पितृपक्ष के साथ-साथ तकरीबन पूरे वर्ष लोग अपने पूर्वजों के लिए मोक्ष की कामना लेकर यहां पहुंचते हैं और फल्गु नदी के तट पर पिंडदान और तर्पण आदि करते हैं।
गया शहर के पूर्वी छोर पर पवित्र फल्गु नदी बहती है। माता सीता के श्राप के कारण यह नदी अन्य नदियों के तरह नहीं बह कर भूमि के अंदर बहती है इसलिए इसे 'अंत सलीला' भी कहते हैं।
गयावाल पंडा समाज के शिव कुमार पांडे बताते हैं कि वायुपुराण में फल्गु नदी की महत्ता का वर्णन करते हुए 'फल्गु तीरथ' कहा गया है तथा गंगा नदी से भी ज्यादा पवित्र माना गया है।
लोक मान्यता है कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान एवं तर्पण करने से पितरों को सबसे उत्तम गति के साथ मोक्ष की प्राप्ति होती है एवं माता-पिता समेत कुल की सात पीढ़ियों का उद्धार होता है। साथ ही पिंडदानकर्ता स्वयं भी परमगति को प्राप्त करते हैं।
फल्गु नदी के जल का महत्व इतना ज्यादा है कि ऐसी मान्यता है कि नदी में पांव पड़ने से उड़ने वाले पानी की छिंटे मात्र से भी पूर्वजों की आत्मा की मुक्ति हो जाती है। पैर के स्पर्श से उड़ने वाली पानी की छिंटे को भी पवित्र मानकर पूर्वजों की आत्मा इस छिंटे को भी ग्रहण कर लेती है।
राजस्थान से अपने पूर्वजों का पिंडदान करने आए संजय सेठ का मानना है कि यदि पितरों की आत्मा को मोक्ष नहीं मिला है तो उनकी आत्मा भटकती रहती है। इससे उनकी संतानों के जीवन में भी कई बाधाएं आती है। इसलिए गयाजी आकर पितरों का पिंडदान अवश्य करना चाहिए।
वहीं विष्णुपद मुहल्ले में रहने वाले पंडा महेश लाल गुप्त बताते हैं कि सर्वप्रथम आदिकाल में जन्मदाता ब्रह्मा और भगवान श्रीराम ने फल्गु नदी में पिंडदान किया था। महाभारत के वन पर्व में भीष्म पितामह और पांडवों द्वारा भी पिंडदान किए जाने का उल्लेख है।
गयापाल पंडों के पास उपलब्ध साक्ष्यों से मौर्य और गुप्त राजाओं से लेकर आध्यात्म युग के रामकृष्ण परमहंस तथा चैतन्य महाप्रभु जैसे महापुरुषों ने भी फल्गु नदी में श्राद्धकर्म और तर्पण किया था। (वार्ता)