श्रावण पूर्णिमा के दिन क्यों करते हैं श्रावणी उपाकर्म, जानिए

अनिरुद्ध जोशी
शुक्रवार, 31 जुलाई 2020 (11:16 IST)
इस बार श्रावण मास की पूर्णिमा को सोमवार है और रक्षा बंधन के त्योहार के साथ ही श्रावणी उपाकर्म, पितृ तर्पण और ऋषि तर्पण करने का महत्व भी है। आओ जानते हैं श्रावणी उपाकर्म क्या है और क्या है इसका महत्व।
 
 
श्रावणी उपाकर्म : प्राचीनकाल में श्रावणी उपाकर्म का ज्यादा महत्व था जबकि बालकों को गुरुकुल भेजा जाता था। उन्हें द्विज बनाया जाता था और उनमें वैदिक संस्कार डाले जाते थे। हालांकि वर्तमान में यह सब नहीं होता बस यज्ञोपतिव संस्कार और तर्पण ही अब रह गया है। जो वैदिक या वेदपाठी ब्राह्मण है वे यह कर्म करते हैं या जिन्हें ब्राह्मण बनना हो वे भी ये कर्म करते हैं। श्रावण पूर्णिमा के दिन यदि ग्रहण या संक्रांति हो तो श्रावणी उपाकर्म श्रावण शुक्ल पंचमी को करना चाहिए।
 
 
क्या होता है श्रावणी उपाकर्म में : दसविधि स्नान कर मनाया जाता है श्रावणी पर्व। इसमें पितरों तथा आत्मकल्याण के लिए मंत्रों के साथ हवन यज्ञ में आहुतियां दी जाती है। इस महत्वपूर्ण दिन पितृ-तर्पण और ऋषि-पूजन या ऋषि तर्पण भी किया जाता है। ऐसा करने से पितरों का आशीर्वाद और सहयोग मिलता है जिससे जीवन के हर संकट समाप्त हो जाते हैं।
 
 
श्रावणी उपाकर्म उत्सव में वैदिक विधि से हेमादिप्राक्त, प्रायश्चित संकल्प, सूर्याराधन, दसविधि स्नान, तर्पण, सूर्योपस्थान, यज्ञोपवीत धारण, प्राणायाम, अग्निहोत्र व ऋषि पूजन किया जाता है। शास्त्रों में श्रावणी को द्विज जाति का अधिकार व कर्तव्य बताया और कहा कि वेदपाठी ब्राह्मणों को तो इस कर्म को किसी भी स्थिति में नहीं त्यागना चाहिए।
 
 
श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है :– प्रायश्चित्त संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। 

 
1. प्रायश्चित्त संकल्प : इसमें हेमाद्रि स्नान संकल्प। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गोदुग्ध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित्त कर जीवन को सकारात्मकता दिशा देते हैं। स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन करने के विधान है।

 
2. संस्कार : उपरोक्त कार्य के बाद नवीन यज्ञोपवीत या जनेऊ धारण करना अर्थात आत्म संयम का संस्कार होना माना जाता है। इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है। 

 
3. स्वाध्याय : उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घृत की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती है।

 
वर्तमान समय में वैदिक शिक्षा या गुरुकुल नहीं रहे हैं तो प्रतीक रूप में यह स्वाध्याय किया जाता है। हालांकि जो बच्चे वेद, संस्कृत आदि के अध्ययन का चयन करते हैं वहां यह सभी विधिवत रूप से होता है। उपरोक्त संपूर्ण प्रक्रिया जीवन शोधन की एक अति महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक-आध्यात्मिक प्रक्रिया है।

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