पितर आते हैं वंशज के द्वार, उनके आशीष लें, शाप नहीं...

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- डॉ. गोविन्द बल्लभ जोशी


 
16 सितंबर से महालय पितृपक्ष यानी सोलह श्राद्ध आरंभ हो गए हैं। इनका हिंदू सनातन वैदिक धर्मावलंबी परिवारों के लिए विशेष महत्व है।
 
यद्यपि आज के आपाधापी के माहौल में लोग इसका निर्वाह केवल गोग्रास और ब्राह्मण भोजन करा के ही कर लेते हैं लेकिन जिन पितरों की कृपा से हम आज इस दुनिया में हैं या पद, प्रतिष्ठा एवं धन-ऐश्वर्य के स्वामी बने हैं उनके निमित्त वर्ष में एक-दो बार विशेष समय निकालना मजबूरी नहीं फर्ज होना चाहिए।
 
श्राद्ध कर्म क्यों किया जाता है और इसे कैसे करना चाहिए इस पर गंभीरता से चिंतन कर उसे व्यवहार में अवश्य उतारना चाहिए। यदि किसी के पूर्वज संन्यासी यति और वैष्णव विरक्त संत होकर चले गए हों तो उनके निमित्त द्वादशी तिथि को शास्त्रों ने नियत किया है। अतः उनका भी पुण्य स्मरण श्रद्धापूर्वक विधि-विधान से करना चाहिए।
 
सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार श्राद्ध करने के लिए एक पूरा पखवाड़ा ही निश्चित कर दिया गया है। सभी तिथियां इन सोलह दिनों में आ जाती हैं। कोई भी पूर्वज जिस तिथि को इस लोक को त्यागकर परलोक गया हो, उसी तिथि को इस पक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है लेकिन स्त्रियों के लिए नवमी तिथि विशेष मानी गई है जिसे मातृ नवमी भी कहते हैं।
 
वास्तव में पितरों का ऋण चुकाना एक जीवन में तो संभव ही नहीं, अतः उनके द्वारा संसार त्याग कर चले जाने के उपरांत भी श्राद्ध करते रहने से उनका ऋण चुकाने की परंपरा है। श्राद्ध से जो भी कुछ देने का हम संकल्प लेते हैं वह सब कुछ उन पूर्वजों को अवश्य प्राप्त होता है।

श्राद्ध पक्ष सोलह दिन तक आश्विन मास की पूर्णिमा से अमावस्या तक रहता है। जिस तिथि में जिस पूर्वज का स्वर्गवास हुआ हो उसी तिथि को उनका श्राद्ध किया जाता है जिनकी परलोक गमन की तिथि ज्ञान न हो, उन सबका श्राद्ध अमावस्या को किया जाता है।
 
वैसे तो सभी अमावस्या तर्पण के लिए श्रेष्ठ हैं परंतु पितृ पक्ष की अमावस्या को पितृ तर्पण तथा श्राद्ध के लिए सर्वाधिक फलदायी माना जाता है। इसे पितृविसर्जिनी अमावस्या कहा जाता है। श्राद्ध के लिए गया जी को पवित्र तीर्थ बताया गया है।
 
कहते हैं कि अमावस्या के दिन सभी पितर अपने वंशज के द्वार पर पिंड प्राप्ति की आशा में आते हैं। यदि उन्हें सम्मानपूर्वक पिंडदान तथा तर्पण मिलता है तो गृहस्थ वंशज को सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं। यदि उन्हें कुछ नहीं मिलता और वे निराश होते हैं तो वे शाप देकर लौट जाते हैं। अतः अपने परिवार के कल्याण हेतु पितरों को श्रद्धापूर्वक तर्पण करना अभीष्ट है। 
 
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