से ही 'हिरण्य पुरुष' का जन्म हुआ।

ब्रह्मांड का मूलक्रम- अनंत से महत्, महत् से अहंकार, अहंकार से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। अनंत जिसे आत्मा कहते और जिसे ब्रह्म भी कहते हैं। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि (महत्) और अहंकार ये प्रकृति के 8 तत्व हैं।

यह ब्रह्मांड अंडाकार है। यह ब्रह्मांड जल या बर्फ और उसके बादलों से घिरा हुआ है। इससे जल से भी 10 ‍गुना ज्यादा यह अग्नि तत्व से ‍घिरा हुआ है और इससे भी 10 गुना ज्यादा यह वायु से घिरा हुआ माना गया है।

वायु से 10 गुना ज्यादा यह आकाश से घिरा हुआ है और यह आकाश जहां तक प्रकाशित होता है, वहां से यह 10 गुना ज्यादा तामस अंधकार से घिरा हुआ है और यह तामस अंधकार भी अपने से 10 गुना ज्यादा महत् से घिरा हुआ है और महत् उस एक असीमित, अपरिमेय और अनंत से घिरा है।

उस अनंत से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है और उसी से उसका पालन होता है और अंतत: यह ब्रह्मांड उस अनंत में ही लीन हो जाता है। प्रकृति का ब्रह्म में लय (लीन) हो जाना ही प्रलय है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड ही प्रकृति कही गई है। इसे ही शक्ति कहते हैं।

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धरती की उत्पत्ति एक गोल छल्ले (तारे) से हुई है। धरती एक आग का गोला थी। हिन्दू धर्म अनुसार महत् कल्प बीतने के बाद हिरण्य कल्प की शुरुआत हुई। इसमें धरती और उसका वायुमंडल गर्म था। स्वर्ण के समान था।

धरती पीली नजर आती थी, जैसे आज मंगल लाल नजर आता है। आकाश की गर्म वायु में जलवाष्प बना और फिर सैकड़ों वर्षों तक वर्षा से हमारी गर्म 'धरती' जल और बर्फ में डूब गई। धरती का एक भी ऐसे हिस्सा नहीं था जो जल में नहीं डूबा था। संपूर्ण धरती गहरे जल में मग्न हुई थी। तब जल के गर्भ में हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति हुई। अर्थात जल में ही हुई जीवन की उत्पत्ति। इसीलिए भगवान विष्णु का स्थान जल में ही बताया जाता है।

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हिन्दू धर्म के अनुसार धरती पर जीवन की उत्पत्ति के कई कारण हैं। जहां एक और धरती पर जीवन आकाशीय तत्वों के माध्यम से शुरू हुआ, वहीं जल में जीवन की उत्पत्ति निर्जीव पदार्थों से अपने आप प्राकृतिक रूप से होती रही है। हिन्दू धर्म के अनुसार सबसे पहले हिरण्यगर्भ उत्पन्न हुआ अर्थात जल का गर्भ। हालांकि इससे पूर्व भी कुछ था, जो शून्य था। सूर्य के प्रकाश के कारण हिरण्यगर्भ बना। इसीलिए हिरण्यगर्भ को स्वर्ण अंडा कहा जाता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि प्रकाश संश्लेषण की क्रिया का इसमें सबसे बड़ा योगदान रहा।

जिस तरह हिरण्यगर्भ से ब्रह्मांड आदि ग्रह-नक्षत्रों की उत्पत्ति हुई उसी तरह अगले हिरण्यगर्भ से धरती पर जीवों की उत्पत्ति हुई, जैसे बीज (गर्भ) से वृक्ष निकला और वृक्षों पर हजारों फल के बीच में पुन: बीज (गर्भ) उत्पन्न हो गया।

जब धरती ठंडी होने लगी तो उस पर बर्फ और जल का साम्राज्य हो गया। तब धरती पर जल ही जल हो गया। संपूर्ण धरती जल में करोड़ों वर्षों तक डूबी रही। इस जल में ही जीवन की उत्पत्ति हुई। आत्मा ने ही खुद को जल में व्यक्त किया फिर जल में ही जलरूप बना और उस जलरूप ने ही करोड़ों रूप धरे। आत्मा को ब्रह्म स्वरूप कहा गया है।

ऋग्वेद में आप: (जल) को जीवन उत्पत्ति के मूल क्रियाशील प्रवाह के रूप में व्यक्त किया है, वही हिरण्यगर्भ रूप है। इस हिरण्यगर्भ रूप में ब्रह्म का संकल्प बीज पककर विश्व-रूप बनता है। इसी हिरण्यगर्भ से विराट पुरुष (आत्मा) एवं उसकी इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है और उसकी इन्द्रियों से देवताओं का सृजन होता है। यही जीवन का विकास-क्रम है।

सर्वप्रथम : सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ से अंडे के रूप का एक मुख प्रकट हुआ। मुख से वाक् इन्द्री, वाक् इन्द्री से 'अग्नि' उत्पन्न हुई, तदुपरांत नाक के छिद्र प्रकट हुए। नाक के छिद्रों से 'प्राण' और प्राण से 'वायु' उत्पन्न हुई। फिर नेत्र उत्पन्न हुए। नेत्रों से चक्षु (देखने की शक्ति) प्रकट हुए और चक्षु से 'आदित्य' प्रकट हुआ। फिर 'त्वचा', त्वचा से 'रोम' और रोमों से वनस्पति-रूप 'औषधियां' प्रकट हुईं। उसके बाद 'हृदय', हृदय से 'मन, 'मन' से 'चन्द्र' उदित हुआ। तदुपरांत 'नाभि', 'नाभि' से 'अपान' और अपान से 'मृत्यु' का प्रादुर्भाव हुआ। फिर 'जननेन्द्रिय', 'जननेन्द्रिय' से 'वीर्य' और वीर्य से 'आप:' (जल या सृजनशीलता) की उत्पत्ति हुई।

यहां वीर्य से पुन: 'आप:' की उत्पत्ति कही गई है। यह आप: ही सृष्टिकर्ता का आधारभूत प्रवाह है। वीर्य से सृष्टि का 'बीज' तैयार होता है। उसी के प्रवाह में चेतना-शक्ति पुन: आकार ग्रहण करने लगती है। सर्वप्रथम यह चेतना-शक्ति हिरण्य पुरुष के रूप में सामने आई।

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ब्रह्म की 4 अवस्थाएं हैं-

1. अव्यक्त : जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता और जिसका प्रारंभ नहीं बताया जा सकता।

2. प्राज्ञ : अर्थात विशुद्ध ज्ञान या परम शांति अर्थात हिरण्य। यह हिरण्य पुरुष जल में जलरूप में ही ‍परम निद्रा में मग्न है। यही ब्रह्मा, यही विष्णु और यही शिव है अर्थात जब यह सोता है तो विष्णु है, स्वप्न देखता है तो ब्रह्मा है और जाग्रत हो जाता है तो शिव है।

3. तेजस : यही हिरण्य से हिरण्यगर्भ बना। इसे ही ब्रह्मा कहा गया। ब्रह्म का गर्भ ब्रह्मा या विष्णु का गर्भ। विष्णु अर्थात विश्व का अणु। अणु का गर्भ। यह स्वप्नावस्था जैसा है। कमल के खिलने जैसा है अर्थात निद्रा में स्वप्न देखना जाग्रति की ओर बढ़ाया गया एक कदम।

4. वैश्वानर : निद्रा में स्वप्न और ‍फिर स्वप्न का टूटकर जाग्रति फैलना ही वैश्वानर रूप है। यही शिव रूप है।


संदर्भ : ऋग्वेद का ऐतरेयोपनिषद

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