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जानिए, भारत के छ: महान दार्शनिकों को..

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विश्व और भारत का दर्शन और धर्म इन छ: ऋषियों के विचारों के आधार पर ही विकसित हुआ है। हालांकि वेदों में सभी तरह के धार्मिक विचार और दर्शन की चर्चा मिलती है, लेकिन हमारे इन छ: ऋषियों ने वेदों के ही इन दर्शन और धर्म को अच्‍छे से विकसित किया और उसका एक संप्रदाय खड़ा कर एक परंपरा विकसित की।

कहना चाहिए कि भारतीय ऋषियों ने जगत या ईश्वर के रहस्य को छ: कोणों से समझने की कोशिश की है। ये छ: कोण ही आज दुनियाभर के दर्शन और धर्म का आधार हैं।

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न्याय : तर्क प्रधान इस प्रत्यक्ष विज्ञान की विधिवत शुरुआत करने वाले अक्षपाद गौत म हैं। यहां न्याय से मतलब उस प्रक्रिया से है जिससे मनुष्य किसी नतीजे पर पहुंच सके- नीयते अनेन इति न्यायः।

प्रत्येक ज्ञान के लिए 4 चीजों का होना आवश्यक है- (1) प्रमाता अर्थात्‌ ज्ञान प्राप्त करने वाला। (2) प्रमेय अर्थात्‌ जिसका ज्ञान प्राप्त करना अभीष्ट है। (3) ज्ञान और (4) प्रमाण अर्थात ज्ञान प्राप्त करने का साधन।

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वैशेषिक दर्शन : महर्षि कणाद ने इस दार्शनिक मत द्वारा ऐसे धर्म की प्रतिष्ठा का ध्येय रखा है, जो भौतिक जीवन को बेहतर बनाए और लोकोत्तर जीवन में मोक्ष का साधन हो।

' यतोम्युदय निश्रेयस सिद्धि: स धर्मः'

न्याय दर्शन जहां अंतरजगत और ज्ञान की मीमांसा को प्रधानता देता है, वहीं वैशेषिक दर्शन बाह्य जगत की विस्तृत समीक्षा करता है। इसमें आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए इसे अजर, अमर और अविकारी माना गया है। न्याय और वैशेषिक दोनों ही दर्शन परमाणु से संसार की शुरुआत मानते हैं। इनके अनुसार सृष्टि रचना में परमाणु उपादान कारण और ईश्वर निमित्त कारण है। इसके अनुसार जीवात्मा विभु और नित्य है तथा दुखों का खत्म होना ही मोक्ष है।

समस्त वस्तुओं को कुल 7 पदार्थों के अंतर्गत माना गया है- 1.द्रव्य, 2.गुण, 3.कर्म, 4.सामान्य, 5.विशेष, 6.समवाय, 7.अभाव।

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मीमांसा : वेद के मुख्य दो भाग हैं- कर्मकांड और वेदांत। संहिता और ब्राह्मण में कर्मकांड का प्रतिपादन किया गया है तथा उपनिषद् एवं आरण्यक में ज्ञान का। मीमांसा दर्शन के आद्याचार्य जैमिनी ने इस कर्मकांड को सिद्धांतबद्ध किया है।

इस दार्शनिक मत के अनुसार प्रतिपादित कर्मों के द्वारा ही मनुष्य अभीष्ट प्राप्त कर सकता है। इसके अनुसार कर्म तीन प्रकार के हैं- काम्य, निषिद्ध और नित्य। वास्तव में बिना कर्म के ईश्वर भी फल देने में समर्थ नहीं है। मीमांसा दर्शन ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हुए बहुदेववादी है। इसमें यज्ञादि कर्मों के परिणाम के लिए एक अदृश्य शक्ति की कल्पना की गई है, जो मनुष्य को शुभ और अशुभ फल देती है।

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सांख्य : सच पूछा जाए तो यह एक द्वैतवादी दर्शन है। इसके अनुसार विश्व प्रपंच के प्रकृति और पुरुष दो मूल तत्व हैं। पुरुष चेतन तत्व है और प्रकृति जड़। इसके अनुसार जगत का उपादान तत्व प्रकृति है। सत्व, रज और तम आदि 3 गुण उसके अभिन्न अंग हैं।

जब इन तीनों गुणों की साम्यावस्था भंग हो जाती है और उसके गुणों में क्षोम उत्पन्न होता है, तब सृष्टि का आरंभ होता है। प्रथमतः महतत्त्व, अहंकार और पंच तन्मात्राओं को मिलाकर 7 तत्व उत्पन्न होते हैं। अहंकार का गुणों के साथ संयोग होने से ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, मन तथा आकाश इन 5 महाभूतों की उत्पत्ति होती है।

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वेदांत : महर्षि वादरायण जो संभवतः वेदव्यास ही हैं, का 'ब्रह्मसूत्र' और उपनिषद वेदांत दर्शन के मूल स्रोत हैं। आदि शंकराचार्य ने ब्रह्म सूत्र, उपनिषद और श्रीमद्भगवद् गीता पर भाष्य लिखकर अद्वैत मत का जो प्रतिपादन किया उसका भारतीय दर्शन के विकास में इतना प्रभाव पड़ा है कि इन ग्रंथों को ही 'प्रस्थान त्रयी' के नाम से जाना जाने लगा। वेदांत दर्शन निर्विकल्प, निरुपाधि और निर्विकार ब्रह्म को ही सत्य मानता है।

' ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' इसके अनुसार जगत की उत्पत्ति ब्रह्म से ही होती है- 'जन्माद्यस्य यतः' (ब्रह्म सूत्र-2), उत्पन्न होने के पश्चात जगत ब्रह्म में ही मौजूद रहता है और आखिरकार उसी में लीन हो जाता है। इसके अनुसार जगत की यथार्थ सत्ता नहीं है। सत्य रूप ब्रह्म के प्रतिबिम्ब के कारण ही जगत सत्य प्रतीत होता है।

जीवात्मा ब्रह्म से भिन्न नहीं है। अविधा से आच्छादित होने पर ही ब्रह्म जीवात्मा बनता है और अविधा का नाश होने पर वह उसमें तद्रूप होता है।

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योग : महर्षि पतंजलि का 'योगसूत्र' योग दर्शन का प्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन है। योगदर्शन इन 4 विस्तृत भाग, जिन्हें इस ग्रंथ में पाद कहा गया है, में विभाजित है- समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद।

प्रथम पाद का मुख्य विषय चित्त की विभिन्न वृत्तियों के नियमन से समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना है। द्वितीय पाद में 5 बहिरंग साधन- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का विवेचन है। तृतीय पाद में अंतरंग 3 धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन है। इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियों का भी उल्लेख हुआ है, किंतु ऋषि के अनुसार वे समाधि के मार्ग की बाधाएं ही हैं। चतुर्थ कैवल्यपाद मुक्ति की वह परमोच्च अवस्था है, जहां एक योग साधक अपने मूल स्रोत से एकाकार हो जाता है।

दूसरे ही सूत्र में योग की परिभाषा देते हुए पतंजलि कहते हैं- 'योगाश्चित्त वृत्तिनिरोधः' अर्थात योग चित्त की वृत्तियों का संयमन है। चित्त वृत्तियों के निरोध के लिए महर्षि पतंजलि ने द्वितीय और तृतीय पाद में जिस अष्टांग योग साधन का उपदेश दिया है, उसका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
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