16 महाजनपदों में से एक कुरु जनपद का परिचय

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प्राचीनकाल में भारत में 16 महाजनपद थे। उन 16 में से एक कुरु जनपद था। इस कुरु जनपद पर ययाति के पुत्र कुरु के वंशजों का ही राज था, जो कौरव कहलाए। कुरु जनपद का उल्लेख उत्तर वैदिक युग से मिलता है। यह जनपद उत्तर तथा दक्षिण दो भागों में विभक्त था। महाभारत में उत्तरकुरु को कैलाश और बद्रिकाश्रम के बीच रखा गया है, जबकि प्रपंचसूदनी में कुरुओं को हिमालय पार के देश उत्तर कुरु का औपनिवेशिक बताया गया है, जो उत्तरी ध्रुव के निकट था। वहीं से श्‍वेत वराह आए थे। श्‍वेत वराह को विष्णु का अवतार माना जाता है।
 
हालांकि दक्षिण कुरु, उत्तर कुरु की अपेक्षा अधिक प्रसिद्ध है और वहीं कुरु के नाम से विख्यात है। यह जनपद पश्चिम में सरहिंद के पार्श्ववर्ती क्षेत्रों से लेकर सारे दक्षिण-पश्चिमी पंजाब और उत्तरप्रदेश के कुछ पश्चिमी जिलों तक फैला हुआ था। 
 
ऋग्वेद में कुरु जनपद के कुरुश्रवण, उपश्रवस्‌ और पाकस्थामन्‌ कौरायण जैसे कुछ राजाओं की चर्चा हुई है। कौरव्य और परीक्षित (अभिमन्यु पुत्र परीक्षित नहीं) के उल्लेख अथर्ववेद में हैं। 
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कई ग्रंथों में कुरु और पांचाल का उल्लेख एकसाथ हुआ है किंतु दोनों की भौगोलिक सीमाएं एक-दूसरे से भिन्न थीं। कुरु के पूर्व में उत्तरी पांचाल तथा दक्षिण में दक्षिणी पांचाल के प्रदेश थे। प्राचीनकाल में पांचाल संभव है कि गंगा-यमुना दोआब का कुछ उत्तरी भाग कुरु जनपद की सीमा में रहा हो। हालांकि पांचालों की सीमाएं युद्ध और काल के अनुसार बदलती रही है। एक समय में वे कुरु जनपद का ही हिस्सा बन गए थे।
 
शतपथ ब्राह्मण में कुरु-पांचाल को मध्यप्रदेश (ध्रुवामध्यमादिक्‌) में स्थित बताया गया है। मनु स्मृतिकार ने कुरु, मत्स्य, पांचाल और शूरसेन को ब्रह्मर्षियों का देश कहा है। महाभारत में (वनवर्ष, अध्याय 83) कुरु की सीमा उत्तर में सरस्वती तथा दक्षिण में दृषद्वती नदियों तक बताई गई है।
 
पालि साहित्य में भी कुरु जनपद का उल्लेख मिलता है। अंगुत्तरनिकाय और महावंश में उसे प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में गिना गया है। त्रिपिटकों की बुद्धघोषकृत टीकाओं में बुद्ध को कुरुओं के बीच अनेक बार उपदेश करते बताया गया है। कुरुधम्म जातक के अनुसार बोधिसत्व ने कुरुराज की रानी के गर्भ से जन्म लिया था। महासुतसोम जातक में कुरु राज्य का विस्तार 300 योजन कहा गया है।
 
यह श्रीमद्भगवती और श्रीमद्भगवत का वह क्षेत्र है, जहां कौरवों और पांडवों के बीच भीषण और विनाशकारी युद्ध हुआ था। राजा ययाति और अनेक ऋषियों ने वहां अपने अनेकानेक यज्ञ किए थे। हस्तिनापुर इसकी राजधानी थी, जो गढ़मुक्तेश्वर के पास गंगा के किनारे बसा था। अधिकांश उपनिषदों और ब्राह्मणों की रचना कुरु पांचाल प्रदेशों में ही हुई थी।
 
कुरु जनपद का इतिहास : इसके इतिहास का विशद वर्णन महाभारत एवं पुराणों में मिलता है। सर्वप्रथम स्वायंभुव मनु की पुत्री इला को बुध से पुरुरवा नामक पुत्र हुआ, जो चंद्रवंशी क्षत्रियों का प्रथम पुरुष था। माना जाता है कि पुरुरवा ऐल का पिता (मध्य एशिया) से मध्यप्रदेश आया था। नहुष और ययाति उसके वंश में अत्यंत प्रसिद्ध और पराक्रमी राजा हुए। ययाति के पुत्र पुरु के नाम पर पौरव वंश का नाम पड़ा जिसमें दुष्यंत के पुत्र भरत चक्रवर्ती सम्राट हुए। उसके बाद का मुख्य शासक संवरण का पुत्र कुरु था।
 
कुरु के वंश में आगे चलकर शांतनु हुए। शांतनु के पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य अधिक दिनों तक शासन नहीं कर सके और उनकी जल्दी ही मृत्यु हो गई। विचित्रवीर्य की रानियों से दो नियोगज पुत्र हुए- धृतराष्ट्र और पांडु। दरअसल, ये दोनों ही सत्यवती के पुत्र वेदव्यास के पुत्र थे। वेदव्यास से एक और पुत्र हुए जिनका नाम विदुर था। इस तरह इन तीनों के पिता एक ही थे। भीष्म को अंतिम कुरु माना जाता है।
 
धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे अत: पांडु को राजगद्दी मिली, पर वे भी जल्दी ही मर गए और धृतराष्ट्र ने राज्य की बागडोर अपने हाथों में ले ली। धृतराष्ट्र के गांधारी से दुर्योधनादि 100 पुत्र हुए, जो कौरव कहलाए। उधर पांडु के पहले ही कुंती और माद्री नामक दोनों पत्नियों से 6 पुत्र उत्पन्न हुए, जो पांडव कहलाए। कौरवों से युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद अंत में युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ। वे भी बहुत दिनों तक शासन नहीं कर सके। कृष्ण की मृत्यु और यादवों के अंत का समाचार सुनकर उन्होंने राजगद्दी त्याग दी और अपने भाइयों के साथ तपस्या के लिए वन में चले गए। 
 
युधिष्ठिर के बाद अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित ने हस्तिनापुर की गद्दी संभाली। परीक्षित अर्जुन के पौत्र थे। कहा जाता है कि भूलवश एक ऋषि के श्राप के चलते सर्पों के काटने से उनकी मृत्यु हो गई थी। यह बात उनके पुत्र को खटकने लगी। उनके पुत्र का नाम जन्मेजय था। उन्होंने अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए नाग यज्ञ का आयोजन किया और समूल रूप से सर्पों का नाश करने का संकल्प लिया। कथानुसार उनमें से एक सर्प जिसका नाम कर्कोटक था, वह बच जाता है।
 
हालांकि इतिहासकार कहते हैं कि तक्षशिला के तक्षकों अथवा नागों द्वारा हस्तिनापुर पर किए गए आक्रमण के कारण परीक्षित की मौत हो गई थी जिसके बाद परीक्षित के पुत्र और उत्तराधिकारी जन्मेजय ने तक्षशिला पर चढ़ाई कर दी और जहां-जहां भी तक्षक थे उनको मार गिराया। विजय-प्राप्ति की इस कहानी को पुराणों में मिथकीय रूप दिया गया।
 
ऐतरेय ब्राह्मण में उन्हें विजेता बताया गया है। जन्मेजय के बाद शतानीक, अश्वमेघदत्त, अधिसीम कृष्ण तथा निचक्षु ने राज किया। इसी निचक्षु के राज्यकाल में हस्तिनापुर नगर गंगा में आप्लावित हो गया और उसके राज्य में टिड्डियों का भारी आक्रमण हुआ जिसके कारण निचक्षु और उसकी सारी प्रजा को हस्तिनापुर त्यागने को बाध्य होना पड़ा। वे इलाहाबाद के निकट कौशांबी चले आए। निचक्षु और कुरुओं के कुरुक्षेत्र से निकलने का उल्लेख शांख्यान श्रौतसूत्र में भी है। उसके अनुसार वृद्धद्युम्न से एक यज्ञ में भूल हो गई। उसके परिणामस्वरूप एक ब्राह्मण ने शाप दिया कि कुरुओं का निष्कासन हो जाएगा।
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