पारसी धर्म या 'जरथुस्त्र धर्म' विश्व के अत्यंत प्राचीन धर्मों में से एक है जिसकी स्थापना आर्यों की ईरानी शाखा के एक प्रोफेट जरथुष्ट्र ने की थी। इसके धर्मावलंबियों को पारसी या जोराबियन कहा जाता है। यह धर्म एकेश्वरवादी धर्म है। ये ईश्वर को 'आहुरा माज्दा' कहते हैं। 'आहुर' शब्द 'असुर' शब्द से बना है। जरथुष्ट्र को ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना जाता है। वे ईरानी आर्यों के स्पीतमा कुटुम्ब के पौरुषहस्प के पुत्र थे। उनकी माता का नाम दुधधोवा (दोग्दों) था, जो कुंवारी थी। 30 वर्ष की आयु में जरथुस्त्र को ज्ञान प्राप्त हुआ। उनकी मृत्यु 77 वर्ष 11 दिन की आयु में हुई। महान दार्शनिक नीत्से ने एक किताब लिखी थी जिसका नाम 'दि स्पेक जरथुस्त्र' है।
इतिहासकारों का मत है कि जरथुस्त्र 1700-1500 ईपू के बीच हुए थे। यह लगभग वही काल था, जबकि राजा सुदास का आर्यावर्त में शासन था और दूसरी ओर हजरत इब्राहीम अपने धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे।
पारसियों का धर्मग्रंथ 'जेंद अवेस्ता' है, जो ऋग्वैदिक संस्कृत की ही एक पुरातन शाखा अवेस्ता भाषा में लिखा गया है। यही कारण है कि ऋग्वेद और अवेस्ता में बहुत से शब्दों की समानता है। ऋग्वेदिक काल में ईरान को पारस्य देश कहा जाता था। अफगानिस्तान के इलाके से आर्यों की एक शाखा ने ईरान का रुख किया तो दूसरी ने भारत का। ईरान को प्राचीन काल में पारस्य देश कहा जाता था। इसके निवासी अत्रि कुल के माने जाते हैं।
ऋग्वेद के पंचम मंडल के दृष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दंपति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।
अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। जरथुस्त्र ने इस धर्म को एक व्यवस्था दी तो इस धर्म का नाम 'जरथुस्त्र' या 'जोराबियन धर्म' पड़ गया।
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ऋग्वेद और जेंद अवेस्ता के अलावा हिन्दुओं के प्राचीन इतिहास का अध्ययन करने से पता चलता है कि अफगानिस्तान और ईरान के बीच का क्षेत्र जो तुर्कमेनिस्तान तक को जाता है, पहले देवताओं और असुरों के लिए युद्ध का क्षेत्र हुआ करता था। असुरों का पारस्य से लेकर अरब-मिस्र तक शासन था और देवताओं से उनकी प्रतिद्वंद्विता चलती रहती थी। कैस्पियन सागर के आसपास के क्षेत्र के लिए लड़ाई चलती रहती थी।
अत्यंत प्राचीन युग के पारसियों और वैदिक आर्यों की प्रार्थना, उपासना और कर्मकांड में कोई भेद नजर नहीं आता। वे अग्नि, सूर्य, वायु आदि प्रकृति तत्वों की उपासना और अग्निहोत्र कर्म करते थे। मिथ्र (मित्रासूर्य), वयु (वायु), होम (सोम), अरमइति (अमति), अद्दमन् (अर्यमन), नइर्य-संह (नराशंस) आदि उनके भी देवता थे। वे भी बड़े-बड़े यश्न (यज्ञ) करते, सोम पान करते और अथ्रवन् (अथर्वन्) नामक याजक (ब्राह्मण) काठ से काठ रगड़कर अग्नि उत्पन्न करते थे। उनकी भाषा भी उसी एक मूल आर्य-भाषा से उत्पन्न थी जिससे वैदिक और लौकिक संस्कृत निकली है। अवेस्ता में भारतीय प्रदेशों और नदियों के नाम भी हैं, जैसे हफ्तहिन्दु (सप्तसिन्धु), हरव्वेती (सरस्वती), हरयू (सरयू), पंजाब इत्यादि।
' जेंद अवेस्ता' में भी वेद के समान गाथा (गाथ) और मंत्र (मन्थ्र) हैं। इसके कई विभाग हैं जिसमें गाथ सबसे प्राचीन और जरथुस्त्र के मुंह से निकला हुआ माना जाता है। एक भाग का नाम 'यश्न' है, जो वैदिक 'यज्ञ' शब्द का रूपांतर मात्र है।
वेदों से पता चलता है कि कुछ देवताओं को असुरों की संज्ञा भी दी जाती थी। वरुण के लिए इस संज्ञा का प्रयोग कई बार हुआ है। पुराणों के अनुसार भगवान वरुण ने कई दफे देव-असुरों के बीच समझौता करवाया है। सायणाचार्य ने भाष्य में 'असुर' शब्द का अर्थ किया है 'असुर: सर्वेषां प्राणद:'। इंद्र के लिए भी इस संज्ञा का प्रयोग दो-एक जगह मिलता है ।-( पुस्तक वृहत्तर भारत से)
बाद में भारतवर्ष में 'असुर' शब्द राक्षस और दैत्य के अर्थ में ही मिलता है। इससे यह जान पड़ता है कि देवोपासक और असुरोपासक ये दो पक्ष आर्यों के बीच हो गए थे। दैत्यों को ही असुर कहा जाता था और देवों को सुर। ईरानी आर्यों की शाखा अनुसार असुर विचारधारा शुद्ध, स्पष्ट और अच्छी मानी गई, क्योंकि दिति के पुत्र दैत्य एकेश्वरवादी थे और सुरापान नहीं करते थे इसीलिए वे सभी असुर कहलाए। आज का असीरिया असुरों के नाम से ही है। दनु के पुत्र दानव हिमालय के उत्तर-पश्चिम में रहते थे जबकि अदिति के पुत्र देवता हिमालय के ठीक उत्तर में मेरू पर्वत के पास रहते थे।
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इस्लाम के पूर्व ईरान का राजधर्म पारसी धर्म था। ईसा पूर्व 6ठी शताब्दी में एक महान पारसीक (प्राचीन ईरानवासी) साम्राज्य की स्थापना ‘पेर्सिपोलिस में हुई थी जिसने 3 महाद्वीपों और 20 राष्ट्रों पर लंबे समय तक शासन किया। इस साम्राज्य का राजधर्म जरतोश्त या जरथुस्त्र के द्वारा 1700-1800 ईसापूर्व स्थापित, 'जोरोस्त्रियन' था और इसके करोड़ों अनुयायी रोम से लेकर सिन्धु नदी तक फैले थे।
अरबों (मुसलमानों) के हाथ में ईरान का राज्य आने के पहले पारसियों के इतिहास के अनुसार इतने राजवंशों ने क्रम से ईरान पर राज्य किया- 1.महाबद वंश, 2.पेशदादी वंश, 3.कवयानी वंश, 4.प्रथम मोदी वंश, 5.असुर (असीरियन) वंश, 6.द्वितीय मोदी वंश, 7.हखामनि वंश, 8.पार्थियन या अस्कानी वंश और
9.ससान वंश।
महाबद और गोओर्मद के वंश का वर्णन पौराणिक है। वे देवों से लड़ा करते थे। गोओर्मद के पौत्र हुसंग ने खेती, सिंचाई, शस्त्ररचना आदि चलाई और पेशदाद (नियामक) की उपाधि पाई। इसी से वंश का नाम पड़ा। इसके पुत्र तेहेमुर ने कई नगर बसाए। सभ्यता फैलाई और देवबन्द (देवघ्न) की उपाधि पाई। इसी वंश में जमशेद हुआ जिसके सुराज और न्याय की बहुत प्रसिद्धि है। संवत्सर को इसने ठीक किया और वसंत विषुवत पर नववर्ष का उत्सव चलाया जो जमशेदी नौरोज के नाम से पारसियों में प्रचलित है। पर्सेपोलिस विस्तास्प के पुत्र द्वारा प्रथम ने बसाया, किन्तु पहले उसे जमशेद का बसाया मानते थे। इसका पुत्र फरेंदू बड़ा वीर था जिसने काव: नामी योद्धा की सहायता से राज्यपहारी जोहक को भगाया। कवयानी वंश में जाल, रुस्तम आदि वीर हुए जो तुरानियों से लड़कर फिरदौसी के शाहनामे में अपना यश अमर कर गए हैं। इसी वंश में 1300 ई.पू.. के लगभग गुश्तास्प हुआ जिसके समय में जरथुस्त्रा का उदय हुआ।
पहला हमला : सेंट एंड्र्यूज विश्वविद्यालय, स्कॉटलैंड के प्रोफेसर अली अंसारी के अनुसार प्राचीन ईरानी अकेमेनिड साम्राज्य की राजधानी पर्सेपोलिस के खंडहरों को देखने जाने वाले हर सैलानी को तीन बातें बताई जाती हैं कि इसे डेरियस महान ने बनाया था। इसे उसके बेटे जेरक्सस ने और बढ़ाया, लेकिन इसे ‘उस इंसान' ने तबाह कर दिया जिसका नाम था- सिकंदर।
सन् 576 ईसा पूर्व नए साम्राज्य की स्थापना करने वाला था ‘साइरस महान’ (फारसी : कुरोश), जो ‘हक्कामानिस’ वंश का था। इसी वंश के सम्राट ‘दारयवउश’ प्रथम, जिसे ‘दारा’ या ‘डेरियस’ भी कहा जाता है, के शासनकाल (522-486 ईसापूर्व) को पारसीक साम्राज्य का चरमोत्कर्ष काल कहा जाता है।
ईसा पूर्व 330 में सिकंदर के आक्रमण के सामने यह साम्राज्य टिक न सका। सन् 224 ईस्वी में जोरोस्त्रियन धर्मावलंबी ‘अरदाशीर’ (अर्तकशिरा) प्रथम के द्वारा एक और वंश 'सॅसेनियन' की स्थापना हुई और इस वंश का शासन लगभग 7वीं सदी तक बना रहा। कालांतर में भारत के गुजरात तट से ऊपर पश्चिमी भागों में भी इस वंश के लोग अपने लोगों के साथ रहे।
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इस्लाम की उत्पत्ति के पूर्व प्राचीन ईरान में जरथुष्ट्र धर्म का ही प्रचलन था। 7वीं शताब्दी में तुर्कों और अरबों ने ईरान पर बर्बर आक्रमण किया और कत्लेआम की इंतहा कर दी। पारसियों को जबरन इस्लाम में धर्मांतरित किया गया और जो मुसलमान नहीं बनना चाहते थे उनको कत्ल कर दिया गया। 'सॅसेनियन' साम्राज्य के पतन के बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा सताए जाने से बचने के लिए पारसी लोग अपना देश छोड़कर भागने लगे।
इस्लामिक क्रांति के इस दौर में कुछ ईरानियों ने इस्लाम नहीं स्वीकार किया और वे एक नाव पर सवार होकर भारत भाग आए।
जब पारस पर अरब के मुसलमानों का राज हो गया और पारसी जबरदस्ती मुसलमान बनाए जाने लगे, तब पारसी शरणार्थियों का पहला समूह मध्य एशिया के खुरासान (पूर्वी ईरान के अतिरिक्त आज यह प्रदेश कई राष्ट्रों में बंट गया है) में आकर रहे। वहां वे लगभग 100 वर्ष रहे। जब वहां भी इस्लामिक उपद्रव शुरू हुआ तब पारस की खाड़ी के मुहाने पर उरमुज टापू में उसमें से कई भाग आए और वहां 15 वर्ष रहे।
आगे वहां भी आक्रमणकारियों की नजर पड़ गई तो अंत में वे एक छोटे से जहाज में बैठ अपनी पवित्र अग्नि और धर्म पुस्तकों को ले अपनी अवस्था की गाथाओं को गाते हुए खम्भात की खाड़ी में भारत के दीव नामक टापू में आ उतरे, जो उस काल में पुर्तगाल के कब्जे में था। वहां भी उन्हें पुर्तगालियों ने चैन से नहीं रहने दिया, तब वे सन् 716 ई. के लगभग दमन के दक्षिण 25 मील पर राजा यादव राणा के राज्य क्षेत्र 'संजान' नामक स्थान पर आ बसे।
इन पारसी शरणार्थियों ने अपनी पहली बसाहट को ‘संजान’ नाम दिया, क्योंकि इसी नाम का एक नगर तुर्कमेनिस्तान में है, जहां से वे आए थे। कुछ वर्षों के अंतराल में दूसरा समूह (खुरसानी या कोहिस्तानी) आया, जो अपने साथ धार्मिक उपकरण (अलात) लाया। स्थल मार्ग से एक तीसरे समूह के आने की भी जानकारी है। इस तरह जिन पारसियों ने इस्लाम नहीं अपनाया या तो वे मारे गए या उन्होंने भारत में शरण ली।
गुजरात के दमण-दीव के पास के क्षेत्र के राजा जाड़ी राणा ने उनको शरण दी और उनके अग्नि मंदिर की स्थापना के लिए भूमि और कई प्रकार की सहायता भी दी। सन् 721 ई. में प्रथम पारसी अग्नि मंदिर बना। भारतीय पारसी अपने संवत् का प्रारंभ अपने अंतिम राजा यज्दज़र्द-1 के प्रभावकाल से लेते हैं।
10 वीं सदी के अंत तक इन्होंने गुजरात के अन्य भागों में भी बसना प्रारंभ कर दिया। 15वीं सदी में भारत में भी ईरान की तरह इस्लामिक क्रांति के चलते 'संजान' पर मुसलमानों के द्वारा आक्रमण किए जाने के कारण वहां के पारसी जान बचाकर पवित्र अग्नि को साथ लेकर नवसारी चले गए। अंग्रेजों का शासन होने के बाद पारसी धर्म के लोगों को कुछ राहत मिली।
16 वीं सदी में सूरत में जब अंग्रेजों ने फैक्टरियां खोली तो बड़ी संख्या में पारसी कारीगर और व्यापारियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। अंग्रेज भी उनके माध्यम से व्यापार करते थे जिसके लिए उन्हें दलाल नियुक्त कर दिया जाता था। कालांतर में ‘बॉम्बे’ अंग्रेजों के हाथ लग गया और उसके विकास के लिए कारीगरों आदि की आवश्यकता थी। विकास के साथ ही पारसियों ने बंबई की ओर रुख किया।
इस तरह पारसी धर्म के लोग दीव और दमण के बाद गुजरात के सूरत में व्यापार करने लगे और फिर वे बंबई में बस गए। वर्तमान में भारत में पारसियों की जनसंख्या लगभग 1 लाख है जिसका 70% मुंबई में रहते हैं।
प्राचीन ईरान का संक्षिप्त इतिहास... अगले पन्ने पर...
अत्यंत प्राचीनकाल में पारस देश आर्यों की एक शाखा का निवास स्थान था। अत्यंत प्राचीन वैदिक युग में तो पारस से लेकर गंगा, सरयू के किनारे तक की सारी भूमि आर्य भूमि थी, जो अनेक प्रदेशों में विभक्त थी। जिस प्रकार भारतवर्ष में पंजाब के आसपास के क्षेत्र को आर्यावर्त कहा जाता था, उसी प्रकार प्राचीन पारस में भी आधुनिक अफगानिस्तान से लगा हुआ पूर्वी प्रदेश 'अरियान' वा 'एर्यान' (यूनानी एरियाना) कहलाता था जिससे बाद में 'ईरान' शब्द बना।
ईरान के ससान वंशी सम्राटों और पदाधिकारियों के नाम के आगे आर्य लगता था, जैसे 'ईरान स्पाहपत' (ईरान के सिपाही या सेनापति), 'ईरान अम्बारकपत' (ईरान के भंडारी) इत्यादि। प्राचीन पारसी अपने नामों के साथ 'आर्य' शब्द बड़े गौरव के साथ लगाते थे। प्राचीन सम्राट दार्यवहु (दारा) ने अपने को अरियपुत्र लिखा है। सरदारों के नामों में 'आर्य' शब्द मिलता है, जैसे अरियराम्र, अरियोवर्जनिस इत्यादि।
पारस का नाम पारस कैसे पड़ा : प्राचीन पारस जिन कई प्रदेशों में बंटा था, उसमें पारस की खाड़ी के पूर्वी तट पर पड़ने वाला पार्स या पारस्य प्रदेश भी था जिसके नाम पर आगे चलकर सारे देश का नाम पारस पड़ा जिसका अप्रभंश ही फारस है। इसकी प्राचीन राजधानी पारस्यपुर (यूनानी-पेर्सिपोलिस) थी, जहां पर आगे चलकर 'इस्तख' बसाया गया। वैदिक काल में 'पारस' नाम प्रसिद्ध नहीं हुआ था। यह नाम तखामनीय वंश के सम्राटों के समय से, जो पारस्य प्रदेश के थे, सारे देश के लिए उपयोग किया जाने लगा। यही कारण है जिससे वेद और रामायण में इस शब्द का पता नहीं लगता पर महाभारत, रघुवंश, कथासरित्सागर आदि में पारस्य और पारसीकों का उल्लेख बराबर मिलता है।
प्राचीन पारस कई प्रदेशों में विभक्त था। कैस्पियन समुद्र के दक्षिण-पश्चिम का प्रदेश मिडिया कहलाता था, जो एतरेय ब्राह्मण आदि प्राचीन ग्रंथ का उत्तर मद्र हो सकता है। जरथुस्त्र ने यहां अपनी शाखा का उपदेश किया। पारस के सबसे प्राचीन राज्य की स्थापना का पता इसी प्रदेश से चलता है। पहले यह प्रदेश अनार्य असुर जाति के अधिकार में था जिनका देश (वर्तमान असीरिया) यहां से पश्चिम में था। यह जाति आर्यों से सर्वथा भिन्न सेम की संतान थी जिसके अंतर्गत यहूदी और अरब वाले हैं।
अरबों (मुसलमानों) के हाथ में ईरान का राज्य आने के पहले पारसियों के इतिहास के अनुसार इतने राजवंशों ने क्रम से ईरान पर राज्य किया- 1. महाबद वंश, 2. पेशदादी वंश, 3. कवयानी वंश, 4. प्रथम मोदी वंश, 5. असुर (असीरियन) वंश, 6. द्वितीय मोदी वंश, 7. हखामनि वंश (अजीमगढ़ साम्राज्य) 8. पार्थियन या अस्कानी वंश और 9. ससान या सॅसेनियन वंश। महाबद और गोओर्मद के वंश का वर्णन पौराणिक है। वे देवों से लड़ा करते थे।
कवयानी वंश में जाल, रुस्तम आदि वीर हुए, जो तुरानियों से लड़कर फिरदौसी के शाहनामे में अपना यश अमर कर गए हैं। इसी वंश में 1300 ईपू के लगभग गुश्तास्प हुआ जिसके समय में जरथुस्त्र का उदय हुआ।