असुरों के गुरु शुक्राचार्य के बारे में 10 रोचक तथ्‍य

अनिरुद्ध जोशी
शुक्राचार्य का नाम तो सभी ने सुना होगा। वे दैत्य अर्थात असुरों के गुरु थे। उनकी ख्‍याति दूर-दूर तक फैली थी। आओ जानते हैं उनके बारे में 10 रोचक जानकारी।
 
 
1.ऋषि भृगु के पुत्र शुक्राचार्य असुर राजा विरोचन के गुरु थे जो बाद में महान राजा बली के गुरु बने। एक अन्य मान्यता अनुसार वे भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र थे। महर्षि भृगु की पहली पत्नी का नाम ख्याति था, जो राजा दक्ष की पुत्री थीं। ख्याति से भृगु को दो पुत्र दाता और विधाता मिले और एक बेटी लक्ष्मी का जन्म हुआ। लक्ष्मी का विवाह उन्होंने भगवान विष्णु से कर दिया था।
 
 
2.महर्षि भृगु के पुत्र और भक्त प्रहल्लद के भानजे शुक्राचार्य के बारे में कहा जाता है कि माता लक्ष्मी उनकी बहन थी। ऋषि च्यवन उनके भाई थे। माना जाता है कि शुक्राचार्य का पहले नाम उशना था।
 
3.आचार्य शुक्राचार्य शुक्र नीति शास्त्र के प्रवर्तक थे जबकि शुक्राचार्य के पुत्र शंद और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहां नीतिशास्त्र का अध्यापन करते थे। ऋग्वेद में भृगुवंशी ऋषियों द्वारा रचित अनेक मंत्रों का वर्णन मिलता है जिसमें वेन, सोमाहुति, स्यूमरश्मि, भार्गव, आर्वि आदि का नाम आता है। 
 
4.शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था। देवयानी का विवाह ययाति से हुआ था जबकि देवयानी को बृहस्पति के पुत्र कच से प्रेम था।
 
5.शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या अपनी माता ख्याति से सिखी थी। इस विद्या द्वारा मृत शरीर को भी जीवित किया जा सकता है। शुक्राचार्य इस विद्या के माध्यम से युद्ध में आहत सैनिकों को स्वस्थ कर देते थे और मृतकों को तुरंत पुनर्जीवित कर देते थे। शुक्राचार्य ने रक्तबीज नामक राक्षस को महामृत्युंजय सिद्धि प्रदान कर युद्धभूमि में रक्त की बूंद से संपूर्ण देह की उत्पत्ति कराई थी। कहते हैं कि महामृत्युंजय मंत्र के सिद्ध होने से भी यह संभव होता है।
 
6.मत्स्य पुराण अनुसार शुक्राचार्य ने आरंभ में अंगिरस ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया किंतु जब वे (अंगिरस) अपने पुत्र बृहस्पति के प्रति पक्षपात दिखाने लगे तब इन्होंने अंगिरस का आश्रम छोड़कर गौतम ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया। गौतम ऋषि की सलाह पर ही शुक्राचार्य ने शंकर की आराधना कर मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके बल पर देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते।
 
7.माना जाता है कि एक समय जब विष्णु अवतार त्रिविक्रम वामन ने ब्राह्मण बनकर राजा बालि से तीन पग धरती दान में मांगी तो उस वक्त शुक्राचार्य बलि को सचेत करने के उद्देश्य से जलपात्र की टोंटी में बैठ गए। जल में कोई व्याघात समझ कर उसे सींक से खोदकर निकालने के यत्न में इनकी आंख फूट गई। फिर आजीवन वे काने ही बने रहे। तब से इनका नाम एकाक्षता का द्योतक हो गया।
 
 
8.शुक्राचार्य द्वार मृत संजीवीनी का अनुचित प्रयोग करने के कारण भगवान शंकर को बहुत क्रोध आया। क्रोधावश उन्होंने शुक्राचार्य को पकड़कर निगल लिया। इसके बाद शुक्राचार्य शिवजी की देह से शुक्ल कांति के रूप में बाहर आए और अपने पूर्ण स्वरूप को प्राप्त किया। तब उन्होंने प्रियवृत की पुत्री ऊर्जस्वती से विवाह कर अपना नया जीवन शुरू किया। उससे उन को चार पुत्र हुए।
 
9.शुक्राचार्य को श्रेष्ठ संगीतज्ञ और कवि होने का भी गौरव प्राप्त है। भागवत पुराण के अनुसार भृगु ऋषि के कवि नाम के पुत्र भी हुए जो कालान्तर में शुक्राचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए। महाभारत के अनुसार शुक्राचार्य औषधियों, मन्त्रों तथा रसों के भी ज्ञाता हैं। इनकी सामर्थ्य अद्भुत है। इन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति अपने शिष्य असुरों को दे दी और स्वयं तपस्वी-जीवन ही स्वीकार किया।
 
 
10.इस बात में कितनी सचाई है यह हम नहीं जानते। शुक्राचार्य को प्राचीन अरब के धर्म और संस्कृति का प्रवर्तक माना जाता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि अरब को पहले पाताल लोक की संज्ञा दी गई थी। गुजरात के समुद्र के उस पार पाताल लोक होने की कथा पुराणों में मिलती है। गुजरात के समुद्री तट पर स्थित बेट द्वारका से 4 मील की दूरी पर मकरध्वज के साथ में हनुमानजी की मूर्ति स्थापित है। अहिरावण ने भगवान श्रीराम-लक्ष्मण को इसी स्थान पर छिपाकर रखा था। माना जाता है कि जब राजा बलि को पाताल लोक का राज बना दिया गया था तब शुक्राचार्य भी उनके साथ चले गए थे। दूसरी मान्यता अनुसार दैत्यराज बलि ने शुक्राचार्य का कहना न माना तो वे उसे त्याग कर अपने पौत्र और्व के पास अरब में आ गए और दस वर्ष तक वहां रहे। शुक्राचार्य के पौत्र का नाम और्व/अर्व या हर्ब था, जिसका अपभ्रंश होते होते अरब हो गया। अरब देशों का महर्षि भृगु के पुत्र शुक्राचार्य तथा उनके पौत्र और्व से ऐतिहासिक संबंध के बारे में 'हिस्ट्री ऑफ पर्शिया' में उल्लेख मिलता है जिसके लेखक साइक्स हैं।

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