यह भले ही तिब्बत से निकलकर भारत के अरुणाचल प्रदेश के रास्ते असम को उत्तर पार और दक्षिण पार में विभाजित करती हुई पश्चिम बंगाल के रास्ते सिक्किम की पहाड़ियों को छूकर तिस्ता से मिलने के बाद बांग्लादेश में जाकर सागर में समा जाती है लेकिन इसके पहले यह मेघालय की गारो पहाड़ियों का चरण स्पर्श करती है।
इस क्रम में अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मेघालय, भूटान, पश्चिम बंगाल और सिक्किम के पहाड़ों से निकली अन्य अनेक नदियां इसमें समाहित हो जाती हैं। किसी नदी का पानी लाल होता है तो किसी का नीला, कोई मटमैला तो कोई श्वेत। यह सभी को उनके मूल रंग में स्वीकार कर अपने रंग में रंग लेती है। उदार बह्मपुत्र किसी की उपेक्षा नहीं करती। नदी छोटी हो या बड़ी, सभी को साथ लेकर आगे बढ़ती जाती है।
भले ही कई नदियां काफी दूर तक अपनी अलग पहचान बनाए रखने में सक्षम होती हैं या ब्रह्मपुत्र के समानांतर चलने का उपक्रम करती हैं, यह फिर ब्रह्मपुत्र को अंगीकार करने में शर्माती हुई आगे बढ़ती है लेकिन कितनी दूर तक चलेगा यह लुकाछिपी का खेल। अंत में उन्हें आकर समर्पण कर देना पड़ता है और उसी क्रम में बादाम के आकर के कई नदी द्वीप (स्थानीय भाषा में चापरी) बह्मपुत्र की छाती पर उग आते हैं। फिर मानसून आते ही अधिकांश द्वीपों को अपने सीने से लगा लेती है। ब्रह्मपुत्र और लुइत के बीच इसी तरह के खेल में ताजा पानी का सबसे बड़ा नदी द्वीप-माजुली बन गया। यह द्वीप हर मानसून में बनते-बिगड़ते हैं। एक द्वीप विलीन होता है तो दूसरा उग जाता है।
कहीं पर नदियों का संगम परिलक्षित होता है तो कहीं पर यह मिलन गुप्त तरीके से होता है। यह संगम किसी आबादी वाले इलाके में होता है तो कहीं घने जंगलों के बीच। ब्रह्मपुत्र में समाने वाले असंख्य नालों की गिनती तो असंभव है। सबसे खास बात यह है कि इसके दोनों ओर पहाड़ियों की लंबी श्रृंखलाएं हैं।
ब्रह्मपुत्र के टूटिंग-इंगकांग से पासीघाट तक का इलाका रैफ्टिंग के लिए बेहतर माना जाता है। इस वजह से देशी-विदेशी पर्यटक इधर जल-खेलों के लिए अकसर आते हैं। अरुणाचल में यह नदी घने जंगलों से गुजरती है। इससे वन्यजीवों को जीने का बेहतर आधार मिल जाता है और जंगलों की नमी तो मिलती ही है। आदिवासी इन नदियों से बड़ी मात्रा में मछली का शिकार करते हैं। अरुणाचल की सीमा के अंदर इस नदी में जहाज, बोट चलाना आसान नहीं है। पासीघाट में सियांग की सुंदरता देखते बनती है। पासीघाट आकर सियांग मैदानी इलाके में आ जाती है इसलिए वहां पर जहाज चलाना संभव है।
असम में प्रवेश करने के ठीक पहले यह सियांग से डि-हांग का नाम धारण कर लेती है। कुछ आगे बढ़ने पर उत्तर दिशा से लुइत आकर मिलती है लेकिन ब्रह्मपुत्र से दोस्ती करने के पहले सदिया के थोड़ा ऊपर नोहा दिहिंग दक्षिण दिशा से आकर लुइत में समा जाती है।यह वही लुइत है जिसे लाल नदी कहा जाता है।
इन तीनों नदियों के दर्शन अरुणाचल प्रदेश के तेजू नामक जगह जाने के दौरान होते हैं। उसी इलाके में प्रसिद्ध परशुराम कुंड है। उसी इलाके में उत्तर दिशा से आकर दिबांग और सेस्सरी मिलती हैं। तब लुइत जल भंडार से समृद्ध होकर ब्रह्मपुत्र को आलंगित करती है। लुइत और डि-हांग के मिलन से ब्रह्मपुत्र को नई ताकत मिलती है।
डिब्रूगढ़ और उसके ऊपर नदियों का जाल बिछा है। इस इलाके को नदी प्रदेश कहना ज्यादा सही होगा क्योंकि तीन तरफ पहाड़ियों की लंबी श्रृंखला है। तीनों तरफ अरुणाचल के पहाड़ों से निकलने वाली नदियां उस इलाके में ब्रह्मपुत्र को आत्मसात कर लेती हैं, तब ब्रह्मपुत्र सारथी के रूप में नजर आता है, जिसने सारी नदियों को सागर में महामिलन कराने की जिम्मेदारी ली है। ब्रह्मपुत्र और लुइत में संगम के बाद डिब्रू नदी मिलती है जिसका उद्गम खामती पहाड़ियों पर हुआ। वैसे खामती अरुणाचल की एक जनजाति है, जो लोहित जिले में वास करती है। पूर्वोत्तर में जनजातीय समूह के नाम पर पहाड़ियों की पहचान होती है।
पटकोई पर्वत श्रृंखला से निकलने वाली बूढ़ी दिहिंग भी आकर ब्रह्मपुत्र में समाती है। पटकोई पर्वतमाला की पहुंच म्यांमार की सीमा के अंदर तक है। सिफौं पर्वत से निकलकर नई दिहिंग मिलती है। सुबनसिरी नदी डपला और मीरी पहाड़ियों के बीच से गुजरती हुई ब्रह्मपुत्र मिलती है। डिब्रूगढ़ के आसपास बूढ़ी सूती, रंगा नदी, दिकरंग भी ब्रह्मपुत्र में समा जाती है।
कई नदियां ऐसी भी हैं जो ब्रह्मपुत्र में समाने के बाद अपनी पहचान खोने के भय से दोबारा अलग से बहने की चेष्टा करती है और वापस ब्रह्मपुत्र के समक्ष खुद को समर्पित कर देती हैं। वैसी ही एक नदी है- सूती। जो खीरकटिया सूती के नाम से अलग होती है, आगे चलकर सुबनसिरी इसमें मिलती है और दोनों मिलकर आगे जाकर लुइत में शरण लेती हैं। नगालैंड की पहाड़ियों से आने वाली कई नदियां शिवसागर जिले में ब्रह्मपुत्र को तारणहार मान लेती हैं। उनमें दिसांग, डि-खू, नामदांग, जजी, भोगदोई, काकोडेंगा और धनसिरी भी शामिल हैं। धनसिरी नगा पहाड़ी से निकलकर करीब एक सौ मील का लंबा सफर तय करती है और नगा संस्कृति का समन्वय असमिया संस्कृति से कराकर ब्रह्मपुत्र में विलीन हो जाती है।
एक तरफ जहां शिवसागर और गोलाघाट जिले के रास्ते नगालैंड की पहाड़ियों से उतरने वाली नदियां ब्रह्मपुत्र के दक्षिण किनारे से आकर मिलती हैं तो उत्तर में अरुणाचल प्रदेश की पहाड़ियों से उतरी नदियां शोणितपुर जिले में ब्रह्मपुत्र में मिलती चली जाती हैं यानी उत्तर पार और दक्षिण पार में नदियों में ब्रह्मपुत्र में समाने की होड़ लगी रहती है। उत्तर में अका पर्वत से उतरती है भरली, टोवांग पर्वत से आती है बलसिरी और पचनोई। बूरोई, बरगांव, बूढ़ी गांग, धीलासिरी और दिकराई भी उत्तर दिशा से आकर ब्रह्मपुत्र में समाती हैं। दरंग जिले में उत्तर पार से ही बर नदी और मंगलदोई आती हैं। इसी के नाम पर ही दरंग जिला मुख्यालय का नाम मंगलदै पड़ा है।
गुवाहाटी के ऊपर ही मेघालय की खासी पहाड़ियों से निकली डिगारू खासी संस्कृति का समन्वय ब्रह्मपुत्र से करा जाती है। कलही और शिरा भी आकर मिलती है जबकि गुवाहाटी शहर में भरालु इसका अभिनंदन करती है। गुवाहाटी के पास आकर ब्रह्मपुत्र अपना विशाल स्वरूप सीमित कर लेती है और दोनों ओर की पहाड़ियों की बीच से चुपचाप आगे बढ़ जाती है। आगे बढ़ते ही भूटान का संदेश लेकर मनाह, पगलादिया और पूठीमारी ब्रह्मपुत्र तक पहुंचती हैं। आगे एक और समन्वय होता है गारो संस्कृति से।
ग्वालपाड़ा जिले में गारो पहाड़ी को स्पर्श करता है ब्रह्मपुत्र और उसी पहाड़ी से उतरकर जिंजीराम, जिनारी दूध नदी और कृष्णा महाबाहु का अभिनंदन करती हैं। जबकि भूटान से चलकर आती हैं - चंपावती और सरलभंगा। असम से बाहर होते ही पश्चिम बंगाल में तीस्ता और धरला नदियां बंग्ला संस्कृति के अनुसार इसकी आरती करती हैं। फिर यह बांग्लादेश में जाकर गंगा से पद्मा बनी नदी से मिलती है और फिर मेघना में शामिल होकर ब्रह्मपुत्र भी अपनी पहचान बदलती है और मेघना के रूप में महासागर में विलीन हो जाती है।