विदेशी हमले पर क्या कहती है चाणक्य नीति?

अनिरुद्ध जोशी
चाणक्य के समय विदेशी हमला हुआ था। चाणक्य का संपूर्ण जीवन ही कूटनीति, छलनीति, युद्ध नीति और राष्ट्र की रक्षा नीति से भरा हुआ है। चाणक्य अपने जीवन में हर समय षड्यंत्र को असफल करते रहे और अंत में उन्होंने वह हासिल कर लिया, जो वे चाहते थे। चाणक्य की युद्ध और सैन्य नीति बहुत प्रचलित है। उन्हीं में से हम यहां कुछ सूत्र ढूंढकर लाए हैं जिन्हें संक्षिप्त और सरल भाषा में लिखा है।
 
 
-ऋण, शत्रु और रोग को समय रहते ही समाप्त कर देना चाहिए। जब तक शरीर स्वस्थ और आपके नियंत्रण में है, उस समय आत्मसाक्षात्कार के लिए उपाय अवश्य ही कर लेना चाहिए, क्योंकि मृत्यु के पश्चात कोई कुछ भी नहीं कर सकता।
 
-बलवान से युद्ध करना हाथियों से पैदल सेना को लड़ाने के समान है। हाथी और पैदल सेना का कोई मुकाबला नहीं हो सकता। उसमें पैदल सेना के ही कुचले जाने की आशंका रहती है। अत: युद्ध बराबरी वालों से ही करना चाहिए।...युद्ध के सही समय का इंतजार करना ही उचित है।
 
 
-राजा शक्तिशाली होना चाहिए, तभी राष्ट्र उन्नति करता है। राजा की शक्ति के 3 प्रमुख स्रोत हैं- मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक। मानसिक शक्ति उसे सही निर्णय के लिए प्रेरित करती है, शारीरिक शक्ति युद्ध में वरीयता प्रदान करती है और आध्यात्मिक शक्ति उसे ऊर्जा देती है, प्रजाहित में काम करने की प्रेरणा देती है। कमजोर और विलासी प्रवृत्ति के राजा शक्तिशाली राजा से डरते हैं।
 
-कूटनीति के 4 प्रमुख अस्त्र हैं जिनका प्रयोग राजा को समय और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर करना चाहिए- साम, दाम, दंड और भेद। जब मित्रता दिखाने (साम) की आवश्यकता हो तो आकर्षक उपहार, आतिथ्य, समरसता और संबंध बढ़ाने के प्रयास करने चाहिए जिससे दूसरे पक्ष में विश्वास पैदा हो। ताकत का इस्तेमाल, दुश्मन के घर में आग लगाने की योजना, उसकी सेना और अधिकारियों में फूट डालना, उसके करीबी रिश्तेदारों और उच्च पदों पर स्थित कुछ लोगों को प्रलोभन देकर अपनी ओर खींचना कूटनीति के अंग हैं।
 
 
-विदेश नीति ऐसी होनी चाहिए जिससे राष्ट्र का हित सबसे ऊपर हो, देश शक्तिशाली हो, उसकी सीमाएं और साधन बढ़ें, शत्रु कमजोर हो और प्रजा की भलाई हो। ऐसी नीति के 6 प्रमुख अंग हैं- संधि (समझौता), समन्वय (मित्रता), द्वैदीभाव (दुहरी नीति), आसन (ठहराव), यान (युद्ध की तैयारी) एवं विग्रह (कूटनीतिक युद्ध)। युद्धभूमि में लड़ाई अंतिम स्थिति है जिसका निर्णय अपनी और शत्रु की शक्ति को तौलकर ही करनी चाहिए। देशहित में संधि तोड़ देना भी विदेश नीति का हिस्सा होता है।
 
-शत्रु को कभी भी कमजोर मत समझो। शत्रु चाहे कैसा भी और कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, पर उसे अपने विवेक का इस्तेमाल करके हराया जा सकता है। शत्रु के मित्र को अपना मित्र बना लो ताकि वो आपको हानि न पहुंचा पाए और उसके शत्रु को भी अपना मित्र बना लो ताकि हमारे किए हुए वार की ताकत दोगुनी हो जाए।
 
-अपनी नीति तो अपनाओ, लेकिन शत्रु की युद्ध नीति को समझना भी उतना ही जरूरी है। युद्ध में अपने शत्रु की तरह सोचना भी जरूरी है। जो भी नीति हो, उसे गुप्त रखो। उसे सिर्फ अपने कुछ विश्वासपात्र सहयोगियों को बताओ। अच्छे के लिए सोचो, लेकिन बुरे से बुरे के लिए भी तैयार रहो।
 
 
-शत्रु को जहां से भी आर्थिक, सामाजिक, मानसिक एवं शारीरिक शक्ति प्राप्त हो रही है, उस स्रोत को शत्रु तक पहुंचने से पहले ही मिटा दो। सही समय का इंतजार करो। जब शत्रु पूरी तरह से कमजोर हो तब उस पर (उसके शत्रु, जो कि अब आपका मित्र है) मिलकर आक्रमण कर दो। इस तरह के हमले के बाद शत्रु पूरी तरह से अचंभित हो जाएगा और आपसे बदला लेने में भी सक्षम नहीं होगा।
 
 
-12 प्रकार के राजाओं के घेरे को राज प्रकृति का नाम दिया गया है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक राजा के अपने घेरे होते हैं। हर घेरे में 5 तत्व की मान्यता है- अमात्य (मंत्री), जनपद (देश), दुर्ग (किला) और कोश (खजाना)। प्रत्येक राजा के 5 तत्वों को मिलाकर कुल 60 तत्व होते हैं जिसे द्रव्य प्रकृति का नाम दिया गया है। 12 राजा और 60 तत्वों को मिलाकर कुल 72 तत्व बनते हैं, जो मंडल (राजाओं के घेरे) को पूरा करते हैं। विजिगीषु को युद्ध या शांति का निर्णय अपनी और शत्रु की ताकत का सही अंदाज लेकर करना चाहिए। यदि युद्ध से लाभ नजर नहीं आता तो शांति लाभदायक है। अपने दुश्मन से अधिक ताकतवर राजा के साथ संधि लाभप्रद होती है। इसके लिए ताकतवर राजा से अच्छे संबंध रखने के लिए हरसंभव प्रयत्न करना चाहिए।
 
 
-विजिगीषु (विजय की आकांक्षा रखने वाला) के शत्रु 2 प्रकार के होते हैं। एक तो स्वाभाविक शत्रु होता है, जो बराबर का ताकतवर है और जिसकी सीमाएं देश से लगी हुई हैं। दूसरा काल्पनिक शत्रु है, जो इतना ताकतवर नहीं है कि युद्ध करके जीत जाए किंतु दुश्मनी का भाव रखता है। शत्रुओं से मित्रता की कोशिश करता है। कुछ राजाओं से मित्रता विशेष कारणों से की जा सकती है जिससे अपने देश का लाभ हो या व्यापार और सैन्य शक्ति बढ़ाने में कुछ पड़ोसी राज्य ऐसे भी हो सकते हैं जिनके सर पर शत्रुओं की तलवार लटकती रहती है। जो कमजोर हैं, उन्हें वसल की संज्ञा दी गई है।
 
 
इस तरह हमने देखा की चाणक्य के युद्ध, सैन्य और कूटनीति के क्या विचार थे। हालांकि यह बहुत ही संक्षिप्त में यहां लिखा गया है। इसके विस्तार में जाने से और भी कई तरह के रहस्य खुलते हैं। आज भी चाणक्य की नीति प्रासंगिक है। विडंबना ही है कि चाणक्य की नीति का उपयोग शत्रुदेश कर रहे हैं और चाणक्य के देशवासी नहीं।
 

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