श्रावण मास में व्रत रखना क्यों जरूरी?

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हिन्दुओं के 10 प्रमुख कर्तव्य है:- संध्योपासन, व्रत-उपवास(श्रावण, एकादशी, प्रदोष, पूर्णिमा और अमावस्या), तीर्थ (चारधाम और सप्तपुरी), दान, उत्सव-त्योहार (संक्रांति, जन्माष्टमी, रामनवमी, नवरात्रि, शिवरात्रि और कुंभ), यज्ञ (पंच यज्ञ), 16 संस्कार, सेवा (गरीब, वृद्ध, अपंग, अनाथ, विधवा महिला आदि की सेवा) , वेदपाठ और धर्म प्रचार। उक्त में से व्रत की बात करें तो यहां श्रावण मास में व्रत रखना सबसे श्रेष्ठ माना गया है। यह पाप को मिटाने वाला और मनोकामना की पूर्ति करने वाला माह है।

जिस तरह गुड फ्राइडे के पहले ईसाइयों में 40 दिन के उपवास चलते हैं और जिस तरह इस्लाम में रमजान माह में रोजे (उपवास) रखे जाते हैं उसी तरह हिन्दू धर्म में श्रावण मास को पवित्र और व्रत रखने वाला माह माना गया है। सिर्फ सोमवार ही नहीं पूरे श्रावण माह में निराहारी या फलाहारी रहने की हिदायत दी गई है। इस माह में शास्त्र अनुसार ही व्रतों का पालन करना चाहिए। मन से या मनमानों व्रतों से दूर रहना चाहिए।
 
श्रावण व्रत : व्रत ही तप है। यह उपवास भी है। हालांकि दोनों में थोड़ा फर्क है। व्रत में मानसिक विकारों को हटाजा जाता है तो उपवास में शारीरिक। इन व्रतों या उपवासों को कैसे और कब किया जाए, इसका अलग नियम है। नियम से हटकर जो मनमाने व्रत या उपवास करते हैं उनका कोई धार्मिक महत्व नहीं। व्रत से जीवन में किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं रहता। व्रत से ही मोक्ष प्राप्त किया जाता है। श्रावण माह को व्रत के लिए नियुक्त किया गया है। श्रावण मास में उपाकर्म व्रत का महत्व ज्यादा है। इसे श्रावणी भी कहते हैं।

श्रावण मास से हिन्दुओं के व्रतों के चार माह अर्थात चतुर्मास की शुरुआत होती है। श्रावण माह में व्रत रखना जरूरी है। यह हिन्दुओं का सबसे पवित्र माह है। इस माह में प्रत्येक हिन्दु का कर्तव्य है कि वह व्रत रखें और नियमों का पालन करें। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह जीवन में संकटों से घिरा रहेगा और यह भी माना जाएगा कि उसे हिन्दू धर्म की परवाह नहीं। यदि वह गंभीर रोग से ग्रस्त है, कमजोर है या किसी विशेष यात्रा पर है तब ऐसे में व्रत नहीं रखना क्षमा योग्य है।
 
अगले पन्ने पर जानिए व्रत का अर्थ और व्रत के प्रकार..

संकल्पपूर्वक किए गए कर्म को व्रत कहते हैं। किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दिनभर के लिए अन्न या जल या अन्य तरह के भोजन या इन सबका त्याग व्रत कहलाता है। व्रत धर्म का साधन माना गया है। उपवास का अर्थ होता है ऊपर वाले का मन में निवास। उपवास को व्रत का अंग भी माना गया है।
व्रत के तीन प्रकार- 1.नित्य, 2.नैमित्तिक और 3.काम्य। 
 
1.नित्य व्रत उसे कहते हैं जिसमें ईश्वर भक्ति या आचरणों पर बल दिया जाता है, जैसे सत्य बोलना, पवित्र रहना, इंद्रियों का निग्रह करना, क्रोध न करना, अश्लील भाषण न करना और परनिंदा न करना, प्रतिदिन ईश्वर भक्ति का संकल्प लेना आदि नित्य व्रत हैं। इनका पालन नहीं करते से मानव दोषी माना जाता है।
 
2.नैमिक्तिक व्रत उसे कहते हैं जिसमें किसी प्रकार के पाप हो जाने या दुखों से छुटकारा पाने का विधान होता है। अन्य किसी प्रकार के निमित्त के उपस्थित होने पर चांद्रायण प्रभृति, तिथि विशेष में जो ऐसे व्रत किए जाते हैं वे नैमिक्तिक व्रत हैं।
 
3.काम्य व्रत किसी कामना की पूर्ति के लिए किए जाते हैं, जैसे पुत्र प्राप्ति के लिए, धन- समृद्धि के लिए या अन्य सुखों की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले व्रत काम्य व्रत हैं।
 
अगले पन्ने पर व्रत में क्या खाएं और क्या नहीं...
 

* सिर्फ एक वक्त फलाहार या ज्यूस लें।
 
* ये खाएं : दूध, घी, फल, फलों का ज्यूस और सूखे मेवे।
 
* ये न खाएं : मांस, अंडे, फली के दाने, आलू से बने पदार्थ, खट्टे और तले हुए, नमकीन व ठंडे पदार्थ। उपवास के नाम पर फरियाली पकवान खाना...! जैसे- खिचड़ी, पोटॅटो चिप्स, फरियाली मिक्चर, साबूदाना बड़े, मूँगफली के नमकीन दाने आदि दिन भर खाते रहने से लाभ के बजाय हानि ही होती है।
 
* ये नियम पालें : व्रत के दौरान सेक्स, यात्रा, क्रोध, भरपूर दृश्यों और वार्तालाप से परहेज रखें। लड़ाई-झगड़े या अपशब्द कहने आदि से भी परहेज करें। नियम से संध्या वंदन करें। 
 
* सुंदरता के लिए नियत मात्रा में पंचगव्य यानि गाय के दूध, दही आदि पांच पदार्थों से बने खाद्य का सेवन करना चाहिए। वंश वृद्धि के लिए नियमित दूध का सेवन, बुरे कर्म फल से मुक्ति के लिए कठोर उपवास करने का व्रत लिया जाता है। बहुत से लोग इस दौरान मात्र प्रात:काल ही भोजन करते हैं, लेकिन कुछ लोग पूरे माह भोजन नहीं करते। भोजन नहीं करना ही कठोर व्रत है।
 
अगले पन्ने पर इसमें से कोई एक उपवास करें..
 

उपवास के प्रकार- 1.प्रात: उपवास, 2.अद्धोपवास, 3.एकाहारोपवास, 4.रसोपवास, 5.फलोपवास, 6.दुग्धोपवास, 7.तक्रोपवास, 8.पूर्णोपवास, 9.साप्ताहिक उपवास, 10.लघु उपवास, 11.कठोर उपवास, 12.टूटे उपवास, 13.दीर्घ उपवास।
 
1.प्रात: उपवास- इस उपवास में सिर्फ सुबह का नाश्ता नहीं करना होता है और पूरे दिन और रात में सिर्फ 2 बार ही भोजन करना होता है।
 
2.अद्धोपवास- इस उपवास को शाम का उपवास भी कहा जाता है और इस उपवास में सिर्फ पूरे दिन में एक ही बार भोजन करना होता है। इस उपवास के दौरान रात का भोजन नहीं खाया जाता।
 
3.एकाहारोपवास- एकाहारोपवास में एक समय के भोजन में सिर्फ एक ही चीज खाई जाती है, जैसे सुबह के समय अगर रोटी खाई जाए तो शाम को सिर्फ सब्जी खाई जाती है। दूसरे दिन सुबह को एक तरह का कोई फल और शाम को सिर्फ दूध आदि।
 
4.रसोपवास- इस उपवास में अन्न तथा फल जैसे ज्यादा भारी पदार्थ नहीं खाए जाते, सिर्फ रसदार फलों के रस अथवा साग-सब्जियों के जूस पर ही रहा जाता है। दूध पीना भी मना होता है, क्योंकि दूध की गणना भी ठोस पदार्थों में की जा सकती है।
 
5.फलोपवास- कुछ दिनों तक सिर्फ रसदार फलों या भाजी आदि पर रहना फलोपवास कहलाता है। अगर फल बिलकुल ही अनुकूल न पड़ते हो तो सिर्फ पकी हुई साग-सब्जियां खानी चाहिए।
 
6.दुग्धोपवास- दुग्धोपवास को 'दुग्ध कल्प' के नाम से भी जाना जाता है। इस उपवास में सिर्फ कुछ दिनों तक दिन में 4-5 बार सिर्फ दूध ही पीना होता है।
 
7.तक्रोपवास- तक्रोपवास को 'मठाकल्प' भी कहा जाता है। इस उपवास में जो मठा लिया जाए, उसमें घी कम होना चाहिए और वो खट्टा भी कम ही होना चाहिए। इस उपवास को कम से कम 2 महीने तक आराम से किया जा सकता है।
 
8.पूर्णोपवास- बिलकुल साफ-सुथरे ताजे पानी के अलावा किसी और चीज को बिलकुल न खाना पूर्णोपवास कहलाता है। इस उपवास में उपवास से संबंधित बहुत सारे नियमों का पालन करना होता है।
 
9.साप्ताहिक उपवास- पूरे सप्ताह में सिर्फ एक पूर्णोपवास नियम से करना साप्ताहिक उपवास कहलाता है।
 
10.लघु उपवास- 3 से लेकर 7 दिनों तक के पूर्णोपवास को लघु उपवास कहते हैं।
 
11.कठोर उपवास- जिन लोगों को बहुत भयानक रोग होते हैं यह उपवास उनके लिए बहुत लाभकारी होता है। इस उपवास में पूर्णोपवास के सारे नियमों को सख्ती से निभाना पड़ता है।
 
12.टूटे उपवास- इस उपवास में 2 से 7 दिनों तक पूर्णोपवास करने के बाद कुछ दिनों तक हल्के प्राकृतिक भोजन पर रहकर दोबारा उतने ही दिनों का उपवास करना होता है। उपवास रखने का और हल्का भोजन करने का यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक कि इस उपवास को करने का मकसद पूरा न हो जाए।
 
13.दीर्घ उपवास- दीर्घ उपवास में पूर्णोपवास बहुत दिनों तक करना होता है जिसके लिए कोई निश्चित समय पहले से ही निर्धारित नहीं होता। इसमें 21 से लेकर 50-60 दिन भी लग सकते हैं। अक्सर यह उपवास तभी तोड़ा जाता है, जब स्वाभाविक भूख लगने लगती है अथवा शरीर के सारे जहरीले पदार्थ पचने के बाद जब शरीर के जरूरी अवयवों के पचने की नौबत आ जाने की संभावना हो जाती है।
 
अगले पन्ने पर उपवास की सावधानी और लाभ...
 
 

*सावधानी : उक्त सभी उपवास का लक्ष्य शरीर के अलग-अलग भागों में इकट्ठे हुए जहरीले पदार्थों को बाहर निकालकर मन और शरीर को मजबूत करने से है। कुछ लोग उपवास किसी सिद्धि को प्राप्त करने के लिए करते हैं तो कुछ लोग कठित तप, साधना और मोक्ष के लिए करते हैं।
प्रत्येक उपवास अलग-अलग मकसद के लिए किया जाता है और सभी के लाभ भी अलग-अलग होते हैं। आम जनता को उपवास के महत्व और मकसद को समझकर ही उपवास करना चाहिए। बिना तैयारी किए तथा बिना उपवास के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त किए उक्त उपवास नहीं करना चाहिए।
 
*उपवास का लाभ : किसी भी प्रकार का गंभीर रोग इस उपवास से समाप्त किया जा सकता है। शरीर सहित मन और मस्तिष्क को हमेशा संतुलित और स्वस्थ बनाए रखा जा सकता है। इससे व्यक्ति की आयु बढ़ती है तथा व्यक्ति जीतेंद्रिय कहलाता है।
 
अगले पन्ने पर क्यों है श्रावण मास की विशेषता...
 

क्यों है सावन की विशेषता?:- हिन्दू धर्म की पौराणिक मान्यता के अनुसार सावन महीने को देवों के देव महादेव भगवान शंकर का महीना माना जाता है। इस संबंध में पौराणिक कथा है कि जब सनत कुमारों ने महादेव से उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो महादेव भगवान शिव ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। 
अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और उन्हें प्रसन्न कर विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव के लिए यह विशेष हो गया। 
 
अगले पन्ने पर अंत में जानिए क्या है श्रावणी उपाकर्म...
 

श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है- प्रायश्चित संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। पूरे माह किसी नदी के किनारे किसी गुरु के सानिध्य में रहकर श्रावणी उपाकर्म करना चाहिए। 
प्रायश्चित- प्रायश्चित रूप में नदी किनारे गाय के दूध, दही, घी, गोबर, गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित करना चाहिए।
 
संस्कार : प्रायश्चित करने के बाद यज्ञोपवीत या जनेऊ धारण कर आत्म संयम का संस्कार करना चाहिए है। इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है और द्विज कहलाता है।
 
स्वाध्याय : इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घी की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है।
 
श्रावण माह में श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को श्रावणी उपाकर्म प्रत्येक हिन्दू के लिए जरूर बताया गया है। इसमें दसविधि स्नान करने से आत्मशुद्धि होती है व पितरों के तर्पण से उन्हें भी तृप्ति होती है। श्रावणी पर्व वैदिक काल से शरीर, मन और इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व माना जाता है।

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