शिव तो साक्षात् अमंगलवेषधारी है! अमंगल वेष के लक्षण हैं- भस्म, मृगचर्म, कपालमुंडों की माला परंतु कार्य मंगलदायी है! उनका परम भक्त पुष्पदंत उनके रूप का वर्णन करते हुए कहता है- 'हे शंभो, तुम श्मशान में क्रीड़ा करते हो, प्रेत-पिशाच तुम्हारे साथ रहते हैं, चिताभस्म शरीर में लगाते हो, नरमुंडों की माला धारण करते हो, इस प्रकार तुम्हारा सारा का सारा शील (ढंग) अमंगल रूप है, परंतु हे वरद्, जो तुमको स्मरण करते हैं, उनके लिए तुम परम मंगलमय हो! श्री शंकर श्मशान भूमि में अवस्थित हैं- क्योंकि श्मशान तो ज्ञान की भूमि है। श्मशान में ही 'समभाव' जागृत होते हैं।
जहां 'समभाव' जागे वही श्मशान और समभाव का अर्थ है 'असम' भाव का अभाव। भोलेनाथ तो ज्ञान, समता और शांति के अधिवक्ता हैं, इसीलिए समत्व और ज्ञान का चयन करते हुए कहते हैं, आत्मज्ञान के प्रयत्न के बिना चुपचाप बैठे रहने से क्या लाभ? ध्यान ही परमात्मा की पूजा है। उसका मन से चिंतन करना चाहिए, जो हृदय प्रदेश में स्थित परमात्मा का निरंतर अनुभव करता है, वही श्रेष्ठ ध्यान है और परम पूजा भी कही गई है।
परमात्मा के लिए ज्ञान रूप ध्यान ही प्रियतम वस्तु है। अत: ध्यान ही उसके लिए अनुपम उपहार है। वह ध्यान से ही प्रसन्न होता है। ध्यान ही उसके अर्घ्य, पाद्य और पुष्प हैं। ध्यान ही पवित्र करने वाला तथा अज्ञानों का नाशक है।
इस प्रकार योगेश्वर शिव बिना किसी बाहरी ताम-झाम के मन की शक्तियों के ग्राहक-अधिष्ठाता हैं। इसीलिए वे शरीररूपी गाड़ी को खींचने के लिए मन:शक्ति और प्राण-शक्ति दो बैलों के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं।
बाहरी आडम्बर कुछ नहीं, अमंगलकारी रूपधारी अपने भक्तों के लिए औघड़दानी बने रहे हैं। इतने औघड़दानी कि संपूर्ण सृष्टि के कल्याण हेतु हलाहल गटककर नीलकंठधारी हो गए। जरा-सी पूजा-आराधना से प्रसन्न होने वाले भोले बाबा इसीलिए 'आशुतोष' कहलाए।
पूजन की सामग्री भी कितनी सार्वकालिक, सार्वदेशिक और सार्वभौमिक कि मिट्टी उठाइए, शिवलिंग की स्थापना कीजिए, चढ़ाने के लिए उपेक्षित धतूरा एवं कल्याणकारी श्रीवृक्ष के पत्ते बिल्वपत्र (एकसाथ उपेक्षित एवं स्थापित वस्तुओं का समन्वय) जल का अभिषेक जल न भी हो तो आंखों के पानी से भी योगेश्वर शिव पिघल जाते हैं।
किसी वाद्य की आवश्यकता नहीं, मुंह से बाजा बजा दीजिए- बिना किसी विदेशी (बाह्य) वस्तु के पूजन की अनुपम विधि! एक माने में शिव स्थानीय सामग्री के उपयोग के प्रथम अधिवक्ता हैं, शायद ही किसी अन्य ने स्थानीय सामग्री का इतना अच्छा उपयोग सुझाया है।
अपने अद्वैत रूप को कायम रख ब्रह्मवैवर्त पुराण में शिव अपना आप बिसारकर कृष्ण की स्तुति कर उन्हें अखिल विश्व का स्वामी निरूपित करते हैं। यह विनय नम्रता दृष्टव्या है। शिवजी कहते हैं- आप विश्वरूप हैं, विश्व के स्वामी हैं, विश्व के कारण, विश्व के आधार हैं, विश्व रक्षक, विश्व संहारक हैं। आप ही फलों के बीज हैं, फलों के आधार हैं, फलस्वरूप भी हैं और फलदाता भी।
वस्तुत: हरि (विष्णु), हर (शिव) एक ही 'ह' धातु से बने हुए दो शब्द हैं। अंतर केवल 'इ' और 'अ' प्रत्यय का है। मूल प्रकृति 'ह' एक ही है। यह प्रत्यय भेद है अर्थ भेद नहीं, क्योंकि मूल प्रकृति एक है। 'सर्वाणि पापानी दु:खानि व हरतीति हरि: अथवा हर:' के अनुसार पाप या दुखों का हरण करने से 'हरि' हुए, इसलिए 'हर' भी हुए।
हरि हो या हर काम एक ही है अपनों के दु:ख हरना। महास्तोत्र महिम्न के रचनाकार के अनुसार, 'यदि काले पहाड़ के समान काजल की राशि हो और सिंधु उसके घोलने का पात्र बने और उस लेखनी को हाथ में लेकर कागज पर स्वयं सरस्वतीदेवी निरंतर लिखती जाए तो भी परमेश्वर तुम्हारे गुणों का पार नहीं पा सकती।' इस प्रकार शिव वर्णनातीत है।
लोकतंत्र के आधार ज्ञान, समता और शांति हैं और ये ही पूजन सामग्री शिव की प्रियतम सामग्री है अत: वे लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रथम अधिष्ठाता-अधिवक्ता है- नमन ।