जानिए, परम सिद्ध नौ नाथों को

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नाथ शब्द का अर्थ होता है स्वामी। कुछ लोग मानते हैं कि नाग शब्द ही बिगड़कर नाथ हो गया। भारत में नाथ योगियों की परंपरा बहुत ही प्राचीन रही है। नाथ समाज हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग है। नौ नाथों की परंपरा से 84 नाथ हुए। नौ नाथों के संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं।

भगवान शंकर को आदिनाथ और दत्तात्रेय को आदिगुरु माना जाता है। इन्हीं से आगे चलकर नौ नाथ और नौ नाथ से 84 नाथ सिद्धों की परंपरा शुरू हुई। आपने अमरनाथ, केदारनाथ, बद्रीनाथ आदि कई तीर्थस्थलों के नाम सुने होंगे। आपने भोलेनाथ, भैरवनाथ, गोरखनाथ आदि नाम भी सुने ही होंगे। साईनाथ बाबा (शिरडी) भी नाथ योगियों की परंपरा से थे। गोगादेव, बाबा रामदेव आदि संत भी इसी परंपरा से थे। तिब्बत के सिद्ध भी नाथ परंपरा से ही थे।

हिंदू संत धारा को जानिए

सभी नाथ साधुओं का मुख्‍य स्थान हिमालय की गुफाओं में है। नागा बाबा, नाथ बाबा और सभी कमंडल, चिमटा धारण किए हुए जटाधारी बाबा शैव और शाक्त संप्रदाय के अनुयायी हैं, लेकिन गुरु दत्तात्रेय के काल में वैष्णव, शैव और शाक्त संप्रदाओं का समन्वय किया गया था। नाथ संप्रदाय की एक शाखा जैन धर्म में है तो दूसरी शाखा बौद्ध धर्म में भी मिल जाएगी। यदि गौर से देखा जाए तो इन्हीं के कारण इस्लाम में सूफीवाद की शुरुआत हुई।

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मत्स्येन्द्र नाथ : नाथ संप्रदाय में आदिनाथ और दत्तात्रेय के बाद सबसे महत्वपूर्ण नाम आचार्य मत्स्येंद्र नाथ का है, जो मीननाथ और मछन्दरनाथ के नाम से लोकप्रिय हुए। कौल ज्ञान निर्णय के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ ही कौलमार्ग के प्रथम प्रवर्तक थे। कुल का अर्थ है शक्ति और अकुल का अर्थ शिव। मत्स्येन्द्र के गुरु दत्तात्रेय थे।

प्राचीनकाल से चले आ रहे नाथ संप्रदाय को गुरु मत्स्येंद्रनाथ और उनके शिष्य गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) ने पहली दफे व्यवस्था दी। गोरखनाथ ने इस संप्रदाय के बिखराव और इस संप्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। दोनों गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है। मत्स्येन्द्रनाथ हठयोग के परम गुरु माने गए हैं जिन्हें मच्छरनाथ भी कहते हैं। इनकी समाधि उज्जैन के गढ़कालिका के पास स्थित है। हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि मछिंद्रनाथ की समाधि मछीन्द्रगढ़ में है, जो महाराष्ट्र के जिला सावरगाव के ग्राम मायंबा गांव के निकट है।

इतिहासवेत्ता मत्स्येन्द्र का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी मानते हैं तथा गोरक्षनाथ दसवीं शताब्दी के पूर्व उत्पन्न कहे जाते हैं। गोरक्षनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की स्थिति आठवीं शताब्दी (विक्रम) का अंत या नौवीं शताब्दी का प्रारंभ माना जा सकता है। सबसे प्रथम तो मत्स्येंद्रनाथ द्वारा लिखित ‘कौल ज्ञान निर्णय’ ग्रंथ का लिपिकाल निश्चित रूप से सिद्घ कर देता है कि मत्स्येंद्रनाथ ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्ववर्ती हैं।

मत्स्येन्द्रनाथ का एक नाम 'मीननाथ' है। ब्रजयनी सिद्धों में एक मीनपा हैं, जो मत्स्येन्द्रनाथ के पिता बताए गए हैं। मीनपा राजा देवपाल के राजत्वकाल में हुए थे। देवपाल का राज्यकाल 809 से 849 ई. तक है। इससे सिद्ध होता है कि मत्स्येन्द्र ई. सन् की नौवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विद्यमान थे। तिब्बती परंपरा के अनुसार कानपा राजा देवपाल के राज्यकाल में आविर्भाव हुए थे। इस प्रकार मत्स्येन्द्रनाथ आदि सिद्धों का समय ई. सन् के नौवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और दसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध समझना चाहिए। शंकर दिग्विजय नामक ग्रंथ के अनुसार 200 ईसा पूर्व मत्स्येन्द्रनाथ हुए थे।

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गोरखनाथ : गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परंपरा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परंपरा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण है कि ईस्वी 13वीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ मुस्लिमों ने ढहा दिया गया था, इसीलिए इसके बहुत से पूर्व गोरखनाथ का समय होना चाहिए।

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गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरंभकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परंपरा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। गोरखनाथ से पहले अनेक संप्रदाय थे, जिनका नाथ संप्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके संप्रदाय में आ मिले थे।

काबुल, गांधार, सिंध, बलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रांतों में यहां तक कि मक्का-मदीना तक श्रीगोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और नाथ परंपरा को विस्तार दिया।

गोरक्षनाथ जन्म : जनश्रुति अनुसार एक बार श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी भ्रमण करते हुए गोदावरी नदी के किनारे चन्द्रगिरि नामक स्थान पर पहुंचे और सरस्वती नाम की स्त्री के द्वार पर भिक्षा मांगने लगे। नि:संतान स्त्री भिक्षा लेकर बाहर आई, लेकिन वह उदास थी। श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी ने उसे विभूति देकर कहा कि इसे खा लेना, पुत्र प्राप्ति होगी। लेकिन अनजान भय के कारण उस महिला ने सिद्ध विभूति को एक झोपड़ी के पास गोबर की ढेरी पर रख दिया।

12 साल बाद श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी फिर वहीं पहुंचे और सरस्वती से उस बालक के बारे में पूछा। सरस्वती ने विभूति को गोबर की ढेरी पर रखने की बात बता दी। इस पर मत्स्येन्द्रनाथ ने कहा, 'अरे माई, वह विभूति तो अभिमंत्रित थी- निष्फल हो ही नहीं सकती। तुम चलो, वह स्थान तो दिखाओ।' उन्होंने अलख निरंजन की आवाज लगाई और गोबर की ढेरी से निकलकर 12 साल का एक बालक सामने आ गया। गोबर में रक्षित होने के कारण मत्स्येन्द्रनाथजी ने बालक का नाम गोरक्ष रखा और अपना शिष्य बनाकर अपने साथ ले गए। गोरखनाथ के जन्म के बारे में कई अन्य जनश्रुतियां भी हैं।

गोरखनाथ के ग्रंथ : नाथ योगी गोरखनाथजी ने संस्कृत और लोकभाषा में योग संबंधी साहित्य की रचना की है- गोरक्ष-कल्प, गोरक्ष-संहिता, गोरक्ष-शतक, गोरक्ष-गीता, गोरक्ष-शास्त्र, ज्ञान-प्रकाश शतक, ज्ञानामृतयोग, महार्थ मंजरी, योग चिन्तामणि, योग मार्तण्ड, योग-सिद्धांत-पद्धति, हठयोग संहिता आदि।

गोरखनाथ की तपोभूमि और धाम : गोरखनाथजी ने नेपाल और भारत की सीमा पर प्रसिद्ध शक्तिपीठ देवीपातन में तपस्या की थी, उसी स्थल पर पाटेश्वरी शक्तिपीठ की स्थापना हुई। भारत के गोरखपुर में गोरखनाथ का एकमात्र प्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर को यवनों और मुगलों ने कई बार ध्वस्त किया लेकिन इसका हर बार पु‍नर्निर्माण कराया गया। 9वीं शताब्दी में इसका जीर्णोद्धार किया गया।

नेपाल के परम सिद्ध योगी : नेपाल की राजकीय मुद्रा (सिक्के) पर श्रीगोरक्ष का नाम है और वहां के निवासी गोरक्ष ही कहलाते हैं। गोरखा नाम की सेना गुरु गोरक्षनाथ की रक्षा के लिए ही थी। दरअसल, नेपाल के शाह राजवंश के संस्थापक महाराज पृथ्वीनारायण शाह को गोरक्षनाथ से ऐसी शक्ति मिली थी जिसके बल पर उन्हें खंड-खंड में विभाजित नेपाल को एकजुट करने में सफलता मिली, तभी से नेपाल की राजमुद्रा पर श्रीगोरक्षनाथ नाम और राजमुकुटों में उनकी चरणपादुका का चिह्न अंकित है।

गुरु गोरखनाथजी के नाम से ही नेपाल के गोरखाओं ने नाम पाया। नेपाल का गोरखा जिले का नाम भी भी गुरु गोरखनाथ के नाम पर ही पड़ा। गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यहीं दिखे थे। यहां एक गुफा है, जहां गोरखनाथ का पग चिह्न है और उनकी एक मूर्ति भी है। यहां हर साल वैशाख पूर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे रोट महोत्सव कहते हैं और यहां मेला भी लगता है।

गोरखधंधा : जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठ‍िन (आड़े-त‍िरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अ‍चम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि 'यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।'

गोरखपंथी : गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित 'योगिसंप्रदाय' मुख्य रूप से बारह शाखाओं में विभक्त है। इसीलिए इसे 'बारहपंथी' कहते हैं। (1) भुज के कंठरनाथ, (2) पागलनाथ, (3) रावल, (4) पंख या पंक, (5) वन, (6) गोपाल या राम, (7) चांदनाथ कपिलानी, (8) हेठनाथ, (9) आई पंथ, (10) वेराग पंथ, (11) जैपुर के पावनाथ और (12) घजनाथ।

उक्त सारे संप्रदाय में शैव, शाक्त और नाथ के सभी संप्रदाय सम्मिलित हो गए थे।

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गहिनीनाथ : गहिनीनाथ के ‍गुरु गोरखनाथ थे। मान्यता है कि एक दिन गुरु गोरखनाथ अपने गुरु मछिन्दर नाथ के साथ तालाब के किनारे एक एकांत जगह प्रवास कर रहे थे, जहां पास ही में एक गांव था। मछिंदरनाथ ने कहा कि मैं तनिक भिक्षा लेकर आता हूं तब तक तुम संजीवनी विद्या के बारे में तुमने आज तक जो सुना है ना उसकी सिद्धि का मंत्र जपो। यह एकांत में ही सिद्ध होती है। संजीवनी विद्या को सिद्ध करने को चार बातें चाहिए श्रद्धा, तत्परता, ब्रह्मचर्य और संयम। ये चारों बातें तुम में हैं। खाली एकांत में रहो, ध्यान से जप करो और संजीवनी सिद्ध कर लो। ऐसा कहकर मछिंदरनाथ तो चले गए और गोरखनाथ जप करने लगे।

वे जप और ध्यान कर ही रहे थे वहीं तालाब के किनारे बच्चे खेलने आ गए। तालाब की गीली-गीली मिट्टी को लेकर वे बैलगाड़ी बनाने लगे। बैलगाड़ी बनाने तक वो सफल हो गए, लेकिन बैलगाड़ी चलाने वाला मनुष्य का पुतला वे नहीं बना पा रहे थे। किसी लड़के ने सोचा कि ये जो आंख बंद किए बाबा हैं इन्हीं से कहें- बाबा-बाबा हमको गाड़ी वाला बनाके दीजिए। गुरु गोरखनाथ ने आंखें खोलीं और कहा कि अभी हमारा ध्यान भंग न करो फिर कभी देखेंगे। लेकिन वे बच्चे नहीं माने और फिर कहने लगे।

बच्चों के आग्रह के चलते गोरखनाथ ने कहा- लाओ बेटे बना देता हूं। उन्होंने जप संजीवनी जप करते हुए ही मिट्टी उठाई और पुतला बनाने लगे। संजीवनी मंत्र चल रहा है तो जो पुतला बनाना था बैलगाड़ी वाला वो पुतला बनाते गए। बनाते-बनाते नन्हा-सा उसके अंग-प्रत्यंग बनते गए और मंत्र प्रभाव से वो पुतला सजीव होने लगा उसमें जान आ गई। जब पूरा हुआ तो वो पुतला बोला प्रणाम। गुरु गोरखनाथजी चकित रह गए। बच्चे घबराए कि ये पुतला कैसे जी उठा?

वह पुतला सजीव होकर आसन लगाके बैठ गया। बच्चे तो चिल्लाते हुए भागे। भूत-भूत मिट्टी में से भूत बन गया। जाकर उन बच्चो ने गांव वालों से कहा और गांव वाले भी उस घटना को देखने जुट गए। सभी ने देखा बच्चा बैठा है।

गांव वालों ने गोरखनाथ को प्रणाम किया। इतने में गुरु मछिंद्रनाथ भिक्षा लेकर आ गए। उन्होंने भी देखा और फिर अपने कमंडल से दूध निकालकर उस बालक को दूध पिलाया। उन्होंने सभी दूसरे बच्चों को भी दूध पिलाया। फिर दोनों ने सोचा अब एकांत, जप, साधना के समय वहां से विदा होना ही अच्छा। दोनों नाथ बच्चे को लेकर जाने लगे।

इतने में गांव के ब्राह्मण और ब्राह्मणी जिनको संतान नहीं थी उन्होंने आग्रह किया कि आप इतने बड़े योगी हैं तो हमारा भी कुछ भला करिए नाथ। ब्राह्मण का नाम था मधुमय और उनकी पत्नी का नाम था गंगा। गांव वालों ने कहा कि आपकी कृपा से इन्हें संतान मिल सकती है। गोरखनाथ और मछिन्द्रनाथ भी समझ गए। उन्होंने कहा तुम इस बालक को क्यों नहीं गोद ले लेते। कुछ सोच-विचार के बाद दोनों ने उक्त बालक को गोद लेना स्वीकार कर लिया।

यही बालक गहिनीनाथ योगी के नाम से सुप्रसिद्ध हुआ। यह कथा है कनक गांव की जहां आज भी इस कथा को याद किया जाता है। गहिनीनाथ की समाधि महाराष्ट्र के चिंचोली गांव में है, ‍जो तहसील पटोदा और जिला बीड़ के अंतर्गत आता है। मुसलमान इसे गैबीपीर कहते हैं।

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जालंधर (जालिंदरनाथ) नाथ : इनके गुरु दत्तात्रेय थे। एक समय की बात है हस्तिनापुर में ब्रिहद्रव नाम के राजा सोमयज्ञ कर रहे थे। अंतरिक्षनारायण ने यज्ञ के भीतर प्रवेश किया। यज्ञ की समाप्ति के बाद एक तेजस्वी बालक की प्राप्ति हुई। यही बालक जालंधर कहलाया।

राजस्थान के जालौर के पास आथूणी दिस में उसका तपस्या स्थल है। यहां पर मारवाड़ के महाराजा मानसिंह ने एक मंदिर बनवाया है। जोधपुर में महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश संग्रहालय में अनेक हस्तलिखित ग्रंथ हैं जिसमें जालंधर का जीवन और उनके कनकाचल में पधारने का जिक्र है। चचंद्रकूप सूरजकुंड कपाली नामक यह स्थान प्रसिद्ध है। जालंधर के तीन तपस्या स्थल हैं- गिरनार पर्वत, कनकाचल और रक्ताचल।

उनके होने संबंधी दस्तावेजों के मुताबिक वे विक्रम संवत 1451 में राजस्थान में पधारे थे।

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कृष्णपाद : मत्स्येन्द्र नाथ के समान ही जालंधर नाथ और कृष्णपाद की महिमा मानी गई। इनके गुरु जालंदरनाथ थे। जालंधरनाथ मत्स्येंद्र नाथ के गुरु भाई माने जाते हैं। कृष्णपाद को कनीफ नाथ भी कहा जाता है।

कृष्णपाद जालंधर नाथ के शिष्य थे और इनका नाम कण्हपा, कान्हूपा, कानपा आदि प्रसिद्ध है। कोई तो उन्हें कर्णाटक का मानता है और कोई उड़ीसा का। जालंधर और कृष्णपाद कापालिक मत के प्रवर्तक थे। कापालिकों की साधना स्त्रियों के योग से होती है। भारतवर्ष में सर्वत्र ही सिद्धों का उदय 6ठी से 11वीं सदी तक रहा।

कनीफ नाथ की समाधि स्थल के फोटो देखिए।

समाधि का वीडियो देखिए

महाराष्ट्र की सह्याद्री पर्वत श्रृंखला में गर्भगिरि पर्वत से बहने वाली पौनागि‍रि नदी के पास ऊंचे किले पर मढ़ी नामक गांव बसा हुआ है और यहीं है इस महान संत की समाधि। इस किले पर श्री कनीफ नाथ महाराज ने 1710 में फाल्गुन मास की वैद्य पंचमी पर समाधि ली थी, जहां लाखों श्रद्धालुओं की आस्था बसी हुई है।

कहा जाता है कि कनीफनाथ महाराज हिमालय में हथिनी के कान से प्रकट हुए थे। माना जाता है कि ब्रह्मदेव एक दिन सरस्वती के प्रति आकर्षित हुए तो उनका वीर्य नीचे गिर गया, जो हवा में घूमता हुआ हिमाचल प्रदेश में विचरण कर रही एक हथिनी के कान में समा गया। कुछ समय बाद प्रबुद्धनाराण ने उन्हें जालंधरनाथ के आदेश से कान से निकलने का निर्देश दिया और इस तरह उनका नाम कनीफ नाथ पड़ा।

कनीफ नाथ महाराज ने बद्रीनाथ में भागीरथी नदी के तट पर 12 वर्ष तपस्या की और कई वर्ष जंगलों में गुजार कर योग साधना की। तत्पश्चात उन्होंने दीन-दलितों को अपने उपदेशों के माध्यम से भक्तिमार्ग पर प्रशस्त होने की भावना जागृत की।

उन्होंने दलितों की पीड़ा दूर करने के विषय पर साबरी भाषा में कई रचनाएं की। कहते हैं इन रचनाओं के गायन से रोगियों के रोग दूर होने लगे। आज भी लोग अपने कष्ट निवारण के लिए महाराज के द्वार पर चले आते हैं।

ऐसा माना जाता है कि डालीबाई नामक एक महिला ने नाथ संप्रदाय में शामिल होने के लिए कनीफनाथ महाराज की कठोर तपस्या की थी। फाल्गुन अमावस्या के दिन डालीबाई ने समाधि ली थी। समाधि लेते समय कनीफनाथ ने अपनी शिष्या को स्वयं प्रकट होकर दर्शन दिए थे। इसी समाधि पर कालांतर में एक अनार का वृक्ष उग आया। कहते हैं कि इस पेड़ पर रंगीन धागा बाँधने से भक्तों की सारी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।

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भर्तृहरि नाथ : भर्तृहरि राजा विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। राजा गंधर्वसेन ने राजपाट भर्तृहरि को सौंप दिया। अपनी रानी, जिससे भर्तृहरि अपार प्रेम करते थे, से मिले धोखे और फिर पश्चाताप के रूप में रानी द्वारा आत्मदाह की घटना ने भर्तृहरि को वैराग्य जीवन की राह दिखा दी। वे वैरागी हो गए। इसके बाद विक्रमादित्य को राज्यभार संभालना पड़ा।

एक सिद्ध योगी ने राजा भर्तृहरि को एक फल दिया और कहा कि इसको खाने के बाद आप चिरकाल तक युवा बने रहेंगे। भर्तृहरि ने फल ले लिया पर उनकी आसक्ति अपनी छोटी रानी में थी। वह फल उन्होंने हिदायत के साथ उन्होंने अपनी छोटी रानी को दे दिया। छोटी रानी को एक युवक से प्रेम था, तो उसने वह फल युवक को दे दिया। युवक को एक वैश्या से प्रेम था, तो उसन उसे वह फल दे दिया वैश्या को लगा कि वह तो पतिता है; फल के लिए सुपात्र तो राजा भर्तृहरी हैं जो दीर्घायु होंगे तो राज्य का कल्याण होगा। ऐसा सोचकर उस वैश्या ने वह फल वेश बदल कर राजा को दिया। फल को देख राजा के मन से आसक्ति जाती रही और उन्होंने नाथ संप्रदाय के गुरु गोरक्षनाथ का शिष्यत्व ले लिया।

मध्यप्रदेश के उज्जैन में आज भी भर्तृहरि की गुफा है जहां वे तपस्या किया करते थे।

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रेवणनाथ : महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में करमाला तहसील के वीट गांव में इनकी समाधि है। रेवणनाथ के पिता थे ब्रह्मदेव। रेवणनाथ के जन्म की कथा भी अजीब है। वैसे सभी नाथों के जन्म की कथाएं आश्चर्य में डालने वाली ही हैं जिन पर आसानी से विश्वास करना मुश्किल होगा, लेकिन यह सच है ।

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नागनाथ : बहुत पहले ब्रह्मा का वीर्य एक नागिन के गर्भ में चला गया था जिससे बाद में नागनाथ की उत्पत्ति हुई।

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चर्पट नाथ : नाथ सिद्धियों की बानियों का संपादन करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि ये चर्पट नाथ गोरखनाथ के परवर्ती जान पड़ते हैं। इसका संबंध व्रजयानी संप्रदाय से हो सकता है। तिब्बती परंपरा में उन्हें मीनपा का गुरु माना गया है। नाथ परंपरा में इन्हें गोरखनाथ का शिष्य माना जाता है। इनके नाम से प्रसिद्ध बानियों (भजन) में इनके नाम का पता चलता है। ऐसा माना जाता है कि पहले ये रसेश्वर संप्रदाय के थे लेकिन गोरखनाथ के प्रभाव में वे गोरख संप्रदाय के हो गए।

चर्पटनाथ सिद्ध योगी थे। इस संबंध में लेखक नागेंद्रनाथ उपाध्याय ने लिखा है कि सिद्धि प्राप्त करने के बाद अनेक योगी अपने योग बल पर 300-400 से 700-800 वर्षों तक जीवित रह सकते हैं। नागार्जुन, आर्यदेव, गोरखनाथ, भर्तृहरी आदि के विषय में इसी प्रकार का विश्वास किया जाता है। परिणामत: इन सिद्धों के कालनिर्णय में बहुत सी कठिनाइयां उत्पन्न हो जाती हैं।

चर्पटनाथ ने कहा भी किसी चमत्कार से कम नहीं है। एक समय की बात है सभी देवी-देवता शिव-पार्वती के विवाह अवसर पर एकत्रित हुए तब ब्रह्मदेव का वीर्य पार्वती की सुंदरता देखकर गिर गया। उस समय वह वीर्य उनकी एड़ी से कुचला गया। इस तरह यह दो भागों में विभक्त हो गया। एक भाग से 60 हजार संतों का जन्म हुआ और दूसरा भाग और नीचे गिरा और नदी के ईख में अटक गया।

मच्छिंद्र गोरक्ष जालीन्दराच्छ।। कनीफ श्री चर्पट नागनाथ:।।

श्री भर्तरी रेवण गैनिनामान।। नमामि सर्वात नवनाथ सिद्धान।।

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