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देवराज इंद्र ने सबसे पहले मोड़ा था सिन्धु नदी का जलप्रवाह, जानिए संपूर्ण इतिहास

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अनिरुद्ध जोशी

भारत के प्रारंभिक राजाओं में से एक इंद्र (संभवत: शचिपति) ने सिंधु नदी के प्रवाह को अन्य दिशा में मोड़ दिया था। इंद्र का शासन हिमालय के एक विशेष स्थान पर था। भारत की अधिकतर नदियां वहीं से निकलती थी। उन नदियों में उस काल में प्रमुख नदी सिन्धु और सरस्वती थी। सिन्धु नदी के इतिहास के बारे में जानिए।
 
 
क्या है सिन्धु नदी?
भारत का विभाजन हुआ और संपूर्ण सिन्धु नदी पाकिस्तान को मिल गई और उससे जुड़ी संपूर्ण संस्कृति और धर्म को अब नष्ट कर दिया गया है। सिन्धु का अर्थ जलराशि होता है। सिन्धु नदी का भारत और हिन्दू इतिहास में सबसे ज्यादा महत्व है। इसे इंडस कहा जाता है इसी के नाम पर भारत का नाम इंडिया रखा गया। 3,600 किलोमीटर से ज्यादा लंबी और कई किलोमीटर चौड़ी इस नदी का उल्लेख वेदों में अनेक स्थानों पर है। इस नदी के किनारे ही वैदिक धर्म और संस्कृति का उद्गम और विस्तार हुआ है। वाल्मीकि रामायण में सिन्धु को महानदी की संज्ञा दी गई है। जैन ग्रंथ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में सिन्धु नदी का वर्णन मिलता है।
 
 
सिन्धु की सहायक नदियां : सिन्धु की पश्चिम की ओर की सहायक नदियों- कुम्भा (काबुल), सुवास्तु, कुमु और गोमती का उल्लेख भी ऋग्वेद में है। इस नदी की सहायक नदियां- वितस्ता, चन्द्रभागा, ईरावती, विपासा और शुतुद्री है। इसमें शुतुद्री सबसे बड़ी उपनदी है। शुतुद्री नदी पर ही एशिया का सबसे बड़ा भागड़ा-नांगल बांध बना है। झेलम, चिनाब, रावी, व्यास एवं सतलुज सिन्धु नदी की प्रमुख सहायक नदियां हैं। इनके अतिरिक्त गिलगिट, काबुल, स्वात, कुर्रम, टोची, गोमल, संगर आदि अन्य सहायक नदियां हैं।
 
 
सिन्धु का उद्गम और मार्ग : चाइनीज एकेडमी ऑफ साइंसेज (सीएएस) के वैज्ञानिकों ने ब्रह्मपुत्र के मार्ग का उपग्रह से ली गई तस्वीरों का विश्लेषण करने के साथ भारत-पाकिस्तान से बहने वाली सिन्धु और म्यांमार के रास्ते बहने वाली सालवीन और ईरावती के बहाव के बारे में भी पूरा विवरण जुटाया है।
 
नए शोध परिणामों के मुताबिक सिन्धु नदी का उद्‍गम तिब्बत के गेजी काउंटी में कैलाश के उत्तर-पूर्व से होता है। नए शोध के मुताबिक, सिन्धु नदी 3,600 किलोमीटर लंबी है, जबकि पहले इसकी लंबाई 2,900 से 3,200 किलोमीटर मानी जाती थी। इसका क्षेत्रफल 10 लाख वर्ग किलोमीटर से भी ज्यादा है। सिन्धु नदी भारत से होकर गुजरती है लेकिन इसका मुख्य इस्तेमाल भारत-पाक जल संधि के तहत पाकिस्तान करता है।
 
 
पहले माना जाता था कि यह तिब्बत के मानसरोवर के निकट सिन-का-बाब नामक स्थान से सिन्धु नदी निकलती है। यह नदी हिमालय की दुर्गम कंदराओं से गुजरती हुई कश्मीर और गिलगिट से होती हुई पाकिस्तान में प्रवेश करती है। सिन्धु भारत से बहती हुई पाकिस्तान में 120 किमी लंबी सीमा तय करती हुई सुलेमान के निकट पाक-सीमा में प्रवेश करती है। पाकिस्तान के मैदानी इलाकों में बहती हुई यह नदी कराची के दक्षिण में अरब सागर में गिरती है।
 
 
रास्ता बदलती नदी : इस नदी ने पूर्व में अपना रास्ता कई बार बदला है। 1245 ई. तक यह मुल्तान के पश्चिमी इलाके में बहती थी। 200 वर्ष पूर्व यह नदी गुजरात के पास कच्छ में विचरण करते हुए अरब सागर में गिरती थी। अनुसंधान कहते हैं कि 1819 के भूकंप के कारण भुज के पास प्राकृतिक बांध बन गए और सिन्धु नदी का पानी का आना वहां रुक गया जिससे कच्छ का रण धीरे-धीरे सूख गया। 
 
सिन्धु के तीर्थ : मु्ल्तान में सिन्धु-चिनाब के किनारे पर श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब की याद में एक सूर्य मंदिर बना है। इसका वर्णन महाभारत में भी है। इस मंदिर का स्वरूप कोणार्क के सूर्य मंदिर से मिलता-जुलता है, लेकिन अब सब कुछ नष्ट कर दिया गया है। यही नहीं, सिन्धु किनारे के सारे हिन्दू तीर्थ मुस्लिम उत्थान काल में तोड़ दिए गए। सिन्धु नदी के मुहाने पर (हिंगोल नदी के तट पर) पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के हिंगलाज नामक स्थान पर, कराची से 144 किलोमीटर दूर उत्तर-पश्चिम में स्थित है। माता हिंगलाज (या हिंगलाज) का मंदिर, जो 52 शक्तिपीठों में से एक है।
 
 
सिन्धु तट पर : सिन्धु के तट पर ही भारतीयों (हिन्दू, मुसलमानों आदि) के पूर्वजों ने प्राचीन सभ्यता और धर्म की नींव रखी थी। सिन्धु घाटी में कई प्राचीन नगरों को खोद निकाला गया है। इसमें मोहनजोदड़ो और हड़प्पा प्रमुख हैं। सिन्धु घाटी की सभ्यता 3500 हजार ईसा पूर्व थी।
 
 
वैदिक उल्लेख : वेदों में इन्द्र की स्तुति में गाए गए मंत्रों की संख्या सबसे अधिक है। इन्द्र के बाद अग्नि, सोम, सूर्य, चंद्र, अश्विन, वायु, वरुण, उषा, पूषा आदि के नाम आते हैं। अधिकांश मंत्रों में इन्द्र एक पराक्रमी योद्धा की भांति प्रकट होते हैं और सोमपान में उनकी अधिक रुचि है।

बादलों के कई प्रकार हैं उनमें से एक बादल का नाम भी इन्द्र है। कुछ प्रसंगों में इन्द्र को मेघों के देवता के रूप में प्रस्तुत किया गया है, लेकिन ऐसी कल्पना इसलिए है क्योंकि वे पार्वत्य प्रदेश के निवासी थे और पर्वतों पर ही मेघों का निर्माण होता है। इसके अलावा यह भी माना जाता है कि उनके पास एक ऐसा अस्त्र था जिसके प्रयोग के बल पर वे मेघों और बिजलियों को कहीं भी गिराने की क्षमता रखते थे। माना जाता है कि इन्द्र ने अपने काल में कई नदियों की रचना की थीं और उन्होंने सिंधु नदी की दिशा भी बदली थी।
 
 
।।सोदञ्चं सिन्धुमरिणात् महित्वा वज्रेणान उषसः संपिपेव।
अजवसो जविनीभिः विवृश्चन् सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार॥- (ऋग्वेद द्वितीय मण्डल 15वां सूक्त)
 
अर्थात् : इन्द्र ने अपनी महत्ता से सिन्धु-नदी को उत्तर की ओर बहा दिया तथा उषा के रथ को अपनी प्रबल तीव्र सेना से निर्बल कर दिया। इन्द्र यह तब करते हैं, जब वह सोम मद से मत्त हो जाते हैं।
 
उल्लेखनीय है कि सिन्धु नदी अपने उद्गम-स्थान मानसरोवर से काश्मीर तक उत्तर-मुंह होकर बहती है। काश्मीर के बाद दक्षिण-पश्चिम-मुखी होकर बहती है। सम्भवतः इन्द्र ने पहाड़ी दुर्गम मार्ग को काटकर, सिन्धु-नदी के संकीर्ण मार्ग को विस्तीर्ण कर उत्तर की ओर नदी की धारा स्वच्छन्द कर दी हो। इससे आर्यों का मार्ग बहुत सुगम हो गया होगा। इस तथ्‍य को निम्नलिखित ऋचा से भी समझे:-
 
 
।।इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्रवोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री।
अहन् अहि मन्वपस्ततर्द प्रवक्षणा अभिनत् पर्व्वतानाम्।। (ऋ.मं. 1/32/1)
 
अर्थात् : इन्द्र के उन पुरुषार्थपूर्ण कार्यों का वर्णन करूंगा जिनको उन्होंने पहले-पहल किया। उन्होंने अहि यानी मेघ को मारा; (अपः) जल को नीचे लाए और पर्वतों को जलमार्ग बनाने के निमित्त काटा (अभिनत्)।
 
इसके बाद ही इसी सूक्त की आठवीं ऋचा इस प्रकार है-
।।नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अतियन्ति आपः।
याः चित् वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत् त्रासामहिः यत्सुतः शीर्बभूव॥ (ऋग्वेद 1/32/8)
 
अर्थात् : ठीक जिस प्रकार नदी ढहे हुए कगारों पर उमड़कर बहती है, उसी प्रकार प्रसन्न जल पड़े हुए वृत्र (बादल) पर बह रहा है। जिस वृत्रा ने अपनी शक्ति से जल को जीते-जी रोक रखा था, वही (आज) उनके पैरों तले पड़ा हुआ है।
 

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