देवताओं को छोड़कर इनकी पूजा है 'निषेध'

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्‌॥- (गीता अध्याय 9 श्लोक 25)


भावार्थ : देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा (परमेश्वर का) पूजन करने वाले भक्त मुझको (परमेश्वर को) ही प्राप्त होते हैं इसीलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता॥

आजकल बहुत से लोग सड़क किनारे के पाल्या महाराज को पूजने लगे हैं। कई तो अपने गुरु की पूजा करते हैं और बहुत सी जगहों पर रावण की पूजा भी होती है। इसके अलावा सिद्ध, चारण, पिशाच, पितर, ग्रह-नक्षत्र, पीर-फकीर, सिद्ध बाबा, कब्र-समाधि आदि को तो लोग पूजते ही हैं साथ ही अब तो फिल्म स्टारों के मंदिर भी बनने लगे हैं। बहुत से ऐसे तांत्रिक हैं जो पिशाच कर्म करते हैं। ऐसे लोगों के लिए मौत के बाद जो सजा मिलेगी उसका वेद और गरूढ़ पुराण में उल्लेख मिलता है।

हिन्दू धर्म में प्रकृति और समाधि की पूजा वर्जित

हिन्दू धर्म में वेद के अनुसार ब्रह्म (ईश्‍वर) ही सत्य है। उस एक ईश्‍वर को छोड़कर किसी अन्य की पूजा-प्रार्थना नहीं की जा सकती। मूर्ति पूजा भी वेदों के अनुसार निषेध है। इसके बावजूद वेदों में 33 देवता और उनके गणों और गुणों के बारे में कहा गया है जिनका आह्वान करने पर वे मनुष्यों के दुख-दर्द दूर करते हैं। वेदों में इन देवताओं से बढ़कर सर्वोच्च सत्ता ईश्वर को माना है और देवताओं को ईश्वर का प्रतिनिधि। ईश्वर के देवताओं के प्रति नमस्कार व्यक्त करने में कोई बुराई नहीं।

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥ -(गीता अध्याय 8 श्लोक 16)

भावार्थ : हे अर्जुन! ब्रह्मलोकपर्यंत सब लोक पुनरावर्ती हैं, परंतु हे कुंतीपुत्र! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता, क्योंकि मैं कालातीत हूं और ये सब ब्रह्मादि के लोक काल द्वारा सीमित होने से अनित्य हैं॥

इनकी पूजा है निषेध : हालांकि संपूर्ण भारत में ऐसे कई समाज या समूह हैं, जो वेद विरुद्ध शक्तियों को पूजते हैं, जैसे नाग, यक्ष, गंधर्व, भूत, पितर, पिशाच, पितृ, वीर आदि कई ऐसी शक्तियां हैं जिनका संबंध तांत्रिकों, साधकों या अज्ञान में जी रही जनता से है। इसके अलावा भी स्थानीय संस्कृति की परंपरा आदि के चलते कई झूठे देवी और देवताओं को पूजने का प्रचलन भी मध्यकाल में बढ़ा है जिनका वेदों में कोई उल्लेख नहीं है। वर्तमान में भी बहुत से लोगों ने झूठे मंदिर और देवता बनाकर हिन्दू धर्म की प्रतिष्ठा को गिराया है।

भूतान्प्रेत गणान्श्चादि यजन्ति तामसा जना।
तमेव शरणं गच्छ सर्व भावेन भारतः-गीता।। 17:4, 18:62
अर्थात : भूत प्रेतों की उपासना तामसी लोग करते हैं। हे भारत तुम हरेक प्रकार से ईश्वर की शरण में जाओ।

निषेध हैं रात्रि के कर्म : वेद के अनुसार रात्रि में सभी तरह के कर्मकांड, संस्कार, भोजन, नाच-गाना आदि कर्म करने वाले लोग निशाचर, दैत्य, राक्षस, भूत आदि के धर्म-कर्म वाले होते हैं। ऐसे लोग मरने के बाद उन्हीं के लोक में पहुंचकर उन्हीं के जैसे हो जाते हैं। जो देवताओं को पूजते हैं वे देवलोक में जाते हैं। जो उनको छोड़कर किसी अन्य शक्तियों को पूजते हैं वे दुर्गति को प्राप्त होते हैं। लेकिन जो उस एक परमेश्वर का ध्यान करते हैं, वे जीवन-मरण के चक्र से छूटकर परमानंद की प्राप्ति करते हैं।

इनकी पूजा है निषेध : 7वें मनु वैवस्वत के मन्वं‍तर के प्रारंभिक काल में जब धरती पर देवता रहते थे तब उस काल में देवता और देवगण के अलावा दैत्य, दानव, विद्याधर, यक्ष, रक्ष, गंधर्व, अप्सरा, किन्नर, सिद्ध, निशाचर, चारण, वीर, वानर, रीझ, भल्ल, किरात, गुह्यक, कुलदेव, स्थानदेव, ग्राम देवता, पितर, भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्मांडा, ब्रह्मराक्षस, वैताल और क्षेत्रपाल आदि भी रहते थे। ये सभी आज भी सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं। आओ जानते हैं इन अदेवों के बारे में... जिनकी पूजा निषेध है...

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निम्न में से यक्ष, नाग, गंधर्व, पितर, विद्याधर और सिद्ध देवताओं के समर्थक हैं। दैत्य, दानव, राक्षस, पिशाच आदि देवों के विरुद्ध कर्म के हैं।

सि‍द्ध : जिस व्यक्ति में सिद्धियां प्राप्त हों। हिन्दू और बौद्ध धर्म में 84 सिद्धों का वर्णन मिलता है। सिद्धों का स्थान पूर्वी भारत माना जाता है। बिहार, बंगाल, ओडिशा, असम आदि क्षेत्र सिद्ध साधकों के प्रभाव वाले माने जाते हैं। इनके गढ़ तत्कालीन शिक्षा के केंद्र के रूप में विख्यात नालंदा के आसपास के क्षेत्र थे। सिद्ध लोग योग और तप का आश्रय लेकर अपने स्थूल शरीर का ही सूक्ष्मीकरण कर लेते हैं। सिद्ध पुरुषों की अनुकंपा, सहायता प्राप्त करने के लिए कितने ही लोग लालायित फिरते हैं, लेकिन वे देवता नहीं होते।

पितर : अग्रिष्वात्त, बर्हिषद, आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नांदीमुख ये 9 दिव्य पितर बताए गए हैं। पुराण के अनुसार दिव्य पितरों के अधिपति अर्यमा का उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र निवास लोक है।

यक्ष : 'यक्ष' का शाब्दिक अर्थ होता है 'जादू की शक्ति'। यक्ष और यक्षिणियों की साधना के बारे में कई ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। 1. सुर सुन्दरी यक्षिणी, 2. मनोहारिणी यक्षिणी, 3. कनकावती यक्षिणी, 4. कामेश्वरी यक्षिणी, 5. रतिप्रिया यक्षिणी, 6. पद्मिनी यक्षिणी, 7. नटी यक्षिणी और 8. अनुरागिणी यक्षिणी। यक्ष गंधर्व सुरक्षित सेना की तरह हैं। उन्हें कार्य में तभी जुटना पड़ता है, जब कहीं महत्वपूर्ण कार्य अड़ता है। इन्हें दिक्पाल या दिग्गज के नाम से भी जाना जाता है। अंतरग्रही विपत्तियों से वे पृथ्वी को बचाते हैं।

नाग : कद्रू के पुत्र नाग कहलाए। नाग थे- अनंत (शेष), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक। ये सभी नाग कश्मीर के अनंतनाग क्षेत्र और उसके आसपास रहते थे। हालांकि नागों को देवताओं का सहयोगी माना गया है, लेकिन इनको पूजने वाले लोगों की संख्या भी अधिक है। ऊपर हम गीता का श्लोक लिख आए हैं।

विद्याधर : हिन्दू मान्यता के अनुसार विद्याधर हिमालय में रहने वाले उपदेव हैं। वे शिव के सहचर हैं। उनके पास चमत्कारिक शक्ति होती है। बौद्ध धर्म में भी विद्याधरों का उल्लेख मिलता है। शिव के हजारों गण हैं। गण नहीं, शिव की ही पूजा धर्मसम्मत है।

गंधर्व : कश्यप की पत्नी अरिष्ठा के गर्भ से गंधर्वों की उत्पत्ति हुई। बहुत से लोग गंधर्वों की पूजा और साधना करते हैं। गंधर्व नाम से एक वेद भी है। गंधर्वों का अपना लोक है। पौराणिक साहित्य में गंधर्वों का एक देवोपम जाति के रूप में उल्लेख हुआ है। गंधर्वों का प्रधान चित्ररथ था और उनकी पत्नियां अप्सराएं हैं। अथर्ववेद में गंधर्वों की गणना देवजन, पृथग्देव और पितरों के साथ की गई है।

किन्नर : कश्यप और अरिष्टा से ही किन्नरों की भी उत्पत्ति हुई। हिमालय का पवित्र शिखर कैलाश किन्नरों का प्रधान निवास स्थान था, जहां वे शंकर की सेवा किया करते थे। उन्हें देवताओं का गायक और भक्त समझा जाता है और यह विश्वास है कि यक्षों और गंधर्वों की तरह वे नृत्य और गान में प्रवीण होते थे। उनके सैकड़ों गण थे और चित्ररथ उनका प्रधान अधिपति था। शतपथ ब्राह्मण में अश्वमुखी मानव शरीर वाले किन्नर का उल्लेख है। बौद्ध साहित्य में किन्नर की कल्पना मानवमुखी पक्षी के रूप में की गई है। मानसार में किन्नर के गरूड़मुखी, मानव शरीरी और पशुपदी रूप का वर्णन है। इनके वंशज वर्तमान जनजातीय जिला किन्नौर के निवासी माने जाते हैं। आजकल हिजड़ों के लिए भी 'किन्नर' शब्द का इस्तेमाल किया जाता है।

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दैत्य : दैत्यों को असुर भी कहा गया है। दिति के दो प्रमुख पुत्र हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष थे। हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रहलाद और संहल्लाद। प्रहलाद के कुल में विरोचन के पुत्र राजा बालि हुए। हिरण्यकश्यप के लिए नृसिंह, हिरण्याक्ष के लिए वराह और राजा बालि के लिए विष्णु को वामन अवतार लेना पड़ा। त्रिपुरासुर, मयासुर, महिषासुर, गयासुर, मधु, कैटभ आदि असुरों की कथाएं पुराणों में मिलती हैं।

दानव : दनु के दानव पुत्रों के नाम इस प्रकार हैं- विप्रचित्ति, शंबर, नमुचि, पुलोमा, असिलोमा, केशी, दुर्जय, अय:शिरा, अश्वशिरा, अश्वशंकु, गगनमूर्द्धा, स्वर्भानु, अश्व, अश्वपति, वृषपर्वा, अजक, अश्वग्रीव, सूक्ष्म, तुहुंड, एकपद, एकचक्र, विरुपाक्ष, महोदर, निचंद्र, निकुंभ, कुजट, कपट, शरम, शलभ, सूर्य, चंद्र, एकाक्ष, अमृतप, प्रलंब, नरक, वातापि, शठ, गविष्ठ, बनायु, दीर्घजिह्व, द्विमुर्धा, अरिष्ट, हयग्रीव, विभावसु, अरुण, अनुतापन, धूम्रकेश, दुर्जय, अयोमुख, शंकुशिरा, कपिल, शंकर, एकचक्र, महाबाहु, तारक, महाबल, स्वर्भानु, वृषपर्वा, महाबली पुलोम और विप्रचिति आदि 61 महान पुत्रों की प्राप्ति हुई।

'वायुपुराण' के अनुसार दनु के कश्यप से 100 पुत्र हुए थे और इन्होंने धरती के आधे हिस्से पर अपना साम्राज्य स्थापित कर दिया था।

राक्षस : यातुधान, हेति और प्रहेति। विद्युत्केश, सुकेश, माल्यवान, सुमाली, माली। माल्यवान के वज्र, मुष्टि, धिरूपार्श्व, दुर्मख, सप्तवहन, यज्ञकोप, मत्त, उन्मत्त नामक पुत्र और अनला नामक कन्या हुई। सुमाली के प्रहस्त, अकंपन, विकट, कालिकामुख, धूम्राश, दंड, सुपार्श्व, सहादि, प्रधस, भास्कण नामक पुत्र तथा रांका, पुण्डपोत्कटा, कैकसी, कुभीनशी नामक पुत्रियां हुईं। माली के अनल, अनिल, हर और संपात्ति नामक 4 पुत्र हुए। इसके बाद रावण, विभीषण, कुंभकर्ण, मेघनाद आदि हुए।

पिशाच और पिशाचिनियां : भारत के पश्‍चिमोत्तर सीमांत पर रहने वाली जातियों को पिशाच माना जाता था। महाभारत में इन्हें दरद देश का निवासी माना है। पिशाच देश के योद्धा महाभारत के युद्ध में पांडवों की ओर से लड़े थे। यह क्षेत्र उत्तरी कश्मीर (गिलगित और यासीन का क्षेत्र) और दक्षिणी रूस के सीमांत पर स्थित है। हालांकि इसी नाम से पिशाच और पिशाचिनियां भी होती हैं जिनकी साधनाओं का भी प्रचलन है। कर्ण पिशाचिनी, काम पिशाचिनी आदि का उल्लेख मिलता है। इसके अलावा सिंहासन बत्तीसी में जो पुतलियां थीं वे सभी पिशाचिनी ही थीं। इन्हें मनुष्य से इतर योनियों का माना जाता है।

आधुनिक पशाई कश्मीरी लोग संभवत: इन्हीं के वंशज हैं। इन लोगों में कच्चे मांस के भक्षण करने की प्रथा थी जिसके चलते इन्हें बुरा माना गया। वेदों के अनुसार दैत्य और दानवों का विकृत रूप पिशाच हैं। राक्षसों और मनुष्यों के साथ और पितरों के विरोधी पिशाच को वैताल और प्रेतभक्षक से संबंधित भी किया जाता है।

ब्रह्मपुराण के अनुसार पिशाच लोगों को गंधर्व, गुह्मक और राक्षसों के समान ही 'देवयोनिविशेष' कहा गया है। सामर्थ्य की दृष्टि से इन्हें इस क्रम में रखा गया है- गंधर्व, गुह्मक, राक्षस एवं पिशाच। ये चारों लोग विभिन्न प्रकार से मनुष्य जाति को पीड़ा देते हैं। इनकी पूजा करने वाला इनके ही जैसा हो जाता है।

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बीर : बीरों के विषय में सर्वप्रथम पृथ्वीराज रासो में उल्लेख है। वहां इनकी संख्या बावन (52) बताई गई है। इन्हें भैरवी के अनुयायी या भैरव का गण कहा गया है। संभवत: इस काल के पूर्व इनकी पूजा या साधना नहीं होती थी। इसका प्रचलन मध्यकाल में ही शुरू हुआ माना जा सकता है।

चारण : चारण नाम से एक जाट जाति भी है। विद्वानों की मान्यता है कि भाट लोग भी चारणों की भांति प्राचीन हैं। इन चारणों ने सुमेर छोड़कर आर्यावर्त के हिमालय प्रदेश को अपना तप क्षेत्र बनाया था। इस प्रसंग में उनकी भेंट अनेक देवताओं और महापुरुषों से हुई। पुराणों के अनुसार चारणों की उत्पत्ति देवी कही गई है। ये पहले मृत्युलोक के पुरुष न होकर स्वर्ग के देवताओं में से थे। ब्रह्मा ने चारणों का कार्य देवताओं की स्तुति करना निर्धारित किया। मत्स्य पुराण (249.35) में चारणों का उल्लेख स्तुति वाचकों के रूप में है।

गुह्मक : गुह्मक का अर्थ गुप्त विद्याओं का ज्ञाता। तांत्रिक लोग गुह्मकों की साधना करते हैं। जैन और बौद्ध धर्म में गुह्मकों का उल्लेख विस्तार से मिलता है।
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