पितृपक्ष पूर्णिमा से अमावस्या तक 16 दिन का होता है। धर्मशास्त्रों के अनुसार हमारी मान्यता है कि प्रत्येक की मृत्यु इन 16 तिथियों को छोड़कर अन्य किसी दिन नहीं होती है। इसीलिए इस पक्ष में 16 दिन होते हैं। एक मनौवैज्ञानिक पहलू यह है कि इस अवधि में हम अपने पितरों तक अपने भाव पहुंचाते हैं। चूंकि यह पक्ष वर्षाकाल के बाद आता है अत: ऐसा माना जाता है कि आकाश पूरी तरह से साफ हो गया है और हमारी संवेदनाओं और प्रार्थनाओं के आवागमन के लिए मार्ग सुलभ है। ज्योतिष और धर्मशास्त्र कहते हैं कि पितरों के निमित्त यह काल इसलिए भी श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि इसमें सूर्य कन्या राशि में रहता है और यह ज्योतिष गणना पितरों के अनुकूल होती है।
क्यों नहीं होते 16 दिन शुभ कार्य?
श्राद्धपक्ष का संबंध मृत्यु से है इस कारण यह अशुभ काल माना जाता है। जैसे अपने परिजन की मृत्यु के पश्चात हम शोकाकुल अवधि में रहते हैं और अपने अन्य शुभ, नियमित, मंगल, व्यावसायिक कार्यों को विराम दे देते हैं, वही भाव पितृपक्ष में भी जुड़ा है।
इस अवधि में हम पितरों से और पितर हमसे जुड़े रहते हैं। अत: अन्य शुभ-मांगलिक शुभारंभ जैसे कार्यों को वंचित रखकर हम पितरों के प्रति पूरा सम्मान और एकाग्रता बनाए रखते हैं।
श्राद्ध में कौए-श्वान और गाय का महत्व
* श्राद्ध पक्ष में पितर, ब्राह्मण और परिजनों के अलावा पितरों के निमित्त गाय, श्वान और कौए के लिए ग्रास निकालने की परंपरा है।
* गाय में देवताओं का वास माना गया है, इसलिए गाय का महत्व है।
* श्वान और कौए पितरों के वाहक हैं। पितृपक्ष अशुभ होने से अवशिष्ट खाने वाले को ग्रास देने का विधान है।
* दोनों में से एक भूमिचर है, दूसरा आकाशचर। चर यानी चलने वाला। दोनों गृहस्थों के निकट और सभी जगह पाए जाने वाले हैं।
* श्वान निकट रहकर सुरक्षा प्रदान करता है और निष्ठावान माना जाता है इसलिए पितृ का प्रतीक है।
* कौए गृहस्थ और पितृ के बीच श्राद्ध में दिए पिंड और जल के वाहक माने गए हैं।
श्राद्ध गणना का कैलेंडर
श्राद्ध पक्ष भाद्र शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक होता है। इस अवधि में 16 तिथियां होती हैं और इन्हीं तिथियों में प्रत्येक की मृत्यु होती है। सौभाग्यवती स्त्री की मृत्यु पर नियम है कि उनका श्राद्ध नवमी तिथि को करना चाहिए, क्योंकि इस तिथि को श्राद्ध पक्ष में अविधवा नवमी माना गया है। नौ की संख्या भारतीय दर्शन में शुभ मानी गई है। संन्यासियों के श्राद्ध की तिथि द्वादशी मानी जाती है (बारहवीं)। शस्त्र द्वारा मारे गए लोगों की तिथि चतुर्दशी मानी गई है। विधान इस प्रकार भी है कि यदि किसी की मृत्यु का ज्ञान न हो या पितरों की ठीक से जानकारी न हो तो सर्वपितृ अमावस्या के दिन श्राद्ध किया जाए।