संस्कृतियों के मिलन की गवाह रही हैं ब्रह्मपुत्र नदी

समन्वय का दर्शन है ब्रह्मपुत्र

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- रविशंकर रवि
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च ीन की कुदृष्टि की वजह से तिब्बत से बांग्लादेश तक फैले विस्तृत ब्रह्मपुत्र नदी का अस्तित्व खतरे में है। इस बात की खबर आ रही है कि अपने देश में चीन इस नदी की धारा मोड़ने या पनबिजली परियोजना के लिए बांध बनाकर उसके प्रवाह को रोकने की साजिश कर रहा है। इस महानदी के सूखने का मतलब कई संस्कृतियों और सभ्यताओं का सूखना है इसलिए अरुणाचल से असम तक ब्रह्मपुत्र के किनारे बसे लोगों में बेचैनी है।

हालांकि चीन बार-बार ऐसे आरोपों से इनकार कर चुका है लेकिन जब 29 फरवरी को अरुणाचल के पासीघाट के निकट सियांग नदी (अरुणाचल में ब्रह्मपुत्र को इसी नाम से जाना जाता है) का जलस्तर गिरता हुआ बिल्कुल बरसाती नदी जैसा हो गया तो पूरे राज्य में सनसनी फैल गई।

अरुणाचल प्रदेश के सरकारी प्रवक्ता ताको दाबी ने इस बात की जानकारी फौरन राज्य सरकार को दी और केंद्र सरकार से वास्तविकता का पता लगाने का आग्रह किया। लोगों को लग रहा है कि चीन ब्रह्मपुत्र की धारा के साथ छेड़छाड़ कर रहा है। भारत ने पहले भी अपनी चिंता से चीन को अवगत कराया है और चीन ने हमेशा भारत को आश्वस्त किया है लेकिन चीन की नीयत पर अरुणाचल के लोगों को भरोसा नहीं है क्योंकि चीन बार-बार अरुणाचल पर दावा करता रहा है। इस नदी से सैकड़ों लोगों की आजीविका चलती है।

अरुणाचल और असम के लोगों के चिंता जायज है। ब्रह्मपुत्र नदी विभिन्न संस्कृतियों और सभ्यताओं के समन्वय का जिंदा मिसाल भी है। विख्यात गायक डॉ. भूपेन हजारिका के गीत की इन पंक्तियों में महाबाहु ब्रह्मपुत्र की गहराई को महसूस किया जा सकता है - महाबाहु ब्रह्मपुत्र, महामिलनर तीर्थ कोतो जुग धरि, आइसे प्रकासी समन्वयर तीर्थ (ओ महाबाहु ब्रह्मपुत्र, महामिलन का तीर्थ, कितने युगों से व्यक्त करते रहे समन्वय का अर्थ) लोकगीतों के अलावा ब्रह्मपुत्र पर न जाने कितने गीत लिखे गए हैं और अब भी लिखे जा रहे हैं।

सिर्फ भूपेन दा ने इस पर कम से कम दर्जन भर गीतों को आवाज दी है। ब्रह्मपुत्र असमिया रचनाकारों का प्रमुख पात्र रहा है। चित्रकारों के लिए आकर्षक विषय। नाविकों के लिए जीवन की गति है तो मछुआरों के लिए जिंदगी। पूर्वोत्तर में प्रवेश करने का सबसे पुराना रास्ता। जब यातायात का अन्य कोई साधन नहीं था, तब इसी के सहारे पूरे देश का संबंध पूर्वोत्तर के साथ था।

ब्रह्मपुत्र सिर्फ एक नदी नहीं है। यह एक दर्शन है-समन्वय का। इसके तटों पर कई सभ्यताओं और संस्कृतियों का मिलन हुआ है। आर्य-अनार्य, मंगोल-तिब्बती, बर्मी-द्रविड़, मुगल-आहोम संस्कृतियों की टकराहट और मिलन का गवाह यह ब्रह्मपुत्र रहा है।

जिस तरह अनेक नदियां इसमें समाहित होकर आगे बढ़ी हैं, उसी तरह कई संस्कृतियों ने मिलकर एक अलग संस्कृति का गठन किया है। ब्रह्मपुत्र पूर्वोत्तर की, असम की पहचान है, जीवन है और संस्कृति भी। असम का जीवन तो इसी पर निर्भर है। असमिया समाज, सभ्यता और संस्कृति पर इसका प्रभाव युगों-युगों से प्रचलित लोककथाओं और लोकगीतों में देखा जा सकता है।
उदाहरण के लिए एक असमिया लोकगीत को देखा जा सकता है -
ब्रह्मपुत्र कानो ते, बरहमूखरी जूपी, आमी खरा लोरा जाई
ऊटूबाई नीनीबा, ब्रह्मपुत्र देवता, तामोल दी मनोता नाई।
( ब्रह्मपुत्र के किनारे हैं बरहमूथरी के पेड़, जहां हम जलावन लाने जाते हैं। इसे निगल मत लेना, ब्रह्मपुत्र देव! हमारी क्षमता तो तुम्हें कच्ची सुपाड़ी अर्पण करने तक की भी नहीं है)

तिब्बत स्थित पवित्र मानसरोवर झील से निकलने वाली सांग्पो नदी पश्चिमी कैलास पर्वत के ढाल से नीचे उतरती है तो ब्रह्मपुत्र कहलाती है। तिब्बत के मानसरोवर से निकलकर बाग्लांदेश में गंगा को अपने सीने में लगाकर एक नया नाम पद्मा फिर मेघना धारण कर सागर में समा जाने तक की 2906 किलोमीटर लंबी यात्रा करती है।

ब्रह्मपुत्र भारत ही नहीं बल्कि एशिया की सबसे लंबी नदी है। यदि इसे देशों के आधार पर विभाजित करें तो तिब्बत में इसकी लंबाई सोलह सौ पच्चीस किलोमीटर है, भारत में नौ सौ अठारह किलोमीटर और बांग्लादेश में तीन सौ तिरसठ किलोमीटर लंबी है यानी बंगाल की खाड़ी में समाने के पहले यह करीब तीन हजार किलोमीटर का लंबा सफर तय कर चुकी होती है। इस दौरान अनेक नदियां और उनकी उप-नदियां आकर इसमें समा जाती हैं। हर नदी की अपनी कहानी है और उनके किनारे बसी जनजातियों की अपनी संस्कृति है।

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यह भले ही तिब्बत से निकलकर भारत के अरुणाचल प्रदेश के रास्ते असम को उत्तर पार और दक्षिण पार में विभाजित करती हुई पश्चिम बंगाल के रास्ते सिक्किम की पहाड़ियों को छूकर तिस्ता से मिलने के बाद बांग्लादेश में जाकर सागर में समा जाती है लेकिन इसके पहले यह मेघालय की गारो पहाड़ियों का चरण स्पर्श करती है।

इस क्रम में अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मेघालय, भूटान, पश्चिम बंगाल और सिक्किम के पहाड़ों से निकली अन्य अनेक नदियां इसमें समाहित हो जाती हैं। किसी नदी का पानी लाल होता है तो किसी का नीला, कोई मटमैला तो कोई श्वेत। यह सभी को उनके मूल रंग में स्वीकार कर अपने रंग में रंग लेती है। उदार बह्मपुत्र किसी की उपेक्षा नहीं करती। नदी छोटी हो या बड़ी, सभी को साथ लेकर आगे बढ़ती जाती है।

भले ही कई नदियां काफी दूर तक अपनी अलग पहचान बनाए रखने में सक्षम होती हैं या ब्रह्मपुत्र के समानांतर चलने का उपक्रम करती हैं, यह फिर ब्रह्मपुत्र को अंगीकार करने में शर्माती हुई आगे बढ़ती है लेकिन कितनी दूर तक चलेगा यह लुकाछिपी का खेल। अंत में उन्हें आकर समर्पण कर देना पड़ता है और उसी क्रम में बादाम के आकर के कई नदी द्वीप (स्थानीय भाषा में चापरी) बह्मपुत्र की छाती पर उग आते हैं। फिर मानसून आते ही अधिकांश द्वीपों को अपने सीने से लगा लेती है। ब्रह्मपुत्र और लुइत के बीच इसी तरह के खेल में ताजा पानी का सबसे बड़ा नदी द्वीप-माजुली बन गया। यह द्वीप हर मानसून में बनते-बिगड़ते हैं। एक द्वीप विलीन होता है तो दूसरा उग जाता है।

कहीं पर नदियों का संगम परिलक्षित होता है तो कहीं पर यह मिलन गुप्त तरीके से होता है। यह संगम किसी आबादी वाले इलाके में होता है तो कहीं घने जंगलों के बीच। ब्रह्मपुत्र में समाने वाले असंख्य नालों की गिनती तो असंभव है। सबसे खास बात यह है कि इसके दोनों ओर पहाड़ियों की लंबी श्रृंखलाएं हैं।


ब्रह्मपुत्र के कई नाम और पहचान हैं। हर क्षेत्र में इसके स्वभाव और आचरण में भी फर्क है। डिब्रूगढ़ में इसका मीलों लंबा पाट इसकी विशालता को दर्शाता है तो गुवाहाटी में दोनों ओर की पहाड़ियों के बीच से गुजरने के लिए यह अपना आकार लघु कर लेती है। फिर नीलाचल पहाड़, जिस पर मां कामाख्या का मंदिर है, का चरण स्पर्श करने के बाद आगे जाकर अपना विराट रूप धारण कर लेती है। असम के अधिकांश बड़े शहर इसी के किनारे विकसित हुए। डिब्रूगढ़, जोरहाट, तेजपुर, गुवाहाटी, धुबड़ी और ग्वालपाड़ा इसी के किनारे बसे हुए हैं।

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ब्रह्मपुत्र के टूटिंग-इंगकांग से पासीघाट तक का इलाका रैफ्टिंग के लिए बेहतर माना जाता है। इस वजह से देशी-विदेशी पर्यटक इधर जल-खेलों के लिए अकसर आते हैं। अरुणाचल में यह नदी घने जंगलों से गुजरती है। इससे वन्यजीवों को जीने का बेहतर आधार मिल जाता है और जंगलों की नमी तो मिलती ही है। आदिवासी इन नदियों से बड़ी मात्रा में मछली का शिकार करते हैं। अरुणाचल की सीमा के अंदर इस नदी में जहाज, बोट चलाना आसान नहीं है। पासीघाट में सियांग की सुंदरता देखते बनती है। पासीघाट आकर सियांग मैदानी इलाके में आ जाती है इसलिए वहां पर जहाज चलाना संभव है।

असम में प्रवेश करने के ठीक पहले यह सियांग से डि-हांग का नाम धारण कर लेती है। कुछ आगे बढ़ने पर उत्तर दिशा से लुइत आकर मिलती है लेकिन ब्रह्मपुत्र से दोस्ती करने के पहले सदिया के थोड़ा ऊपर नोहा दिहिंग दक्षिण दिशा से आकर लुइत में समा जाती है।यह वही लुइत है जिसे लाल नदी कहा जाता है।

इन तीनों नदियों के दर्शन अरुणाचल प्रदेश के तेजू नामक जगह जाने के दौरान होते हैं। उसी इलाके में प्रसिद्ध परशुराम कुंड है। उसी इलाके में उत्तर दिशा से आकर दिबांग और सेस्सरी मिलती हैं। तब लुइत जल भंडार से समृद्ध होकर ब्रह्मपुत्र को आलंगित करती है। लुइत और डि-हांग के मिलन से ब्रह्मपुत्र को नई ताकत मिलती है।

डिब्रूगढ़ और उसके ऊपर नदियों का जाल बिछा है। इस इलाके को नदी प्रदेश कहना ज्यादा सही होगा क्योंकि तीन तरफ पहाड़ियों की लंबी श्रृंखला है। तीनों तरफ अरुणाचल के पहाड़ों से निकलने वाली नदियां उस इलाके में ब्रह्मपुत्र को आत्मसात कर लेती हैं, तब ब्रह्मपुत्र सारथी के रूप में नजर आता है, जिसने सारी नदियों को सागर में महामिलन कराने की जिम्मेदारी ली है। ब्रह्मपुत्र और लुइत में संगम के बाद डिब्रू नदी मिलती है जिसका उद्गम खामती पहाड़ियों पर हुआ। वैसे खामती अरुणाचल की एक जनजाति है, जो लोहित जिले में वास करती है। पूर्वोत्तर में जनजातीय समूह के नाम पर पहाड़ियों की पहचान होती है।

पटकोई पर्वत श्रृंखला से निकलने वाली बूढ़ी दिहिंग भी आकर ब्रह्मपुत्र में समाती है। पटकोई पर्वतमाला की पहुंच म्यांमार की सीमा के अंदर तक है। सिफौं पर्वत से निकलकर नई दिहिंग मिलती है। सुबनसिरी नदी डपला और मीरी पहाड़ियों के बीच से गुजरती हुई ब्रह्मपुत्र मिलती है। डिब्रूगढ़ के आसपास बूढ़ी सूती, रंगा नदी, दिकरंग भी ब्रह्मपुत्र में समा जाती है।

कई नदियां ऐसी भी हैं जो ब्रह्मपुत्र में समाने के बाद अपनी पहचान खोने के भय से दोबारा अलग से बहने की चेष्टा करती है और वापस ब्रह्मपुत्र के समक्ष खुद को समर्पित कर देती हैं। वैसी ही एक नदी है- सूती। जो खीरकटिया सूती के नाम से अलग होती है, आगे चलकर सुबनसिरी इसमें मिलती है और दोनों मिलकर आगे जाकर लुइत में शरण लेती हैं। नगालैंड की पहाड़ियों से आने वाली कई नदियां शिवसागर जिले में ब्रह्मपुत्र को तारणहार मान लेती हैं। उनमें दिसांग, डि-खू, नामदांग, जजी, भोगदोई, काकोडेंगा और धनसिरी भी शामिल हैं। धनसिरी नगा पहाड़ी से निकलकर करीब एक सौ मील का लंबा सफर तय करती है और नगा संस्कृति का समन्वय असमिया संस्कृति से कराकर ब्रह्मपुत्र में विलीन हो जाती है।

एक तरफ जहां शिवसागर और गोलाघाट जिले के रास्ते नगालैंड की पहाड़ियों से उतरने वाली नदियां ब्रह्मपुत्र के दक्षिण किनारे से आकर मिलती हैं तो उत्तर में अरुणाचल प्रदेश की पहाड़ियों से उतरी नदियां शोणितपुर जिले में ब्रह्मपुत्र में मिलती चली जाती हैं यानी उत्तर पार और दक्षिण पार में नदियों में ब्रह्मपुत्र में समाने की होड़ लगी रहती है। उत्तर में अका पर्वत से उतरती है भरली, टोवांग पर्वत से आती है बलसिरी और पचनोई। बूरोई, बरगांव, बूढ़ी गांग, धीलासिरी और दिकराई भी उत्तर दिशा से आकर ब्रह्मपुत्र में समाती हैं। दरंग जिले में उत्तर पार से ही बर नदी और मंगलदोई आती हैं। इसी के नाम पर ही दरंग जिला मुख्यालय का नाम मंगलदै पड़ा है।

गुवाहाटी के ऊपर ही मेघालय की खासी पहाड़ियों से निकली डिगारू खासी संस्कृति का समन्वय ब्रह्मपुत्र से करा जाती है। कलही और शिरा भी आकर मिलती है जबकि गुवाहाटी शहर में भरालु इसका अभिनंदन करती है। गुवाहाटी के पास आकर ब्रह्मपुत्र अपना विशाल स्वरूप सीमित कर लेती है और दोनों ओर की पहाड़ियों की बीच से चुपचाप आगे बढ़ जाती है। आगे बढ़ते ही भूटान का संदेश लेकर मनाह, पगलादिया और पूठीमारी ब्रह्मपुत्र तक पहुंचती हैं। आगे एक और समन्वय होता है गारो संस्कृति से।

ग्वालपाड़ा जिले में गारो पहाड़ी को स्पर्श करता है ब्रह्मपुत्र और उसी पहाड़ी से उतरकर जिंजीराम, जिनारी दूध नदी और कृष्णा महाबाहु का अभिनंदन करती हैं। जबकि भूटान से चलकर आती हैं - चंपावती और सरलभंगा। असम से बाहर होते ही पश्चिम बंगाल में तीस्ता और धरला नदियां बंग्ला संस्कृति के अनुसार इसकी आरती करती हैं। फिर यह बांग्लादेश में जाकर गंगा से पद्मा बनी नदी से मिलती है और फिर मेघना में शामिल होकर ब्रह्मपुत्र भी अपनी पहचान बदलती है और मेघना के रूप में महासागर में विलीन हो जाती है।

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