हिन्दुओं के 10 आश्चर्यजनक मंदिर...

Webdunia
बुधवार, 19 अक्टूबर 2016 (00:02 IST)
हिन्दू मंदिर की रचना लगभग 10 हजार वर्ष पूर्व हुई थी। उस काल में वैदिक ऋषि जंगल के अपने आश्रमों में ध्यान, प्रार्थना और यज्ञ करते थे। हालांकि लोकजीवन में मंदिरों का महत्व उतना नहीं था जितना आत्मचिंतन मनन और शास्त्रार्थ का था। फिर भी आम जनता शिव और पार्वती के अलावा नगर, ग्राम और स्थान के देवी-देवताओं की प्रार्थना करते थे। देश में सबसे प्राचीन शक्तिपीठों और ज्योतिर्लिंगों को माना जाता है। प्राचीनकाल में यक्ष, नाग, शिव, दुर्गा, भैरव, इंद्र और विष्णु की पूजा और प्रार्थना का प्रचलन था। रामायण काल में मंदिर होते थे इसके प्रमाण हैं। राम का काल आज से 7 हजार 200 वर्ष पूर्व था अर्थात 5114 ईस्वी पूर्व।
hindu mandir
हिन्दू मंदिरों को खासकर बौद्ध, चाणक्य और गुप्तकाल में भव्यता प्रदान की जाने लगी और जो प्राचीन मंदिर थे उनका पुन: निर्माण किया गया। ये सभी मंदिर ज्योतिष, वास्तु और धर्म के नियमों को ध्यान में रखकर बनाए गए थे। अधिकतर मंदिर कर्क रेखा या नक्षत्रों के ठीक ऊपर बनाए गए थे। उनमें से भी एक ही काल में बनाए गए सभी मंदिर एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। प्राचीन मंदिर ऊर्जा और प्रार्थना के केंद्र थे लेकिन आजकल के मंदिर तो पूजा-आरती के केंद्र हैं।
 
मौर्य और गुप्त काल में अद्भुत और भव्य हिन्दू मंदिर बनाए गए थे। गुप्तकाल के बाद परमार, वर्मन, चोल, चालुक्य, मराठा, सिख आदि वंश के कई राजाओं ने भव्य मंदिरों का निर्माण किया। इन सभी मंदिरों को देखने से आंखों को सुकून ही नहीं मिलता बल्कि इनकी अद्भुत वास्तु रचना को देखकर कोई भी दांतों तले अंगुली दबाने से खुद को रोक नहीं पाएगा।
 
मध्यकाल में मुस्लिम आक्रांताओं ने जैन, बौद्ध और हिन्दू मंदिरों को बड़े पैमाने पर ध्वस्त कर दिया। खासकर उत्तर भारत में अब नाम मात्र के ही प्राचीन हिन्दू मंदिर बचे हैं। मलेशिया, इंडोनेशिया, अफगानिस्तान, ईरान, तिब्बत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, कंबोडिया आदि मुस्लिम और बौद्ध राष्ट्रों में अब हिन्दू मंदिर नाममात्र के बचे हैं। अब ज्यादातर प्राचीन मंदिरों के बस खंडहर ही नजर आते हैं, जो सिर्फ पर्यटकों के देखने के लिए ही रह गए हैं। अधिकतर का तो अस्तित्व ही मिटा दिया गया है। खैर... आओ हम देखते हैं उन मंदिरों के चित्र जिन्हें देखकर आपको भारत पर गर्व होगा। सभी चित्र यूट्यूब से साभार...संकलन : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
 
अलगे पन्ने पर पहला अद्भुत मंदिर...

जगन्नाथ मंदिर : हिन्दुओं की प्राचीन और पवित्र 7 नगरियों में पुरी उड़ीसा राज्य के समुद्री तट पर बसा है।  भारत के पूर्व में बंगाल की खाड़ी के पूर्वी छोर पर बसी पवित्र नगरी पुरी उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से थोड़ी दूरी पर है। आज का उड़ीसा प्राचीनकाल में उत्कल प्रदेश के नाम से जाना जाता था। पुराणों में इसे धरती का वैकुंठ कहा गया है। यह भगवान विष्णु के चार धामों में से एक है। इसे श्रीक्षेत्र, श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र, शाक क्षेत्र, नीलांचल, नीलगिरि और श्री जगन्नाथ पुरी भी कहते हैं।
ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार यहां भगवान विष्णु पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतरित हुए और सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए। सबर जनजाति के देवता होने के कारण यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है। पहले कबीले के लोग अपने देवताओं की मूर्तियों को काष्ठ से बनाते थे। जगन्नाथ मंदिर में सबर जनजाति के पुजारियों के अलावा ब्राह्मण पुजारी भी हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक सबर जाति के दैतापति जगन्नाथजी की सारी रीतियां करते हैं।
 
इस मंदिर का सबसे पहला प्रमाण महाभारत के वनपर्व में मिलता है। कहा जाता है कि सबसे पहले सबर आदिवासी विश्‍ववसु ने नीलमाधव के रूप में इनकी पूजा की थी। आज भी पुरी के मंदिरों में कई सेवक हैं जिन्हें दैतापति के नाम से जाना जाता है।
 
राजा इंद्रदयुम्न ने बनवाया था यहां मंदिर : राजा इंद्रदयुम्न मालवा का राजा था जिनके पिता का नाम भारत और माता सुमति था। राजा इंद्रदयुम्न को सपने में हुए थे जगन्नाथ के दर्शन। कई ग्रंथों में राजा इंद्रदयुम्न और उनके यज्ञ के बारे में विस्तार से लिखा है। उन्होंने यहां कई विशाल यज्ञ किए और एक सरोवर बनवाया। एक रात भगवान विष्णु ने उनको सपने में दर्शन दिए और कहा नीलांचल पर्वत की एक गुफा में मेरी एक मूर्ति है उसे नीलमाधव कहते हैं। तुम एक मंदिर बनवाकर उसमें मेरी यह मूर्ति स्थापित कर दो। राजा ने अपने सेवकों को नीलांचल पर्वत की खोज में भेजा। उसमें से एक था ब्राह्मण विद्यापति। विद्यापति ने सुन रखा था कि सबर कबीले के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं और उन्होंने अपने देवता की इस मूर्ति को नीलांचल पर्वत की गुफा में छुपा रखा है। वह यह भी जानता था कि सबर कबीले का मुखिया विश्‍ववसु नीलमाधव का उपासक है और उसी ने मूर्ति को गुफा में छुपा रखा है। चतुर विद्यापति ने मुखिया की बेटी से विवाह कर लिया। आखिर में वह अपनी पत्नी के जरिए नीलमाधव की गुफा तक पहुंचने में सफल हो गया। उसने मूर्ति चुरा ली और राजा को लाकर दे दी। विश्‍ववसु अपने आराध्य देव की मूर्ति चोरी होने से बहुत दुखी हुआ। अपने भक्त के दुख से भगवान भी दुखी हो गए। भगवान गुफा में लौट गए, लेकिन साथ ही राज इंद्रदयुम्न से वादा किया कि वो एक दिन उनके पास जरूर लौटेंगे बशर्ते कि वो एक दिन उनके लिए विशाल मंदिर बनवा दे। राजा ने मंदिर बनवा दिया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए कहा। भगवान ने कहा कि तुम मेरी मूर्ति बनाने के लिए समुद्र में तैर रहा पेड़ का बड़ा टुकड़ा उठाकर लाओ, जो द्वारिका से समुद्र में तैरकर पुरी आ रहा है। राजा के सेवकों ने उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूंढ लिया लेकिन सब लोग मिलकर भी उस पेड़ को नहीं उठा पाए। तब राजा को समझ आ गया कि नीलमाधव के अनन्य भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्‍ववसु की ही सहायता लेना पड़ेगी। सब उस वक्त हैरान रह गए, जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।
 
अब बारी थी लकड़ी से भगवान की मूर्ति गढ़ने की। राजा के कारीगरों ने लाख कोशिश कर ली लेकिन कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका। तब तीनों लोक के कुशल कारीगर भगवान विश्‍वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धरकर आए। उन्होंने राजा को कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में बनाएंगे। कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता। उनकी शर्त मान ली गई। लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं। राजा इंद्रदयुम्न की रानी गुंडिचा अपने को रोक नहीं पाई। वह दरवाजे के पास गई तो उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। वह घबरा गई। उसे लगा बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने राजा को इसकी सूचना दी। अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी तो राजा को भी ऐसा ही लगा। सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार करते हुए राजा ने कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया।
 
जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति गायब था और उसमें 3 अधूरी ‍मूर्तियां मिली पड़ी मिलीं। भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे। राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई बहन इसी रूप में विद्यमान हैं।
 
वर्तमान में जो मंदिर है वह 7वीं सदी में बनवाया था। हालांकि इस मंदिर का निर्माण ईसा पूर्व 2 में भी हुआ था। यहां स्थित मंदिर 3 बार टूट चुका है। 1174 ईस्वी में ओडिसा शासक अनंग भीमदेव ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। मुख्‍य मंदिर के आसपास लगभग 30 छोटे-बड़े मंदिर स्थापित हैं।
 
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कैलाश मंदिर : भारत अजंता-एलोरा की गुफाओं और मंदिरों के बारे में वैज्ञानिक कहते हैं कि ये किसी एलियंस के समूह ने बनाए हैं। यहां पर एक विशालकाय कैलाश मंदिर है। आर्कियोलॉजिस्टों के अनुसार इसे कम से कम 4 हजार वर्ष पूर्व बनाया गया था। हालांकि इतिहाकार इसे 1200 वर्ष पुराना बताते हैं। यह स्थान महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित है।   
40 हजार टन की चट्टानों से बनाए गए इस मंदिर को किस तकनीक से बनाया गया होगा? यह आज की आधुनिक इंजीनियरिंग के बस की बात नहीं है। 276 फीट लंबे और 154 फीट चौड़े इस मंदिर की ऊंचाई 90 फीट है। आज तक इस मंदिर में कभी पूजा किए जाने का प्रमाण नहीं मिला। कुछ लोग कहते हैं कि इसमें 40 लाख टन पत्थरों का इस्तेमाल हुआ है।
 
इस विशालकाय अद्भुत मंदिर को देखने सभी आते हैं। इसका नाम कैलाश मंदिर है।  माना जाता है कि एलोरा की गुफाओं के अंदर नीचे एक सीक्रेट शहर है। आर्कियोलॉजिकल और जियोलॉजिस्ट की रिसर्च से यह पता चला कि ये कोई सामान्य गुफाएं नहीं हैं। यहां एक ऐसी सुरंग है, जो इसे अंडरग्राउंड शहर में ले जाती है।  
 
हालांकि इतिहासकार कहते हैं कि इस मंदिर का काम प्रथम कृष्णा के काल में पुरा हुआ। इस मंदिर को बनाने में लगभग 150 वर्ष और 7 हजार मजदूर लगे थे। शिव का यह दो मंजिला मंदिर एक ही पर्वत की चट्टानों को काटकर बनाया गया। यह मंदिर दुनियाभर में एक ही पत्थर की शिला से बनी हुई सबसे बड़ी मूर्ति के लिए भी प्रसिद्ध है।
 
अगले पन्ने पर तीसरा अद्भुत मंदिर...

अंकोरवाट का भव्य मंदिर : विश्व का सबसे बड़ा हिन्दू मंदिर अब सिर्फ कंबोडिया के अंकोरवाट में ही बचा हुआ है। अंकोर का पुराना नाम 'यशोधरपुर' था और कंबोडिया को कंबुज कहा जाता था। इस मंदिर का निर्माण राजा सूर्यवर्मा द्वितीय (1049-66 ई.) ने कराया था। यह विष्णु मंदिर है जबकि इसके पूर्ववर्ती शासकों ने प्रायः शिव मंदिरों का निर्माण किया था। यह विश्व का सबसे बड़ा हिन्दू मंदिर ही नहीं बल्कि इस प्रकार की भव्य इमारत संसार के किसी अन्य स्थान पर नहीं मिलती है।
अंकोरवाट दुनिया के सबसे प्रसिद्ध स्मारकों में एक और कंबोडिया का राष्ट्रीय प्रतीक है। यहां मंदिर के मंदिर सैकड़ों भित्तिचित्र भी हैं। मीकांग नदी के किनारे सिमरिप शहर में बना यह मंदिर आज भी संसार का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर है जो सैकड़ों वर्ग मील में फैला हुआ है। यह मन्दिर मेरु पर्वत का भी प्रतीक है। इसकी दीवारों पर भारतीय धर्म ग्रंथों के प्रसंगों का चित्रण है। इन प्रसंगों में अप्सराएं बहुत सुंदर चित्रित की गई हैं, असुरों और देवताओं के बीच अमृत मन्थन का दृश्य भी दिखाया गया है। विश्व के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थानों में से एक यह मंदिर यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में शामिल किया गया है।
 
यह मन्दिर एक ऊँचे चबूतरे पर स्थित है जिसके तीन खण्ड हैं। प्रत्येक खण्ड से ऊपर के खण्ड तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां बनीं हैं। प्रत्येक खण्ड में आठ गुम्बज हैं, जिनमें से प्रत्येक 180 फुट ऊंची है। मुख्य मंदिर तीसरे खण्ड की चौड़ी छत पर है। यह मंदिर 820,000 वर्ग मीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ है।
 
आश्चर्यजनक वास्तुकला से परिपूर्ण चारों ओर से दीवारों से घिरे इस मंदिर के चारों ओर एक गहरी खाई है जिसकी लंबाई ढाई मील और चौड़ाई 650 फुट है। खाई पर पश्चिम की ओर एक पत्थर का पुल है जो 36 फुट चौड़ा है। इस पुल से पक्की सड़क मंदिर के पहले खण्ड के द्वार तक जाती है।
 
कहते हैं कि अंकोर वॉट मंदिर को चूना पत्थरों की 50 से 100 लाख विशाल चट्टानों से कुछ ही दशकों में बना लिया गया था। करीब डेढ़ टन से भी अधिक वजन वाली ये चट्टानें सैकड़ों किलोमीटर दूर से लाई गई थी। तत्कालीन हिंदू राजा ने इस मंदिर के लिए नजदीक स्थित माउंट कुलेन से चट्टानें लाने में भूमिगत नहरों की मदद ली। इन नहरों से नावों में लादकर ये चट्टानें पहुंचाई गईं। एक ताजा शोध में वैज्ञानिकों ने इस पूरे क्षेत्र का उपग्रह चित्र लिया जिसमें पाया कि ये पूरा इलाका प्राचीन भूमिगत नहरों से जुड़ा हुआ है। संभवत: इसलिए हजारों किलोमीटर दूर से इन नहरों के जरिए कम से कम समय में चूना पत्थरों को मंदिर के निर्माण के लिए लाया जा सका होगा।
 
भूगर्म शास्त्रियों के अनुसार इस विशाल और अद्भुद मंदिर को सिर्फ एक राजा के शासनकाल में तैयार कर लिया गया था। उस समय खमेर साम्राज्य दक्षिण-पूर्व एशिया में सबसे अधिक प्रभावशाली और समृद्ध था। उस समय खमेर साम्राज्य आधुनिक लाओस से लेकर थाईलैंड, वियतनाम, बर्मा और मलेशिया तक फैला हुआ था।
 
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मदुराई के मीनाक्षी मंदिर : यह मंदिर अत्यंत प्राचीन मंदिर माना जाता है। इसका निर्माण 7वीं सदी के प्रारंभ में हुआ था। सन् 1310 में मुस्लिम आक्रांत मलिक काफूर ने इस मंदिर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। उस समय वहां के पंडे-पुजारियों ने मूल प्रतिमाओं को सुरक्षित बचा लिया था तथा 50 वर्ष के उपरांत जब मुस्लिम शासन से मुदराई मुक्त हुआ, तब उन प्रतिमाओं को पुन: आदपूर्वक अपने स्थान पर प्रतिष्ठित किया गया।
सन् 1559-1600 में मदुराई के नायक प्रधानमंत्री आर्यनाथ मुदालियार ने मंदिर के पुनर्निर्माण का बीड़ा उठाया। पश्चात महाराजा तिरुमलनायक तथा उनके उत्तराधिकारियों ने मंदिर को पुन: अपनी श्रेष्ठता वापस दिलाई।
 
लगभग 15 एकड़ क्षेत्र में फैला यह मंदिर 2 दीवारों की परिसीमा में निर्मित है। जिसमें 9 मंजिला दक्षिणी गोपुरम् सर्वोच्च होकर 170 फीट ऊंचा है। सबसे छोटा गोपुरम् उत्तर दिशा में है तथा 160 फीट ऊंचा है। इन सभी गोपुरम् में विभिन्न देवी-देवताओं, किन्नरों एवं गंधर्वों की सुंदर आकृतियां बनी हैं जिसमें नक्काशी तथा रंग सौंदर्य अद्भुत है।
 
यहां के विशाल प्रांगण में सुंदरेश्वर (शिव मंदिर समूह) तथा बाईं ओर मीनाक्षी देवी का मंदिर है। शिव मंदिर समूह में भगवान शिव की नटराज मुद्रा में आकर्षक प्रतिमा है। यह प्रतिमा एक रजत वेदी पर स्‍थित है। मीनाक्षी देवी मंदिर में देवी मीनाक्षी की पूर्वाभिमुख श्यामवर्णा अत्यंत सुंदर प्रतिमा है।
 
निकट ही 'स्वर्ण पुष्करणी' नामक अत्यंत सुंदर सरोवर है जिसके चारों ओर बने मंडपों में आकर्षक चित्र बने हुए हैं। फरवरी माह में देवी मीनाक्षी तथा भगवान सुंदरेश्वर की प्रतिमाओं को सजाकर यहां नौका विहार कराया जाता है। मंदिर में अनेक उत्सव मनाए जाते हैं। प्रति शुक्रवार को मीनाक्षीदेवी तथा सुंदरेश्वर भगवान की स्वर्ण प्रतिमाओं को झूले में झुलाते हैं। नवरात्रि एवं शिवरात्रि के पर्व पर विशेष साज-सज्जा होती है। यहां का विख्यात उत्सव होता है चैत्र माह में जिसमें मीनाक्षी देवी तथा सुंदरेश्वर भगवान का विवाहोत्सव बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है। 
 
अगले पन्ने पर पांचवां अद्भुत मंदिर...
प्रंबनन मंदिर (मध्य जावा इंडोनेशिया) : इंडोनेशिया के सेंट्रल जावा में स्थित यह एक हिन्दू मंदिर है। प्राचीनकाल में इंडोनेशिया का राजधर्म हिन्दू और उसके बाद बौद्ध हुआ करता था। लेकिन इस्लाम के उदय के बाद अब यह मुस्लिम राष्ट्र है। ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी को समर्पित इस मंदिर को मान्यता अनुसार 9वीं शताब्दी में बनाया गया था। मंदिर की दीवारों पर धार्मिक कहानियां और शानदार नक्काशी उकेरी गई हैं।
 
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विरूपक्षा मंदिर : 7वीं सदी में हम्पी में बना यह मंदिर आज भी शान से खड़ा है। इस पर की गई नक्काशियां 9वीं या 11वीं सदी की हैं। मंदिर के रंगा मंडपम को कृष्णदेवराय द्वारा 1510 ई. में बनाया गया था जो विजयनगर की वास्तुकला शैली को दर्शाता है। खंभों को, मंदिर के रसोईघर को, दीपकों को, बुर्जों तथा अन्य मंदिरों को बाद में बनाया गया है। 
मुख्य मंदिर का शिखर जमीन से 50 मीटर ऊंचा है। विशाल मंदिर के अंदर अनेक छोटे-छोटे मंदर हैं, जो विरुपाक्ष मंदिर से भी प्राचीन हैं। यहां अर्ध सिंह और अर्ध मनुष्य की देह धारण किए नृसिंह की 6.7 मीटर ऊंची मूर्ति है। किंवदंती है कि भगवान विष्णु ने इस जगह को अपने रहने के लिए कुछ अधिक ही बड़ा समझा और अपने घर वापस लौट गए।
 
यह मंदिर तुंगभद्रा नदी के दक्षिणी किनारे पर हेमकूट पहाड़ी की तलहटी पर स्थित है। दक्षिण भारतीय द्रविड़ स्थापत्य शैली में निर्मित यह मंदिर ईंट तथा चूने से बनाया गया है। इसे यूनेस्को द्वारा राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया जा चुका है। यह मंदिर धार्मिक दृष्टि के अलावा पर्यटन कि दृष्टि से भी काफी महत्व रखता है। 
 
अगले पन्ने पर सातवां अद्भुत मंदिर...
 

कोणार्क सूर्य मंदिर : उड़ीसा राज्य के पवित्र शहर पुरी के पास सूर्य देवता को समर्पित कोणार्क का भव्य सूर्य मंदिर है। सूर्य देवता के रथ के आकार में बनाया गया यह मंदिर सभी पत्थरों पर की गई अद्भुत नक्काशी और भारत की मध्यकालीन वास्तुकला का अनोखा उदाहरण है। इस सूर्य मंदिर का निर्माण राजा नरसिंहदेव ने 13वीं शताब्दी में करवाया था। यह मंदिर अपने विशिष्ट आकार और शिल्पकला के लिए दुनिया भर में जाना जाता है।
माना जाता है कि मुस्लिम आक्रमणकारियों पर सैन्यबल की सफलता का जश्न मनाने के लिए राजा ने कोणार्क में सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया था। 15वीं शताब्दी में मुस्लिम सेना ने लूटपाट मचा दी थी, तब सूर्य मंदिर के पुजारियों ने यहाँ स्थपित सूर्य देवता की मूर्ति को पुरी में ले जाकर सुरक्षित रख दिया, लेकिन पूरा मंदिर काफी क्षतिग्रस्त हो गया था। इसके बाद धीरे-धीरे मंदिर पर रेत जमा होने लगी और यह पूरी तरह रेत से ढँक गया था। 20वीं सदी में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत हुए रेस्टोरेशन में सूर्य मंदिर खोजा गया।
 
पुराने समय में समुद्र तट से गुजरने वाले योरपीय नाविक मंदिर के टावर की सहायता से नेविगेशन करते थे, लेकिन यहाँ चट्टानों से टकराकर कई जहाज नष्ट होने लगे और इसीलिए इन नाविकों ने सूर्य मंदिर को 'ब्लैक पगोड़ा' नाम दे दिया।  स्थानीय लोगों का मानना है कि यहां के टावर में स्थित दो शक्तिशाली चुंबक मंदिर के प्रभावशाली आभामंडल के शक्तिपुंज हैं। जहाजों की इन दुर्घटनाओं का कारण भी मंदिर के शक्तिशली चुंबकों को ही माना जाता है। 
 
अगले पन्ने पर आठवां अद्भुत मंदिर...
 

बृहदेश्वर मंदिर :  विश्‍व का प्रथम ग्रेनाइट मंदिर तमिलनाडु के तंजौर (तंजावुर) में बृहदेश्‍वर मंदिर है। इसका निर्माण 1003- 1010 ई. के बीच चोल शासक राजाराज चोल 1 ने करवाया था। यह भव्‍य मंदिर राजाराज चोल के राज्‍य के दौरान केवल 5 वर्ष की अवधि में (1004 ईस्वी और 1009 ईस्वी के दौरान) निर्मित किया गया था। लगभग 102,400 वर्ग मीटर में फैला यह मंदिर ग्रेनाइट की विशाल चट्टानों को काटकर वास्तु शास्त्र के हिसाब से बनाया गया है। इस मंदिर के शिखर ग्रेनाइट के 80 टन के टुकड़े से बने हैं।
बृहदेश्वर मंदिर अपनी वस्तुशिल्पता, ऊंचे स्तंम्भ, मूर्तिकला और भित्तिचित्रों के साथ साथ तमिल शिलालेखों के लिए भी विश्वप्रसिद्ध है। यूनेस्कों की विश्व धरोहर की सूचि में शामिल इस मंदिर की एक खासियत यह है कि दोपहर बारह बजे इस मंदिर की परछाई जमीन पर नहीं पड़ती।
 
इस मंदिर के सबसे बड़े स्तम्भ की ऊंचाई 200 फीट है जो उस समय में विश्व की सबसे ऊंची मानव निर्मित ऊंचाई रही होगी और मंदिर में विराजित शिवलिंग की उंचाई 12 फीट है इसके अलावा इस मंदिर के मुख्य अहाते में बनी श्रीनंदी की प्रतिमा करीब 25 टन वजनी है जो 12 फुट ऊंची और 20 फुट लम्बी है।
 
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श्रीरंगम मंदिर : लगभग 631,000 वर्ग मीटर क्षेत्रफल में फैला यह मंदिर भगवान् श्री विष्णु को समर्पित है। यह भारत का सबसे बड़ा मंदिर तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली जिले के त्रिची में स्थित है। श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर में 49 धार्मिक स्थल है जो इतने बड़े हैं कि अपने आप में नगर के समान लगते हैं। संपूर्ण मंदिर परिसर आदि में रेस्टोरेंट, होटल्स, फूलों के बाजार आदि सभी कुछ हैं।
यह मंदिर अपनी बहुरंगीय इमारत और द्रविड़ शैली की वस्तुकला के कारण दुनियाभर में प्रसिद्ध है। यह बाहर से काफी सुंदर दिखाई देता है। रंगनाथस्वामी का मंदिर दक्षिण भारत के श्रेष्ठ मंदिरों में से एक है। यह मंदिर  कावेरी और कोलेरून नदियों के विभाजन के एक द्वीप पर स्थित है। इस मंदिर और 1,000 स्तंभ वाले मुख्य कक्ष का निर्माण विजयनगर साम्राज्य (1336-1565) के दौरान पुराने मंदिर के स्थल पर हुआ था।
 
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तनाह लोत (tanah lot) का हिन्दू मंदिर :  इंडोनेशियका के बाली द्वीप के समुद्री तट पर बसा 15वीं सदी का हिन्दू मंदिर पर्ययकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। यह मंदिर देनपसार से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दक्षिण पश्चिम तट पर स्थित यह मंदिर एक बड़ी सी चट्टान पर बना है।
इस मंदिर का निर्माण एक पुजारी निरर्थ ने मछुआरों की मदद से कराया था। बाली के समुद्री देवता को समर्पित यह मंदिर बाली की पौराणिक संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। यह मंदिर सागर तट पर बने उन सात मंदिरों में से एक है जिन्हें एक श्रृंखला के रूप में बनाया गया है।
 
सूर्यास्त के समय इस मंदिर की जो आभा होती है, उसे सैलानी अभूतपूर्व कहते हैं। प्लटवाइस लेक नेशनल पार्क क्रोएशिया का यह सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थल है।  इस नेशनल पार्क में 16 झीलें हैं जो झरनों व प्रपातों की कतारों से एक-दूसरे से जुड़ी हैं। यह इलाका ऐसे जंगल में है जिसमें हिरण, भालू व भेडि़ये और दुर्लभ पक्षी मौजूद हैं। 

सभी चित्र यूट्यूब से साभार
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