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क्या होगा पितृपक्ष में श्राद्ध कर्म करने से?

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अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

।।ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः।...ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।। 
भावार्थ : पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देव हैं। अर्यमा को प्रणाम। हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें।
 
 
दुनिया के हर धर्म में श्राद्ध कर्म होता है जो हिन्दू धर्म से ग्रहण किया गया है। हिन्दू धर्म में दो तरह की विचारधारा है एक वैदिक और दूसरी पौराणिक। वैदिक विचारधारा के लोग श्राद्धकर्म करने को सही नहीं मानते। उनकी दृष्टि में ब्रह्म ही सत्य है। दरअसल, वेदानुसार यज्ञ 5 प्रकार के होते हैं- ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ। उक्त 5 यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। उक्त 5 यज्ञ में से ही एक यज्ञ है पितृयज्ञ।
 
सवाल यह उठता है कि क्या होगा श्राद्ध कर्म करने से? हम क्यों करें श्राद्ध?
टिप्पणी : निश्‍चित ही ईश्वर से बढ़कर कोई दूसरा नहीं होता। ईश्वर के बाद देवी और देवताओं का नंबर आता है और फिर पितरों का। एकेश्वरवाद पर जोर देने वाले वैदिक लोग इसे ढकोसला मानते हैं। लेकिन यदि आपके मन में अपने परिजनों के प्रति जरा भी संवेदना है तो आपको यह करना चाहिए, क्योंकि आप श्राद्ध करने के पीछे का विज्ञान नहीं जानते। भले ही इसे विज्ञान न कहें लेकिन जरा गंभीरता से सोचेंगे तो पता चलेगा कि आप भी मरने के बाद जिंदा ही रहेंगे। तब आपको मरने के बाद ज्यादा भूख और प्यास लगेगी और आप भी खुद को अकेला महसूस करेंगे। जैस यदि आप भूखे या प्यासे ही सो जाते हैं तो सपने में आप पानी कितना ही पी लें लेकिन तृप्ति नहीं होती, यदि आपको नींद में पेशाब आ रही है तो आपको बाथरूप का सपना आएगा और आप करने के बाद भी संतु‍ष्ट नहीं होंगे।...मनुष्य जब मर जाता है तो उसकी अवस्था भी सपने देखने जैसी हो जाती है। हमारा सूक्ष्म शरीर ही सपने देखता है।
 
सवाल का उत्तर : वेद और पुराण मान्यता अनुसार अन्न से शरीर तृप्त होता है। अग्नि को दान किए गए अन्न से सूक्ष्म शरीर (आत्मा का शरीर) और मन तृप्त होता है। इसी अग्निहोत्र से आकाश मंडल के समस्त पक्षी भी तृप्त होते हैं। तर्पण, पिंडदान और धूप देने से आत्मा की तृप्ति होती है। तृप्त आत्माएं ही प्रेत नहीं बनतीं।
 
ये क्रिया-कर्म ही आत्मा को पितृलोक तक पहुंचने की ताकत देते हैं और वहां पहुंचकर आत्मा दूसरे जन्म की प्रक्रिया में शामिल हो पाती है। जो परिजन अपने मृतकों का श्राद्ध कर्म नहीं करते उनके प्रियजन भटकते रहते हैं। यह कर्म एक ऐसी विधि है जिसके माध्यम से आत्मा को सही मुकाम मिल जाता है और वह भटकाव से बचकर मुक्त हो जाता है।
 
यमपुरी में आत्मा : मान्यता अनुसार यमपुरी में आत्मा आत्मा सत्रह दिन तक यात्रा करने के पश्चात अठारहवें दिन यमपुरी पहुंचती है। यमपुरी पहुंचने के बाद आत्मा 'पुष्पोदका' नामक एक और नदी के पास पहुंच जाती है। इसी नदी के किनारे छायादार बड़ का एक वृक्ष है, जहां आत्मा थोड़ी देर विश्राम करती है।
 
धर्मशास्त्रों की मान्यता अनुसार यहीं पर उसे उसके पुत्रों या परिजनों द्वारा किए गए पिंडदान और तर्पण का भोजन मिलता है जिससे उसमें पुन: शक्ति का संचार हो जाता है। पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना गया है। ये आत्माएं मृत्यु के बाद 1 से लेकर 100 वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म के मध्य की स्थिति में रहती हैं।
 
पितरों का अन्न : जैसे पशुओं का भोजन तृण और मनुष्यों का भोजन अन्न कहलाता है, वैसे ही देवता और पितरों का भोजन अन्न का 'सार तत्व' है। सार तत्व अर्थात गंध, रस और उष्मा। देवता और पितर गंध तथा रस तत्व से तृप्त होते हैं। दोनों के लिए अलग अलग तरह के गंध और रस तत्वों का निर्माण किया जाता है। विशेष वैदिक मंत्रों द्वारा विशेष प्रकार की गंध और रस तत्व ही पितरों तक पहुंच जाती है।
 
सोम रस : पितरों के अन्न को 'सोम' कहते हैं जिसका एक नाम रेतस भी है। यह चावल, जौ ‍आदि से मिलकर बनता है। एक जलते हुए कंडे पर गुड़ और घी डालकर गंध निर्मित की जाती है। उसी पर विशेष अन्य अर्पित किया जाता है। तिल, अक्षत, कुश और जल के साथ तर्पण और पिंडदान किया जाता है। अंगुलियों से देवता और अंगुठे से पितरों को अर्पण किया जाता है।
 
पितरों की क्षमता : पुराणों अनुसार पितरों और देवताओं की योनि ही ऐसी होती है की वे दूर की कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा-अन्न भी ग्रहण कर लेते हैं और दूर की स्तुति से भी संतुष्ट होते हैं। इसके सिवा ये भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ जानते और सर्वत्र पहुचते हैं। पांच तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति- इन नौ तत्वों का बना हुआ उनका शरीर ऐसा ही करने की क्षमता रखता है।
 
पितरों का पितृलोक : धर्मशास्त्रों के अनुसार पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना गया है। ये आत्माएं मृत्यु के बाद 1 से लेकर 100 वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म के मध्य की स्थिति में रहती हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है।
 
पितरों का आगमन : सूर्य की सहस्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम 'अमा' है। उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य त्रैलोक्य को प्रकाशमान करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को चन्द्र (वस्य) का भ्रमण होता है, तब उक्त किरण के माध्यम से चंद्रमा के उर्ध्व भाग से पितर धरती पर उतर आते हैं इसीलिए श्राद्धपक्ष की अमावस्या तिथि का महत्व भी है। अमावस्या के साथ मन्वादि तिथि, संक्रांतिकाल व्यतिपात, गजच्दाया, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण इन समस्त तिथि-वारों में भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जा सकता है।
 
क्यों करते हैं श्राद्ध और तर्पण : 5 तत्वों से बने इस शरीर में पांचों तत्वों का अपना-अपना अंश होता है। इसमें वायु और जल तत्व सूक्ष्म शरीर को पुष्ट करने वाला है। चन्द्रमा के प्रकाश से सूक्ष्म शरीर का संबंध है। जल तत्व को सोम भी कहा जाता है। सोम को रेतस इसलिए कहा जाता है कि उसमें सूक्ष्म शरीर को पुष्ट करने के लिए चन्द्र से संबंधित और भी तत्व शामिल होते हैं। तर्पण करते वक्त जल का उपयोग इसीलिए किया जाता है।
 
जब व्यक्ति जन्म लेता है तो उसमें 28 अंश रेतस होता है। यह 28 अंश रेतस लेकर ही उसे चन्द्रलोक पहुंचना होता है। 28 अंश रेतस लेकर आई महान आत्मा मरने के बाद चन्द्रलोक पहुंच जाती है, जहां उससे वहीं 28 अंश रेतस मांगा जाता है। इसी 28 अंश रेतस को पितृ ऋण कहते हैं। चन्द्रलोक में वह आत्मा अपने स्वजातीय लोक में रहती है।
 
पृथ्वीलोक से उक्त आत्मा के लिए जो श्राद्ध कर्म किए जाते हैं उससे मार्ग में उसका शरीर पुष्ट होता है। 28 अंश रेतस के रूप में श्रद्धा नामक मार्ग से भेजे जाने वाले पिंड तथा जल आदि के दान को श्राद्ध कहते हैं। इस श्रद्धा नामक मार्ग का संबंध मध्याह्नकाल में पृथ्वी से होता है इसलिए ही मध्याह्नकाल में श्राद्ध करने का विधान है।
 
पृथ्वी पर कोई भी वस्तु सूर्यमंडल तथा चन्द्रमंडल के संपर्क से ही बनती है। संसार में सोम संबंधी वस्तु विशेषत: चावल और जौ ही हैं, जौ में मेधा की अधिकता है। धान और जौ में रेतस (सोम) का अंश विशेष रूप से रहता है, आश्विन कृष्ण पक्ष में यदि चावल तथा जौ का पिंडदान किया जाए तो चन्द्रमंडल को रेतस पहुंच जाता है, पितर इसी चन्द्रमा के ऊर्ध्व देश में रहते हैं। इस रेतस से वे तृप्त हो जाते हैं और उन्हें शक्ति मिलती है।
 
शास्त्र के अनुसार माता-पिता आदि के निमित्त उनके नाम और उच्चारण मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि सोम अर्पित किया जाता है, वह उनको व्याप्त होता है। मान लो वे आत्मा देव योनि प्राप्त कर गई है तो वह अन्न उन्हें अमृत के रूप में प्राप्त होता है और पितर या गंधर्व योनि प्राप्त हुई है तो वह अन्न उन्हें भोग्यरूप में प्राप्त हो जाता है। यदि वह प्रेत योनि को प्राप्त होकर भटक रहा है तो यह अन्न उसे रुधिर रूप में प्राप्त होता है।
 
लेकिन यदि वह आत्मा धरती पर किसी पशु योनि में जन्म ले चुकी है तो वह अन्न उसे तृण रूप में प्राप्त हो जाता है और यदि वह कर्मानुसार पुन: मनुष्य योनि प्राप्त कर गया है तो वह अन्न उन्हें अन्न आदि रूप में प्राप्त हो जाता है। इससे विशेष वैदिक मंत्रों के साथ ऐसे किया जाता है ताकि यह अन्न उस तक पहुंच जाए। फिर चाहे वह कहीं भी किसी भी रूप या योनि में हो।

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